कुछ लड़ाइयां ऐसी होतीं हैं जो अपने स्वाभिमान के लिए लड़ी जातीं हैं, फिर वहाँ यह बात गौण हो जाती है कि हम किस पोजीशन पर लड़ रहे हैं। गुलामी के दौर में जब नवगठित कांग्रेस के नेता विनम्र होकर कूकुर अंगरेजों से अनुरोध कर रहे थे, उस समय तिलक ने भारत के वीरों को ललकारते हुए कहा था कि ‘स्वतंत्रता तुम्हें चांदी की थाली में रखी हुई नहीं मिलेगी।’
यह बात आज के दौर के भारत में भी उतनी ही प्रासंगिक है। भारत में आपको अगर बोलने की आजादी मिली तो वह मात्र एक पार्टी विशेष एवं एक वृद्ध व्यक्ति विशेष के प्रयासों का फल नहीं था। चार सौ सालों के अनवरत संघर्षों और बलिदानों का परिणाम था। यह राष्ट्रवादियों के उच्चतम उत्साहों और सजगता का ही परिणाम था कि संविधान में हम ‘हम भारत के लोग!’ जैसा उद्घोष कर सके।
किंतु दुर्भाग्य आजादी के बाद से ही सच को झूठ और झूठ को सुंदर सच दिखाने का जो कुटिल सिलसिला चला, उसने चार सौ सालों के अनवरत संघर्षों पर मात्र चंद दशकों में ही पानी फेर दिया। सत्ता लोलुपता, तानाशाही की स्वर्ण सी दिखने वाली जंजीरों में ‘हम भारत के लोगों’ को जकड़ने के बखूबी प्रयास किए गए।
फिर चाहे कश्मीर को जान-बूझकर भँवर में छोड़ने की बात हो या कश्मीरी हिंदुओं की हत्याओं और बलात्कारों का अंतहीन दौर। चीन को अपनी भूमि दान देने की बात हो या संयुक्त राष्ट्र संघ में स्थायी प्रतिनिधित्व त्यागने की बात। सत्तालोलुपों ने भारत के चार सौ सालों की वैचारिक उन्नति को निम्नतम स्तर पर पहुँचाने का काम बखूबी किया।
शिक्षा, कला एवं मीडिया संस्थानों में एक विशेष कुंठित विचारधारा के लोगों को भरकर आजादी के बाद से ही सिलसिलेवार तरीके से इस देश को बाँटने के सुंदरतम सिद्धांत, खोज और तरीके लागू किए गए। हिंदुओं को गिल्ट फील करा-कराकर ऐसा कर दिया कि वह अपनी वैज्ञानिक पद्धतियों को अंधविश्वास मानने लगा और दूसरों की मूर्खतापूर्ण परंपराओं को अत्यंत महत्वपूर्ण। परिणाम यह हुआ कि ब्राह्मण, बनिया, साधु, लाला, ठाकुर हमेशा के लिए विलेन बन गए और कोट-पेंट पहनकर भगवान को कोसने वाले देवता।
अर्नब के साथ जो हुआ वह इन सात दशकों में न जाने कितनी बार हुआ है। सवाल यह नहीं कि कौन किस पार्टी का है, सवाल यह है कि यहाँ इस देश में पत्रकार, सब पत्रकारों जैसी पत्रकारिता क्यों नहीं कर सकता। एक पत्रकार जो सरकार के खिलाफ़ शाहीन बाग़ में खड़ा होकर नफ़रत भरे भाषण दे सकता है, उसे अवॉर्ड मिलते हैं, और एक पत्रकार अगर किसी राज्य सरकार के विरुद्ध अपने चैनल पर बोले तो वह गलत कैसे?
अगर आप राष्ट्रवादी हैं और यह सोच रहे हैं तो आप गलत हैं। गलत अर्नब नहीं गलत हम हैं। गलत हम हैं जो अपने इतिहासों को गलत तरीके से पेश करतीं मूवी, नाटक हम देखते हैं। गलत हम हैं जो हमारे अस्तित्व की खिल्ली उड़ाती मानसिकताओं का हम संगठित होकर विरोध नहीं करते। गलत हम हैं क्योंकि हमें अपना ही ज्ञान नहीं है।
अरे हम तो इतने जाहिल हैं कि अगर कोई हमारे स्वाभिमान के लिए लड़े तो हम उसके समर्थन में एक दो पंक्तियों वाला ट्वीट तक नहीं लिख सकते। अर्नब के जैसे लोग प्रताड़ित किए जाते रहे हैं और किए जाते रहेंगे क्योंकि हम मेंढ़क की तरह एडजस्टमेंट की बात सोचते हैं।
आप कवि हैं तो उनको आईना दिखाती कविताएँ लिखिए, लेखक हैं तो उनको एक्सपोज़ करती कथाएँ लिखिए, आप निबंधकार हैं, निबंध लिखिए, व्यंग्यकार हैं, व्यंग्य लिखिए। चित्रकार हैं तो चित्र बनाइए, शिक्षक हैं तो शिष्यों को चंद मिनट ऐसे पाखंडियों के बारे में बताइए। अगर आप अच्छे वक्ता हैं तो बोलिए, श्रोता हैं तो सुनिए।
सबसे बड़ी बात, अपनी बातों को उचित तथ्यों के साथ सोशल मीडिया पर रखिए। लिखिए, खूब लिखिए, प्रतिदिन लिखिए। प्रतिदिन इन कागज़ के फूलों को बेनकाब कीजिए। हर मुद्दे पर मुखर होइए। यह मत सोचिए कि आप इस काम में दक्ष हैं या नहीं। टूटे-फूटे शब्दों में लिखिए, बोलिए, समझाइए और दिखाइए। यह समय हमारे चुप रहने का नहीं है, यह समय हमारे सक्रिय रहने का है।
सम्प्रति, राष्ट्रवाद की जंग लड़ रहे लोगों या संस्थानों का खुलकर सपोर्ट करिए, आर्थिक मदद कीजिए जिससे वो इस जोखिम भरे काम को उत्साह के साथ कर सकें। अगर आप इतना भी नहीं कर सकते तो भगवान के लिए बार-बार सेक्यूलर विष्ठा अपने मुख से मत निकालिए।
अंत में यही कहूँगा कि हमें रिपब्लिक भारत, ऑपइंडिया जैसे संस्थान बड़ी मुश्किल से मिलते हैं, क्योंकि हम इतने निकम्मे हैं कि स्वयं तो कुछ कर नहीं सकते, ‘मेले बाबू ने थाना थाया’ के सिवा हमें कुछ आता तो है नहीं। तो कम से कम इनका सपोर्ट करिए, इन्हें आगे बढ़ाइए। वरना हम उस जगह पहुँच जाएँगे जहाँ हमारा वैचारिक ख़तना हमें पूर्णतः नपुंसक बना देगा।