कालीकट इंजीनियरिंग काॅलेज (केरल) के अंतिम वर्ष का छात्र राजन 1 मार्च 1976 को अपने दोस्त जोसेफ अली के साथ छात्रावास से उठा लिया गया. राजन के पिता टी वी इचार वारियर ने बेटे की तलाश में थाने के दरोगा से लेकर बड़े अधिकारियों तक से सम्पर्क किया. तब भी बेटे का कहीं पता नहीं था. तत्कालीन गृहमंत्री के. करुणाकरन से भी मदद की गुहार लगाई गई.
पर ये सब प्रयास व्यर्थ थे, आपातकाल लागू था और नागरिक अधिकारों की धज्जियां उड़ा दी गई थीं. सरेआम उठा लिए गए राजन का कोई अता- पता नहीं था. आपातकाल खत्म हुआ तो राजन के पिता ने हाईकोर्ट में अपील की, और अगले दिन सुनवाई हुई. गवाहों ने बताया कि राजन को कालीकट के टूरिस्ट बंगले में बंद कर दिया गया, पुलिस की यातनाएं दी गईं. हाईकोर्ट में केरल सरकार ने जवाब देने हुए कहा कि पुलिस यातना से राजन की मौत हो गई.”
आपातकाल की ये इकलौती कहानी नहीं है. सत्ता में मदमस्त हाकिम की क्रूर दंडपाश ने कई जीवन में अंधेरे ढकेले थे. जब जनता पार्टी की सरकार बनी. और आपातकाल की जांच कराई गई तो, शाह आयोग ने रिपोर्ट में कहा कि करीब एक लाख ग्यारह हज़ार लोगों को निवारक निरोध के आधार पर गिरफ्तार किया गया था. 646 विपक्षी बड़े नेताओं को बंगले पर ही नजरबंद या जेल में ठूस दिया गया था.
और आज बात दो बात पर प्रेस की आजादी पर वज्र चलने और अभिव्यक्ति का गला घोंटने जैसे बड़े बड़े विवाद भले ही हों. पर ये वही दौर था जब रातों रात प्रेस पर ताला मढ़ दिया गया था.
अब आइये आपातकाल की इस पृष्ठभूमि पर नज़र डालें. आखिर क्या हुआ कि कद्दावर प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी अचानक मंत्रिमंडल को बताए बिना रातोरात सरकार बचाने की जुगत करने लगीं.
1967 के पश्चात कांग्रेस में एक नेता, एक विचार शाश्वत लगने लगा था. श्रीमती इंदिरा गांधी एक बड़ी नेता के रूप में उभर चुकी थीं.
राजनीति विज्ञान में मजबूत विपक्ष लोकतंत्र की बुनियाद की रक्षा करता है. इंदिरा के बढ़ते कुनबे को धाराशाही करना सिर्फ विपक्षी नेताओं की चाह नहीं थी. कांग्रेस के भी कई नेता इस सर्वशक्तिमान वाले रवैये से परेशान थे.
सबकुछ ध्रुवीकृत था. कांग्रेस की आंतरिक राजनीति ना केवल अस्थिर बल्कि एंटी इंदिरा हो गई थी.
एक ओर केन्द्र सरकार आंतरिक राजनीति और सत्ता पक्ष की पार्टी में भिड़ते थी. वहीं न्यायपालिका और सरकार में भी जमकर जंग छिड़ी थी. यहां तक कि जब कई मुद्दों पर न्यायालय ने सरकार के निर्णयों को असंवैधानिक करार दिया, तो कांग्रेस पार्टी और स्वयं प्रधानमंत्री ने न्यायपालिका को ‘यथास्थितिवादी’ कहा.
ये दौर इतना कठिन था कि सरकार से सवाल पूछे जा रहे थे. संकट चहुंतरफा था, और साथ ही देश में भयंकर आर्थिक संकट भी था.
उस वर्ष कृषि उपज आठ प्रतिशत कम रहा, औद्योगिक विकास दर घट गई, तेल की कीमते आसमान छू रही थीं. और ग्रामीण बेरोजगारी भी बहुत अधिक थी. सामान्य वस्तुओं की कीमतों में 1974 के दौरान 30 प्रतिशत की वृद्धि हुई. कुल मिलाकर अर्थव्यवस्था के सभी आँकड़े अधोमुखी थे.
सरकार ने सरकारी कर्मचारियों के वेतन में जबरदस्त कटौती की. इसने भी सर्वत्र असंतोष को जन्म दिया. और 1960 के दशक में ये असंतोष फूटा, छात्र आंदोलन के रूप में.
1970 के दशक में भारतीय आंतरिक सुरक्षा पर भी एक बड़ा धब्बा लगा. बंगाल नकस्लवादी आंदोलन सक्रिय हुए. चारू मजूमदार जैसे नेताओं ने इसे हवा दी. तो तत्कालीन बंगाल की कांग्रेस सरकार इस पर नियंत्रण करने में ना सिर्फ नाकाम रही. बल्कि नक्सलवाद का प्रसार बंगाल से लगे अन्य राज्यों में भी फैल गया.
अबतक जो असंतोष चंद छात्र रैलियों तक सिमटा था. वह अब गुजरात और बिहार के बड़े छात्र आंदोलन में परिवर्तित हो चला. गुजरात में भी कांग्रेस सरकार थी. गुजरात में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. जिसका विरोध करने वालों में ना केवल विपक्षी दल बल्कि कांग्रेस (O) के मोरारजी देसाई भी शामिल थे.
सबने चुनाव कराने की मांग की और कांग्रेस के ही देसाई जी ने भूख हड़ताल की धमकी दी. मजबूरन चुनाव करवाए गए और नतीजा वही हुआ जिसका डर कांग्रेस को था…. कांग्रेस हार गई.
1974 के अंत में बिहार छात्र आंदोलन शुरु हुआ और यहां जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने प्रवेश किया. वैसे जेपी उस समय राजनीति छोड़ समाजसेवा में लग गए थे. लेकिन जब छात्रों ने आंदोलन के नेतृत्व की बागडौर सौंपना चाहा, तो सशर्त जेपी आंदोलन में शामिल हुए. शर्त यह रखी कि सबकुछ अहिंसक होगा और देशव्यापी भी.
जेपी ने नारा भर दिया ‘बिहार सरकार बर्खास्त करो’. जबरदस्त प्रदर्शन और हड़तालें हुईं. पर सरकार टस से मस नहीं. आप याद रखें इस दौर में कांग्रेस के अध्यक्ष डी के बरुआ ने 1975 में ही बोल दिया था, “इंदिरा इज़ इंडिया, इंडिया इज़ इंदिरा.”
सरकारें गिरती भी तो कैसे, जब व्यक्तित्व का महिमामंडन देश या लोकतंत्र का पर्याय बन जाए तो वास्तव में बात स्वाभिमान की हो जाती है. फिर चाहे जितने ही आदर्शों का गला घोंटना पड़े. सत्ता बचाए रखना लक्ष्य हो जाता है.
फिर सम्पूर्ण क्रांति का नारा देकर पूरे देश में भ्रष्टाचार और जन इच्छाओं की बलि के विरूद्ध आंदोलन हुए. अब दिल्ली की कुर्सी का संतुलन बिगड़ने लगा था. पर शायद अब भी स्वहित अन्य हितों से बड़ा ही था. इस दौरान जेपी को सहयोग मिला कुछ और पार्टियों का, जिनमें जनसंघ, कांग्रेस (O) , भारतीय लोकदल, और सोशलिस्ट पार्टी शामिल थीं.सबने जेपी को इंदिरा का विकल्प घोषित किया.
दिल्ली की सत्ता एक बार फिर से डगमगाई.
इसी बीच न्यायपालिका और सरकार में जमकर ठनी. कई बड़े पेचीदगी भरे मामले जिनमें (केशवानंद भारती मामला सबसे महत्वपूर्ण था) सर्वोच्च न्यायालय गए. SC ने साफ कहा कि संसद संविधान के आधारभूत ढांचे में किसी भी परिस्थिति में संशोधन नहीं कर सकती. जो कि सरकार करना चाहती थी.
बता दें कि इसी बीच 1974 में बीस दिनों की रेल हड़ताल हुई. रेलवे कर्मचारियों में भी असंतोष की चादर फैल गई. मज़दूरों ने जब हड़ताल किया तो सरकार द्वार जबरन हड़ताल बंद करवाते हुए, सेना बुला ली गई.
एक और मामला आया.
आमतौर पर सर्वोच्च न्यायालय में वरिष्ठतम न्यायाधीश ही भारत के मुख्य न्यायाधीश के पद पर नियुक्त होते हैं. परंतु इंदिरा सरकार ने तीन वरिष्ठतम न्यायाधीशों की बजाय न्यायमूर्ति ए. एन. रे की नियुक्ति की. कहा जाता है कि जिन दो वरिष्ठ सदस्यों को दरकिनार किया गया. उन्होंने कई मौकों पर सरकार के विरुद्ध फैसले सुनाए थे.
दूसरी ओर 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी के चुनाव को गैरकानूनी घोषित कर दिया. अर्थात् कानूनन श्रीमती गांधी अब सांसद नहीं रह सकती थीं. और छ: मास के भीतर यदि पुन: निर्वाचित नहीं होतीं, तो प्रधानमंत्री भी नहीं रह सकतीं. खैर, सर्वोच्च न्यायालय ने हाईकोर्टके इस निर्णय पर स्टे ले लिया और पूरी सुनवाई होने तक इंदिरा को सांसद घोषित किया साथ ही लोकसभा कार्यवाई से अयोग्य घोषित किया.
अब सारी हवाएं, सारी फिजाएं, सारे कानून भी सरकार गिरने की राह देख रहे थे. पर एक उपाय अब भी बचा था…
25 जून 1975 की रात को श्रीमती गांधी ने राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद से आपातकाल लगाने की सिफारिश की.
आपातकाल घोषित हुआ, पर मंत्रिमंडल को खबर ना थी.
आधी रात को ही देश के बड़े विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी हुई. बड़े अखबारों की बिजली काट दी गई. प्रेस सेंसरशिप लगा दिया गया. रात में दिल्ली के बड़े विद्युत अधिकारी के पास सरकार का फैक्स आया और ये सारे काम कर दिये गए.
आधी रात काम चालू था, और कैबिनेट मीटिंग सुबह 6 बजे हुई. तभी सबको पता चला कि देश में लोकतंत्र का सर मूंडने कई तैयारी हो चुकी थी.
जिन अखबारों की बिजली काटी गई, उन्हें कई घंटे बाद बिजली मिल भी गई. पर तबतक बडा कठोर सेंसरशिप कानून बन चुका था…
लोकतंत्र था? यह अपने आप में बड़ा प्रश्न था.
आपने इतिहास की किताबों में लार्ड लिटन के तुगलकी फरमान वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट के बारे में सुना होगा. उस एक्ट के बाद पहली बार ऐसा अकस्मात आदेश आया जब अखबारों को कुछ भी छापने से पहले अनुमति लेनी थी. कई अखबारों ने इस शक्ति के सम्मुख घुटने टेकने बेहतर, बंद होना सही समझा.
आर के लक्ष्मण (टाइम्स ऑफ इंडिया) सरीखे अन्य कई पत्रकारों ने कई कार्टून छापे, जिसमें प्रेस पर हुए इस अलोकतांत्रिक हमले पर दुख और व्यंग व्यक्त किया गया. कई अखबारों ने उन जगहों को काला कर दिया या खाली छोड़ दिया, जहां वे खबरें छपने वालीं थीं. जिसे इंदिरा सरकार बाहर नहीं करना चाहती थी.
कई सम्पादकीय लिखे गए, जहां साफ कहा गया कि भारत में कुछ भी लिखने से कहले सरकार से पूछा गया है. इसी बीच देश के कई इलाकों में सरकार ने अपनी शक्तियों का जबरदस्त तरीके से प्रयोग किया; दिल्ली के तुर्कमान गेट में विध्वंश किया गया. कई झुग्गियां यमुना के किनारे लगाई गईं, कुछ को उजाड़ दिया गया. जबरन नसबंदी करवाई गई
नसबंदी अभियान से कुछों ने लाभ भी कमाया. किसी और की नसबंदी करवाने में जिसने सरकार को खुफिया जानकारी दी. उन्हें इनाम के रूप में जमीन भी मिली. (यह सब मनगढंत नहीं बल्कि शाह आयोग कि रिपोर्ट पर आधारित है).
चारो और एक अजीब सा भय घर कर गया. कई झुग्गियां पर बुलडोजर चले. जनसंख्या नियंत्रण की अतिवादी सोच ने कईयों की जान ली.
और हां इस बीच ना आप कोर्ट में अपील कर सकते थे, ना ही कोर्ट स्वत: संज्ञान ले सकता था. अनुच्छेद 32 का संवैधानिक अधिकार रद्द हो गया था. कहीं से भी, कोई भी गिरफ्तार हो सकता था.
कांग्रेस में आंतरिक खलबली इतनी थी कि कई नेता इंदिरा विरोधियों के साथ आ गए. और किसी भी सरकारी पद पर ना आसीन होते हुए भी एक व्यक्ति की भूमिका प्रशासन में खूब बढ़ गई थी. वे थे; संजय गांधी. इससे प्रशासनिक अमले में अनिश्चितता भी फैली.
आपातकाल में ही आरएसएस और जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध लगाया गया. कोई भी धरना, प्रदर्शन, हड़ताल नहीं हो सकती थी.
मतलब साफ था; ना कोई मौलिक अधिकार, ना ही कथित ह्यूमन राइट्स, ना ही कोई जनहित याचिका. बार बार हाई कोर्ट की ओर से सरकारी शक्तियों पर रोक लगाई गई, पर सरकार सर्वोच्च न्यायालय से “न्याय” पा चुकी थी.
‘इंडियन एक्सप्रेस’ और ‘स्टेट्समैन’ ने प्रेस बैन का विरोध किया. और ‘सेमिनार’ जैसी पत्रिकाओं का संपादन बंद करना पड़ा. इसी बीच पद्मभूषण से सम्मानित कन्नड़ लेखक शिवराम कारंत और पद्मश्री फणीश्वरनाथ रेणु ने लोकतंत्र के हनन का विरोध किया और अपना सम्मान लौटा दिया.
वे इससे अधिक कुछ कर ना पाये, करते भी क्या जेल भर दी जा रही थीं. अब इतना कुछ हो चला तो श्रीमती इंदिरा गांधी ने संविधान संशोधन कर डाला. याद हो कि न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द किया था.
अत: 42 वां संशोधन कर प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति के चुनावों को न्यायिक समीक्षा से अलग कर दिया. ताकि सत्ता तक आंच ना आ पाए.
और भी बहुत से बदलाव हुए. मसलन आपातकाल के बाद चुनाव 1976 के जगह 1978 में करा सकना आदि आदि. पर सूरज ढलता है….
कई बड़े राजनीतिक उथल पुथल के बाद जब फिर से आम चुनाव हुए, तो कांग्रेस बुरी तरह हारी. और जनता सरकार बनी. फिर मई 1977 में पूर्व मुख्य न्यायधीश J.C. शाह की अध्यक्षता में शाह आयोग बनाया गया, जिसका काम था; आपातकाल की जांच करना.
इस आपातकाल के दौरान और बाद में बहुत कुछ हुआ, गरीबी हटाओ का नारा भी था. शाह आयोग ने रिपोर्ट में साफ हुआ, “पिछली सरकार द्वारा वादों के आगे ज्यादतियों पर पर्दा डालने का भरपूर प्रयास हुआ.” और भी बहुत कुछ….
#बड़का_लेखक