2002 के आसपास की बात है, पिता जी की अचानक तबियत खराब हुई. गर्मी के दिन थे और हम सभी नाना के घर पर ही थे. पिता जी की हालत बहुत नाजुक हुई. उस समय हम सभी गर्मियों की छुट्टियां मनाने इलाहाबाद गए थे. तो आस पड़ोस और परिवार के लोगों ने मदद की और एक किराये की सेन्ट्रो से इलाहाबाद बढ़ चले.
फोन पर हमें खबर मिल चुकी थी, मैं तो समझदार तो नहीं हो चला था, अभी छोटा ही था.
रात के तीन बजे नोकिया के मोटे वाले सेट पर बजी वो “ओम जय जगदीश” वाली रिंगटोन आज भी याद है. जिससे पता चला कि पिता जी की तबियत थोड़ी नासाज़ है. सुबह 10 बजे तक पापा आ गए थे, और डाॅ. ने आपरेशन का नाम ले लिया था.” आपरेशन और माता जी सिहर चुकी थी… हम ठहरे भी थे नाना के घर, यानि माता जी अपने मायके में… और वहां अपने बाबू जी के सामने पति के लिए रोना थोड़ा… शर्म ही आ रही थी उन्हें.. मैं इतना बड़ा था कि ये सब देख रह था, थोड़ा डरा भी था, पर क्या हो रहा ये बिल्कुल ना पता था….(मेरी उंगलियां कांप रहीं हैं)
करीब ग्यारह बजे ये खबर आई कि पिता जी ओटी में हैं. माता जी अब भी काली मैक्सी में सुबह से यूंही बैठी थीं.. शायद मंजन भी नहीं किया था.. और वो दिन था… शुक्रवार उस कठिन समय में भी मेरे पापी पेट में जालिम भूख दौड़ उठी थी, मैंने मांग भी की.. सब सन्नाटे में एकदम शांत थे, नाना जी बीच बीच में चंद्रा नर्सिंग होम फोन करते, और मामा से पूछते… आपरेशन थोड़ा क्रिटिकल था..
पर माता जी अब भी निश्चिंत भाव से एकटक लगाए कुछ देख रही थी.. जिस कमरे में वो बैठी थी, उसके सामने ही पूजा का कमरा था. और वहां से एक किताब झांक रही थी… जिसमें लिखा था “शुक्रवार व्रत कथा”.
जिसका पति ओटी में हो, सामने तीन बच्चे हों, वो अपना सब ज्ञान बिसर जाती है, उसे बस अंतिम राह दीखती है… भगवान. ना जाने क्या प्रण किया, और सहसा फोन की घंटी बजी.. उधर से आवाज आई, “आपरेशन हो गया है.”
पिता जी खतरे से बाहर थे.. थोड़ी देर में मूर्छा भी चली जाएगी” नाना ने यही बात दोहराई. मम्मी के बगल हम सब खड़े थे, उनका हाथ मेरे सर पर घूम गया.. माता जी की आंखें भीग गईं, लगभग सभी रो पड़े.
भगवान ने हमारी सुन ली थी. करीब दो बजे के बाद फिर से फोन आया, “जीजा जी ठीक हैं, थोड़ा बोल भी रहे हैं”. दिन शुक्रवार था और मम्मी की अट्ठारह साल से अधिक की तपस्या का पहला दिन निर्जला शुरू हो गया था. उन्होंने मां संतोषी का व्रत करना शुरु कर दिया. महीने भर हम वहीं रहे, हर हफ्ते जांच होती. डाॅक्टर और दवाओं से अच्छा सम्बंध भी बन गया.
और साठ दिन तक वहां टिके रहने के बाद हम वापिस अयोध्या आए. एक वो दिन था, एक आज का दिन है, पिता जी एकदम स्वस्थ हैं.
फिर इक्कसवीं सदी के कई वर्ष बीते, कई बसंत और पतझड़ आए. पर उनका व्रत बना रहा. कई बार बीपी से लेकर सर्वाइकल जैसे राक्षसों ने ये व्रत भंग भी करना चाहा, पर माता जी की भक्ति और चटक होती गई. बल्कि हर बार एक नये रंग घोलती आईं हैं. शुक्रवार को व्रत होता है, तो गुरुवार सायंकाल से खट्टा वर्जित हो जाता है. घर के सारे बर्तन फिर से धुले जाते हैं. दही, नींबू यहां तक की केले को छोड़कर कोई फल घर में नहीं बच सकता है. कोई कितना भी बाहर रहे, कुछ भी खट्टा नहीं खा सकता है. ये दो दिन बस मां की चलती है और उनकी भक्ति नये कलरव करती है. आज कई बरस हो गए, व्रत अभी भी चलता है. हमारे द्वारा दिया गया कोई भी स्वास्थय वर्धक ज्ञान उनको मिथ्या लगता है. “हम भी उसी रंग में रंग गये हैं, और मिल गया है प्रसाद भक्ति का.”
शब्द ज्यादा हो गए, दिल से क्षमा. आप सभी को भक्ति रस प्राप्त हो, उसमें वृद्धिरत चंद्र की भांति बढ़ोत्तरी हो. श्री रंगनाथ जी कृपा बनाए रखें.
(लिखने का अवसर देने के लिए अजीत भारती जी का बहुत धन्यवाद.)