Friday, March 29, 2024
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हिंदू रेट ऑफ ग्रोथ का सच

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महान अर्थशास्त्री और नोबल प्राइज़ विजेता डाक्टर अमर्त्य सेन को भारत की तरक्की में हिन्दू धर्म रोड़ा नजर आने लगा है।
वैसे ये पहली बार नही हुआ है। आज सेकुलर लिबरल वर्ग देश मे बलात्कार जैसे जघन्य अपराध में हिन्दू देवी स्थान का नैरेटिव खोज लेता है, रुद्र हनुमान से देश के इन्टॉलरेंस को जोड़ लेता है। एक बार भारत के पाकिस्तान से हॉकी मैच हार जाने पर प्रभास जोशी ने इसे भी हिन्दू धार्मिक मान्यताओं से जोड़ दिया था।

इसी प्रकार सत्तर के दशक में नेहरूवियन सोशलिज्म की नाकामियों को छुपाने और देश की आर्थिक बदहाली का ठीकरा फोड़ने के लिये एक नया जुमला गढ़ा गया था।
“हिन्दू रेट ऑफ ग्रोथ”

आज़ादी के बाद से ही नेहरू काल में भारत ने सोशलिस्ट इकॉनमी का मॉडल फॉलो किया और बाज़ार, लाइसेंस राज लाल फीता शाही के नीचे दबा रहा, इस समय 1970 के दशक में एक भारतीय अर्थशास्त्री डॉक्टर राज कृष्णन ने एक कहा था लगता है, किसी हिन्दू धर्मशास्त्र में लिखा है कि 3.5 % से ज्यादा ग्रोथ रेट नही होगी और 3.5 जैसे कोई दैवीय अंक है।

डॉक्टर राज शिकागो से अर्थशास्त्र पढ़े हुये थे।

असल में इस थ्योरी के बीज बहुत पहले पड़ गये थे, भारत को समझने के लिये भारतीय अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र में उन विद्वानों को पढ़ाया गया जिन्होंने कभी भारत को देखा नही किसी भारतीय ग्रँथ को पढ़ा नही।

पहला उदाहरण, कार्ल मार्क्स 25 जून 1853 में न्यूयार्क हेराल्ड ट्रिब्यून में उन्होंने भारत के लिये लिखा की भारतीय गांव खुद में एक इकनॉमिक यूनिट हैं, ये न तो कुछ आयात करते हैं न ही कुछ निर्यात, ये खुद ही उत्पादन करते हैं और खुद ही खपत,
आर्थिंक रूप से कोई भेदभाव नही है, इसे कार्ल मार्क्स ने प्रिमिटिव सोशलिज्म कहा, पर आगे उसने कहा कि ये समाज प्रगति नही कर सकता, क्योंकि ये बंदरों ओर गायों की पूजा करता है, और एक क्रांति लाने के लिये इस सँस्कृति को टूटना होगा जो काम ब्रिटिश कर रहे हैं ये देखने में कष्टकारी है, पर लाभपूर्ण भी है।

इसके बाद मैक्स वेबर जिन्होंने 1925 में अपनी किताब में बताया कि दो सभ्यतायें अर्थव्यवस्था में कभी प्रगति नही कर सकती, भारत और चाइना साथ ही उसने ये भी लिखा क्योंकि हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धांत को मानते हैं, जो की बाजारवाद के सिद्धांतों के खिलाफ है इसलिये ये आर्थिक प्रगति में पीछे रह जायेंगे, और आर्थिक रूप से आगे बढ़ने के लिये इन सभ्यताओं के इन मूल भूत सिद्धांतो को खत्म करना होगा। भारत मे इन्ही थिंकर्स को कॉलेजों में विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाने लगा।

इन सिद्धांतों की पोल खुलना शुरू हुई सत्तर के दशक में जब साउथ कोरिया और जापान की इकॉनमी ने रफ्तार पकड़ी, क्योंकि एक बौद्ध देश होने के नाते तो जापान को इकॉनमी में पीछे रहना चाहिये था। इसको समझने के लिये पॉल बेरोक एक बेल्जियम अर्थशास्त्री ने सन 1750 से 1918 तक के दुनिया भर के आर्थिक सर्वेक्षणों का अध्ययन किया और उसके नतीजे में ये डेटा दिया,

सन 1750 में वर्ड जीडीपी में किसका कितना हिस्सा था
चाइना– 32%
भारत– 25 %
यूके– 1.8 %

इस स्टडी ने यूरोपीय दुनिया मे खलबली मजा दी और दुनिया के महानतम अर्थशास्त्री एंगस मेडिसन के नेतृत्व में ऑर्गनाइजेशन ऑफ यूरोपियन इकनॉमिक कॉर्पोरेशन (OEEC) ने एक व्यापक स्टडी वैश्विक अर्थव्यवस्था पर शुरू की जिसमे पिछले दो हज़ार साल की अर्थव्यवस्था में किसका कितना योगदान रहा इसको जानने की कोशिश की गई, इस रिपोर्ट को 2001 में जारी कर दिया गया जिसमें बताया गया कैसे सोलहवीं शताब्दी तक एशिया इकनॉमिक जॉइंट था और भारत और चाइना वैश्विक अर्थव्यवस्था को लीड कर रहे थे।

पर आज भी हमारे संस्थानों में उन्ही लोगों को पढ़ाया जा रहा जिन्होंने भारत कभी घुमा नही भारत को जाना नही ओर निर्णय दे दिया कि, बिना यहाँ की सभ्यता सँस्कृति को नष्ट किये हुए आर्थिक प्रगति सम्भव नही है।

अब तय आपको करना है, कि आपको सो कॉल्ड बुद्धिजीवियों के सेट किये हुए एजेंडे पे भेड़ चाल में चलना है या अपना एजेंडा खुद सेट करके दुनिया को राह दिखानी है।

सोर्स –
The world Economy – Angus Maddison
First Raj Krishna Memorial lecture
The British Rule in India – Karl Marx
The British Left India Richer Than They Found It – Unfortunately It Was Malthusian Growth

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