भारतीय अदालतों में दायर किये गए मुकदमों में से कुछ ऐसे होते हैं जिन्हें सिर्फ और सिर्फ किसी न किसी प्रकार के राजनीतिक हित साधने के लिए दायर किया जाता है. और अगर मीडिया उसे उछाल दे तो फिर कहना ही क्या. ऐसे समय मे जब सिर्फ भारत की शीर्ष अदालत में ही पचास हजार से अधिक मुकदमे लंबित पड़े हुए हों, ऐसे राजनीतिक फायदों के लिए झटपट पीआईएल दायर कर के कोर्ट का समय खराब करना तो बिल्कुल ही जायज नही है.
ऐसे “धमाकेदार” पीआईएल बस इसीलिए दाखिल किए जाते हैं ताकि कांग्रेस उन्हें मसला बना कर भाजपा के ऊपर हमला बोल सके और उनको आधार बना कर कोई “सनसनीखेज” खुलासे करने वाले बयान दिए जा सके. और इसका अगला स्टेप होता है उन बयानों को मीडिया के एक भाग द्वारा काफी जोर-शोर से फैलाना. अब आपको ये बताने की कोई जरूरत तो है नही की ये गिने-चुने मीडिया वाले कौन लोग हैं या कौन सी वेबसाइट्स हैं. हाँ, एक चीज जो इन सभी रिपोर्टों में समान होती है वो है किसी भी प्रकार के ठोस सबूतों का अभाव. तथ्य के नाम पर होती है तो सिर्फ एक कहानी क्योंकि कहानियां बिकती है और सच्चाई नही.
अब आजकल सुर्खियों में चल रहे या एक खास मकसद के तहत चलाये जा रहे 2006 के तुलसी प्रजापति एनकाउंटर वाले केस को ही ले लीजिए. इस केस के मुख्य जाँचकर्ता संदीप तमगड़े ने बयान दिया है कि इस एनकाउंटर को अमित शाह के ईशारे पर तीन पुलिस अधिकारियों- डीजी वंजारा, राजकुमार पांड्यन और दिनेश एमएन ने मिलकर “अंजाम” दिया. जाहिर तौर पर ये एक चौंका देने वाला बयान है जो हर नागरिक को इसके बारे में सोचने को विवश कर देगा और यकीन मानिए, इन्हें कुकुरमुत्ते की तरह कुछ समाचार एजेंसियों द्वारा सुर्खियां बना कर सोशल मीडिया में ज्यादा से ज्यादा फैलाने का मकसद भी यही होता है.
सच्चाई को पर्दे के पीछे रख कर ऐसी ही बिकने वाली कहानियों को सुर्खियां बनाने वाले समाचार पोर्टल द वायर ने भी अपने एक रिपोर्ट में कुछ इसी तरह का हैडलाइन दिया- “अमित शाह व डीजी वंजारा तुलसीराम प्रजापति हत्याकांड के मुख्य साजिशकर्ता: मुख्य जांच अधिकारी”. वहीं भोजन तक कि जाति खोज लेने वाले शेखर गुप्ता की कुख्यात वेबसाइट द प्रिंट ने भी कुछ इसी तरह की सुर्खियां बनाई है.
अगर आप इन सुर्खियों के लिखने के तरीके पर गौर फरमाएंगे तो आपको पता चलेगा कि इन्हें किसी खास मकसद के लिए ही बनाया गया है. जैसे कि अंग्रेजी में हैडलाइन के कुछ हिस्से को बड़े अक्षरों में लिखना या फिर विस्मयादिबोधक चिह्न देना. ये सब इन बात की निशानी होती है कि इस बिना सिर-पैर के लेख में कितना जहर भरा हुआ है.
हालांकि द प्रिंट ने इन खबर को द वायर से ज्यादा ईमानदार तरीके से पेश किया है. उसने पीटीआई के शब्दों को हूबहू पेश किया जो कुछ इस प्रकार है:
“सीआईओ संदीप तमगड़े जिन्हें जांच प्रक्रिया के बीच मे की निकाल बाहर किया गया, ने ये स्वीकार किया है कि उनके दावे को साबित करने के लिए उनके पास किसी भी प्रकार के साक्ष्य नही हैं.”
और रोचक बात तो ये है कि द वायर ने इस हिस्से को अपने लेख में कहीं जगह दी ही नही. उसने अपने लंबे-चौड़े लेख में पाठकों को ये तक बताने की भी जहमत नही उठाई कि सीआईओ संदीप तमगाड़े ने ये स्वीकार किया है कि उन्होंने अमित शाह और डीजी वंजारा को तुलसीराम प्रजापति एनकाउंटर के मुख साजिशकर्ता बताने वाले दावे को साबित करने के लिए अदालत में पेश किए गए चार्जशीट के साथ लिखित रूप में किसी भी तरह का कोई भी साक्ष्य नही पेश किया है.
इसके उलट द वायर से संदीप तमगाड़े के बयान को ही प्रमुखता से प्रकाशित किया है और कहा है कि ये “खुलासे” ऐसे निर्णायक समय पर आए हैं जब कई गवाह अपने बयानों से पलट रहे हैं. अव्वल तो ये की द वायर ने अपने लेख में ये भी नही बताया कि अदालत ने ये जाहिर किया कि इस केस के साथ राजनीति भी जुड़ गई है.
यहां आपको ये बता देना काफी जरूरी हो जाता है कि 2014 में सीबीआई की विशेष अदालत द्वारा अमित शाह को इस मामले से मुक्त किया जा चुका है और ये फैसला देते समय न्यायाधीश एमबी गोस्वामी ने कहा था:
“पुलिस केस ज्यादातर गवाहों के ऐसे बयानों पर निर्भर करती है जिनकी प्रवृत्ति अफवाहों जैसी है.”
अमित शाह के विरुद्ध एक “साक्ष्य” यह भी था कि उस कालांतर में उनके द्वारा डीजी वंजारा को कई फ़ोन कॉल किये गए थे. ये काफी हास्यास्पद है कि दो लोगों द्वारा “कई बार कॉल पर बात करने” को उनके विरुद्ध एक मुख्य सबूत के तौर पर पेश किया गया. और जैसा कि जाहिर है, अदालत द्वारा इसे नकार दिया गया.
तमगड़े अपने “खुलासे” में कहते हैं- “उन तीनों के खिलाफ कुछ ठोस सबूत थे लेकिन उन्हें चार्जशीट के साथ नही फ़ाइल किया गया.” ये अपने-आप में विरोधाभाषी है क्योंकि इस से पहले उन्होंने कहा था कि उनके पास कोई दस्तावेजी सबूत नही है. इसके बाद डिफेंस वकील ने एक आवेदन दिया जिसमें कहा गया कि सीबीआई को इन बयानों को अदालत में पेश करना चाहिए. अदालत इस आवेदन पर गुरुवार को सुनवाई करेगी.
आपको ये जान लेना जरूरी है कि अदालत ने 8 अप्रैल 2013 को प्रजापति केस को सोहराबुद्दीन केस के साथ रखा था. ऐसा द वायर के ही एक लेख में बताया गया है और उसे भी इसी पत्रकार ने 20 नवम्बर 2018 को लिखा था. उस लेख में लिखा गया है:
“पूर्व मुख्य जांच अधिकारी अमिताभ ठाकुर ने इस बात से इनकार किया कि मामले में 22 अधिकारियों को फंसाने को लेकर सीबीआई निदेशक अश्विनी कुमार ने उनसे कोई पूछताछ की थी. उन्होंने इस बात से भी इनकार किया कि उनसे और उनके सीनियर डीआईजी पी. खांटास्वामी द्वारा राजनीतिक फायदे के लिए मौजूदा 20 आरोपियों को फंसाने के बारे में अश्विनी कुमार ने कोई पूछताछ की थी.
ठाकुर ने कहा कि सोहराबुद्दीन की शरीर पर कथित रुप से पाए गए 92 नोटों से संबंधित कोई चीज नहीं है और न ही इसे लेकर कोई जांच हुई थी. उन्होंने कहा कि चार्जशीट फाइल करने के लिए आरोपी अहमदाबाद एटीएस के पूर्व सब-इंसपेक्टर के खिलाफ कोई सबूत नहीं था.”
द वायर ने अपने इस लेख में आवेश में आकर यहां तक दावा किया है कि अदालत इन सबके बावजूद भी अमित शाह को तलब कर सकती है. लेख में ये भी बताया गया है कि अमित शाह को सोहराबुद्दीन मामले में अपराधमुक्त करार देकर अदालत द्वारा बड़ी किये जा चुके हैं. ऐसे विरोधाभासों से भरे लेख कई संदेहों को जन्म देते हैं.
और तो और, द वायर यहां पर एक जांच अधिकारी की भूमिका में भी नजर आता है. तमगड़े के बयानों को पेश करते हुए उसने इस बात को काफी चालाकी से नजरअंदाज कर दिया कि उन्होंने खुद इन बात को स्वीकार किया है कि उनके पास कोई दस्तावेजी साक्ष्य नही है. द वायर के लेख में लिखा है:
“यद्द्पि इस मामले के पूर्व मुख्य जांचकर्ता और सीनियर पुलिस अधिकारी अमिताभ ठाकुर अपने बयानों से नही पलटे लेकिन एक गवाह के तौर पर वो अपने जांच में पाए गए सबूतों को पेश करने में विफल रहे.”
द वायर ने ये निष्कर्ष निकाला कि सोहराबुद्दीन केस के मुख्य जांच अधिकारी अमिताभ ठाकुर के पास सबूत तो थे लेकिन वो किन्ही कारणों से उन्हें अदालत में पेश करने में विफल रहे. अगर आप तह तक जाएंगे तो पता चलेगा कि ठाकुर ने खुद कहा था कि आरोपितों में से किसी के पास इस हत्या को अंजाम देने का कोई कारण नजर नही आता. तो फिर सवाल ये उठता है कि द वायर ने फिर किस आधार पर ये निष्कर्ष नुकाल लिया.
अब द वायर के एक और फिल्मी खुलासे पर गौर करते हैं. इसमे कहा गया है:
“तमगड़े के अनुसार पालनपुर स्पेशल ऑपरेटिंग ग्रुप के सुब इनपेक्टर आशीष पांड्या ने अपने आपको इस कथित एनकाउंटर में जख्मी दिखाने के लिए अपनी बायीं बांह मे खुद ही गोली मार ली. फिर उन्होंने अपने कथन को साबित करने के लिए कुछ फोरेंसिक रिपोर्ट्स और विशेषज्ञों द्वारा निकाले गए निष्कर्षों को आधार बनाया जो ये कहता है कि ऐसे जख्म संभव हैं भले ही इन्हें खुद से किया गया हो.”
ध्यान दीजिये, “भले ही” खुद से किया गया हो. तमगड़े का कहना ये है कि आशीष पांड्या ने खुद को इस एस एनकाउंटर में जख्मी दिखाने के लिए अपनी ही बांह में गोली मार ली. हालांकि फॉरेंसिक रिपोर्ट में ये नहीं कहा गया है कि ये जख्म खुद को गोली मार कर बनाई गई थी बल्कि रिपोर्ट में ये कहा गया है कि ऐसे जख्म संभव हैं, “भले ही इन्हें” खुद से ही किया गया हो.
मूल रिपोर्ट में अंग्रेजी में यहाँ “even if” का प्रयोग किया गया है और जो अंग्रेजी अच्छे से नहीं जानते वो भी ये पढ़ कर कहेंगे कि ये फॉरेंसिक रिपोर्ट तमगड़े के कथन को साबित नहीं करता.
अब एक ऐसे पहलू कि बात करते हैं जिसका द वायर द्वारा जान-बूझ कर काफी चालाकी से जिक्र तक नहीं किया गया. अभी कुछ दिन पहले ही सोहराबुद्दीन के भाई ने खुद कहा था कि का इस केस में एक साजिश के तहत कांग्रेस के शासनकाल के दौरान 2010 में अमित शाह का नाम जोड़ा गया. सोहराबुद्दीन के छोटे भाई नयाबुद्दीन शेख ने सीबीआई की विशेष अदालत को बताया था कि सीबीआई ने उनके द्वारा 2010 में रिकॉर्ड कराए गये बयान में खुद से गुजरात पुलिस अधिकारी अभय चुडसमा और अमित शाह का नाम जोड़ दिया. उसने अदालत से कहा, ‘‘मैंने इन दोनों का कभी नाम नहीं लिया.’
थोड़ा पीछे जायें तो 2014 में अरुण जेटली ने इस बारे में बयान दिया था कि कैसे कांग्रेस सरकार और सीबीआई अमित शाह को इस केस में जबरदस्ती आरोपी बना कर नरेन्द्र मोदी पर हाँथ डालने की कोशिश में लगी हुई थी. जेटली ने अपने फेसबुक पर लिखा, “यह दुख की बात है कि सीबीआई के द्वारा अमित शाह के खिलाफ कोई सबूत न होने के इस ओपिनियन के बावजूद एक नोट लिखा गया था जिसमें शाह को गिरफ्तार करने के बाद पुलिसकर्मियों को डरा-धमकाकर केस बनाना था। मोदी को इसलिए टार्जेट किया गया क्योंकि यूपीए का असली निशाना मोदी था। यह नोट सीबीआई के डायरेक्टर अश्विनी कुमार के द्वारा अप्रूव्ड किया गया था।”
यहाँ आपको ये याद कराना जरूरी है कि सोहराबुद्दीन शेख चालीस एके-47 असाल्ट राइफल रखने का आरोपी था. ये सारे राइफल 1995 में उसके आवास से बरामद किये गये थे. उनके मारे जाने के समय तक उसके विरुद्ध कुल 60 केस लंबित थे जिनमे गुजरात और राजस्थान में मार्बल फैक्ट्रियों से रंगदारी मांगे जाने से लेकर मध्य प्रदेश में हथियारों कि तस्करी और गुजरात-राजस्थान में कई हत्याओं तक शामिल थे.
शेख एक कुख्यात अंडरवर्ल्ड अपराधी था जिनके तार शरीफखान पठान उर्फ़ छोटा दाऊद से लेकर लतीफ़ गैंग के अब्दुल लतीफ़ और दाऊद इब्राहीम के ख़ास रसूल परती और ब्रजेश सिंह तक से जुड़े हुए थे. तुलसीराम प्रजापति उसका एक काफी करीबी सहयोगी था. ये भी माना जाता है कि तुलसीराम प्रजापति सोहराबुद्दीन एनकाउंटर का एक चस्मदीद गवाह भी था.
अब द वायर इसमें इशरत जहां केस को भी लेकर आता है. उस केस की जांच भी तमगड़े ही देख रहे थे. द वायर ने उस केस के आरोपितों के भाजपाध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के करीबी सम्बन्ध बताकर इन दोनों को यहाँ भी घसीटने की कोशिश की. जैसा कि जाहिर है, यहाँ भी वायर ने यहां भी कुछ जरूरी बातों का जिक्र करना जरूरी नहीं समझा.
इशरत जहां लश्कर-ए-तैयबा की एक कार्यकारी थी जिसे कांग्रेस सही कुछ अन्य राजनितिक पार्टियां मानने से इनकार करती रही है. कुछ ने तो उसे “बिहार की बेटी” तक का तमगा देने में भी संकोच नहीं किया. पाकिस्तानी-अमेरिकी आतंकी दाऊद सैयद गिलानी उर्फ़ डेविड हेडली ने अदालत को ये बताया था कि इशरत लश्कर की सदस्य थी. हेडली ने कबूल किया था कि लश्कर प्रमुख जकि उर रहमान लखवी ने उसे भारत में मुजम्मिल के ऑपरेशन के बारे में बताया था. इसी ऑपरेशन के तहत नाकों पर पुलिसवालों को निशाना बनाया जाना था। हेडली ने एफबीआई द्वारा पूछताछ के दौरान भी ये खुलासा किया था. ये बार-बार खुलासा होता रहा है कि इशरत और कुछ अन्य आतंकियों ने तब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की हत्या कि साजिश रची थी.
कांग्रेस द्वारा इशरत जहां एनकाउंटर केस में अमित शाह का नाम घसीटने की लाख कोशिशों के बावजूद खुद कांग्रेस के शासनकाल के दौरान ही 2013 में सीबीआई ने चार्जशीट में अमित शाह का नाम न जोड़ने का निर्णय लिया था क्योंकि उनके खिलाफ कोई सबूत ही नहीं था. फिर से 2014 में भी सीबीआई ने ये बात दुहराई थी.
आरवीएस मणि के अनुसार कमल नाथ ने उनसे शहरी विकास मंत्रालय में उनसे मुलाक़ात कर इस केस में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का नाम जोड़ने और “हिन्दू आतंकवाद” कि अवधारणा को बल देने को कहा था. मणि ने दावा किया था कि उनके ऊपर इशरत जहां एनकाउंटर केस में नरेन्द्र मोदी का नाम घसीटने का काफी दबाव था. उनके अनुसार उन्होंने किसी भी प्रकार के दबाव के आगे न झुकते हुए सबूतों और तथ्यों में किसी भी प्रकार के छेड़छाड़ करने से साफ़ इनकार कर दिया था.
मणि के अनुसार कमलनाथ ने आरवीएस मणि को प्रत्युत्तर देते हुए कहा था “बाहर लोग राहुल गाँधी का पेशाब पीने को तैयार हैं, आप इतना छोटा काम नहीं कर सकते हो?”
द वायर के रिपोर्ट में एक और पहलू है. अंतिम पैराग्राफ में उसके लेख में कहा गया है कि 2015 में उनकी सरकारी सुरक्षा की सुविधा हटा दी गई थी और सीबीआई द्वारा उन्हें दो मामलों में आरोपित करने की कोशिश कि गई थी जिसे आलोचकों द्वारा झूठा बताया गया था- एक अपनी ड्यूटी के विरूद्ध जाना और दूसरा एक भ्रष्टाचार की जांच वाले मामले को उलझाना.
हद तो ये है कि अपने आरोपों को साबित करने के लिए द वायर ने अपने ही एक लेख का हवाला दिया जिसे आम आदमी पार्टी के नेता रहे आशीष खेतान द्वारा लिखा गया था. वहीं आशीष खेतान के लेख में किसी भी अन्य रिपोर्ट या सोर्स का जिक्र नहीं है. हमने भी इसे लेकर पड़ताल की लेकिन द वायर के इस आरोप का कहीं और किसी भी प्रकार का रिपोर्ट नहीं मिला.
सच्चाई से मुंह चुराते और विरोधाभासो से भरे इस लेख को और कोई नहीं बल्कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ने उठाया और इसका हवाला देकर कहा कि भाजपा को “ऐसे आदमी” को अध्यक्ष नहीं बनाना चाहिए. लेकिन ये ट्वीट करते समय वो ये भूल गए कि अमित शाह तो इन आरोपों से बरी हो चुके हैं लेकिन वो खुद भ्रष्टाचार के मामले में जमानत पर बाहर हैं.
ये तो साफ़ दिख रहा है कि कांग्रेस द्वारा निर्माण किया गया वो तंत्र अब ढह रहा है जिसमे भाजपा के नेताओं पर मनगढ़ंत आरोप लगा कर किसी मामले में घसीटने की कोशिश की जाती थी और इसके साथ ही हिन्दू आतंकवाद जैसे फर्जी शब्दों को इजाद करने की कोशिश कि गई थी वो भी नाकाम होती दिख रही है. अपनी पूरी ताकत से कांग्रेस ने अपने 10 साल के शासनकाल के दौरान सारी सरकारी एजेंसियों का इस्तेमाल कर नरेन्द्र मोदी, अमित शाह जैसे अन्य भाजपा नेताओं को को फंसाने में जो ताकत झोंक राखी थी, फिलहाल वो भी असफल होती दिख रही है.
(ये लेख मूल रूप से नूपूर शर्मा द्वारा opindia.com पर अंग्रेजी में लिखे आर्टिकल पर आधारित है)