यह शास्वत सत्य है कि भाषा, मनुष्य के भावों व विचारों के आदान-प्रदान का सशक्त साधन है। यह भी देखने में आया है कि संसार में जितने भी राष्ट्र हैं, प्राय: उनकी राजभाषा वहीं है जो वहां की संपर्क भाषा है तथा वही राष्ट्रभाषा है जो वहां की राजभाषा है। भारत विविधताओं से भरा देश है जहां अनेकता में एकता झलकती है, उदाहरण के तौर पर भारतीय उपमहाद्वीप के प्रत्येक राज्य में सुसंस्कारित एवं समृद्ध राज्य-भाषाएं एवं अनेक उपभाषाएँ बोली जाती हैं, अत: यह कहना समीचीन होगा कि भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है। इस परिदृश्य में किसी एक भाषा को महत्व देना कठिन हो जाता है, लेकिन आजादी के बाद सभी भारतीय भाषाओं मे जो भाषा मनोरंजन, साहित्यिक एवं संपर्क भाषा के रुप में ऊभरी है वह हिंदी ही है।
आज हिन्दी को जिस रूप में हम देखते हैं उसकी बाहरी आकृति भले ही कुछ शताब्दियों पुरानी हो, किन्तु उसकी जड़ें संस्कृत, पाली, प्राकृत और अपभ्रंश रूपी गहरे धरातल में फैली हैं। वैज्ञानिक आधार पर विश्व स्तर पर किए गए भाषा-परिवारों के वर्गीकरण के अनुसार हिन्दी को भारतीय आर्य भाषा परिवार से उत्पन्न माना जाता है। अत: हिन्दी आनुवंशिक रूप से आर्य भाषा-संस्कृत से संबद्ध है। भारतीय भाषाओं के इतिहास का पुनर्लेखन करते हुए भाषा वैज्ञानिक डॉ. जॉन बीस्म ने भारतीय आर्य परिवार की भाषाओं में हिंदी के अलावा पंजाबी, सिंधी, गुजराती, मराठी, उड़िया और बंगाल की भाषाओं को समाहित करते हुए लिखा है कि “हिन्दी राष्ट्र के अंतरंग की भाषा है। हिन्दी संस्कृत की वैध उत्तराधिकारी है और आधुनिक भारतीय भाषा व्यवस्था में उसका वही स्थान है जो प्राचीन काल में संस्कृत का था”।
वैदिक संस्कृत में ऋग्वेद की रचना होना माना जाता है, ऋग्वेद की रचनाओं में हमें प्राचीनतम आर्य भाषा की बानगी मिलती है। उस समय साहित्यिक संस्कृत और बोलचाल की लौकिक संस्कृति के बीच अंतर बढ़ रहा था किन्तु साहित्यिक संस्कृत के रूप में व्याकरण के नियम भी विकासित हो रहे थे। भगवान बुद्ध के उपदेशों और अशोक की धर्मलिपियों से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पाली उस समय की बोलचाल और साहित्यिक भाषा का मिश्रित रूप थी जो मूलतः मगध और कौशल की बोली का परिवर्तित रूप थी। गौतम बुद्ध के उपदेशों को अधिकतम प्रचारित करने के उद्देश्य से तत्कालीन पाली भाषा को अधिक से अधिक सरल बनाने पर जोर दिया जा रहा था, फलस्वरूप यहां आते-आते संस्कृत के अनेक जटिल स्वरूप लुप्त हो गए और उच्चारण में भी परिवर्तन आ गया।
साहित्यिक प्रयोग के कारण ये व्याकरण के कठिन और अस्वाभाविक नियमों में बांध दी गई, परिणामस्वरूप उनका साहित्यिक विकास रुक गया, किन्तु बोलचाल में इनका मनमाने ढंग से प्रयोग होता रहा। फलस्वरूप भाषाओं का जो बिगड़ाव हुआ या उनमें जो परिवर्तन आया, उसके चलते इन बोलचाल की भाषाओं को अपभ्रंश या बिगड़ी हुई भाषा कहा जाने लगा। इन अपभ्रंश भाषाओं का विकास विभिन्न प्रदेशों में बोली जाने वाली प्राकृत भाषाओं से ही हुआ। धीरे-धीरे ये अपभ्रंश भाषाएं भी साहित्यिक भाषाएं बनती चली गई। व्याकरण की अत्यधिक जटिलता और नियमबद्धता के कारण इन अपभ्रंश भाषाओं से पुनः स्थानीय बोलचाल की भाषाओं का जन्म हुआ जिन्हें हम आज की आधुनिक भारतीय भाषाओं के रूप में जानते हैं।
हिन्दी भाषा के विकास की प्रक्रिया आधुनिक भारतीय भाषाओं के विकास के साथ ही प्रारंभ होती है। खड़ी बोली या खिचड़ी भाषा के रूप में पहचानी जाने वाली हिन्दी भाषा का वास्तविक विकास इन चार चरणों में हुआ माना जा सकता है:
आदिकाल (मुगलकाल से पूर्व का हिंदू शासन काल)
मध्य काल (मुस्लिम शासन काल)
आधुनिक काल (ब्रिटिश शासन काल) और
वर्तमान काल (आजादी के बाद का काल)
1947 से लेकर अब तक का समय हिन्दी का वर्तमान काल कहलाता है। देश की आजादी के साथ ही हमें भौगोलिक स्वतंत्रता के साथ ही साथ भाषागत स्वतंत्रता भी प्राप्त हुई। इस काल में हिन्दी का आधुनिकीकरण और मानकीकरण हुआ। किन्तु इन सबसे पहले देश की वैधानिक व्यवस्था में हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्वीकारने का सर्वोच्च कर्तव्य पूरा हुआ। संविधान की धारा 343 के अंतर्गत हिन्दी भारतीय की राजभाषा घोषित हुई और धारा 353 में हिन्दी विकास की दिशा ही तय की गई जिसमें शासन की ओर से हिन्दी के विकास के लिए किए जाने वाले प्रयासों को भी तय किया गया।
आजादी से पूर्व खड़ी बोली हिन्दी या हिन्दुस्तानी ही सामान्य बोलचाल की एकमात्र ऐसी भाषा थी जो किसी न किसी रूप में देश के ज्यादातर भागों में समझी और बोली जाती थी। अत: एक राष्ट्र और एक राष्ट्रभाषा की भावना यहां जागृत हो उठी और हिन्दी सबसे आगे निकलकर राष्ट्र भाषा, संपर्क भाषा और मानक भाषा बनती चली गई। इस अभियान में गांधी जी की भूमिका अहम रही जिन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में राजनीतिक और सामाजिक मान्यता और संरक्षण प्रदान किया तथा इसका परिणाम यह रहा कि उत्तरी भारत में हिंदी साहित्य सम्मेलन और दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार सभा जैसी हिन्दी सेवा संस्थाओं का जन्म हुआ, जिसके माध्यम से हजारों अहिंदी भाषी भारतीयों ने स्वैछिक तौर पर हिन्दी को सीखना और अपनाना शुरू किया।
राजनीतिशास्त्र के कई विद्वानों ने इस बात को दोहराया है कि जब कोई देश किसी दूसरे देश को पराजित कर अपना गुलाम बना लेता है, तो वह पराजित देश की सभ्यता, संस्कृति, भाषा आदि को नष्ट करने का भरसक प्रयास करता है, पराधीन देश पर आक्रांताओं द्वारा अपनी भाषा को राजकाज की भाषा के रुप में जबरदस्ती थोपा जाता है ताकि पराधीन देश की आने वाली पीढ़ी यह भूल जाए कि वे कौन थे, उनकी संस्कृति एवं राजभाषा क्या थी। हिन्दी को राजभाषा का स्थान केवल इसलिए नहीं दिया गया कि वह देश की एक मात्र संपर्क भाषा है, बल्कि अंग्रेजी शासन को जड़ों से उखाड़ने के लिए यह आवश्यक हो गया था कि क्रांतिकारियों के बीच में कोई एक भाषा हो जिसमें वह अपनी बात एक दूसरे को समझा सके। यह वह दौर था जब देश अंग्रेजो के शासन से त्रस्त था, लोग आज़ादी के लिए तरस रहे थे।अंग्रेजी विदेशी भाषा थी, जो विदेशी शासन का अनिवार्य अंग थी, अंग्रेजी शासन का विरोध करने के साथ-साथ अंग्रेजी का विरोध करना या उससे संबंधित वस्तुओं का विरोध भी आवश्यक हो गया था।
अतः स्वाधीनता संग्राम के वक्त राष्ट्रीय नेताओं ने स्वदेशीपन या राष्ट्रीय भावना को जागृत करने का प्रयत्न किया। देशवासियों के बीच एकता का संचार करने वाली भाषा के रुप में हिन्दी ऊभर कर सामने आई। देश को आजादी मिलने के बाद यह सामने आया कि देश में संचार की भाषा कोई हो सकती है तो वह हिन्दी ही है। संपर्क या व्यवहार की भाषा के रूप में हिन्दी की अनिवार्यता पर ज़ोर दिया जाने लगा। हिन्दी की इसी विशेषता को ध्यान में रखकर भारत की संविधान सभा ने 14 सितंबर, 1949 को मुंशी अय्यंगर फार्मूले के आधार पर हिन्दी को भारत-संघ की राजभाषा के रूप में स्वीकार किया, तब से प्रत्येक वर्ष 14 सिंतबर को केंद्रीय सरकारी कार्यालयों में इसे राजभाषा दिवस के रुप में मनाया जाता है।
संविधान के अनुच्छेद 343 में यह विशेष रुप से उल्लेख किया गया कि भारत संघ की राजभाषा हिन्दी है और जिसकी लिपि देवनागरी होगी। आखिर वह दिन भी आया जब 26 जनवरी, 1950 को गणतांत्रिक भारत का संविधान लागू हो गया, संविधान के लागू होने के साथ ही विधानपालिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका से जुड़ें कामकाज को हिन्दी में पूरा करना अपेक्षित हो गया।
लेकिन आज 63 वर्ष बीत जाने के बाद भी राजभाषा हिन्दी का प्रयोग केवल अंग्रेजी के अनुवाद के लिए किया जाता है, सच्चाई यह है कि आज भी विधानपालिका, कार्यपापलिका और न्यायपालिका का अधिकांश कामकाज अंग्रेजी में होता है और संविधान के अनुपालन का हवाला देते हुए अंग्रेजी का हिन्दी अनुवाद कर आंकड़ों को पूरा करने की कार्रवाई कर ली जाती है। अत: यह कहने में कोई संकोच नहीं होगा कि “सैद्धांतिक रूप में हिन्दी भले ही राजभाषा स्वीकृत हो गई, किन्तु व्यावहारिक रूप में वह कार्यान्वित न हो सके इसके लिए प्रयत्न आज भी जारी है।” भाविष्य में निर्विविद रूप से कहा जा सकता है कि बहुभाषी समाज में अपने विचारों के आदान-प्रदान के लिए संपर्क भाषा हिन्दी ही हो सकती है । यह स्पष्ट है कि हिन्दी भाषा समस्त देश-विदेशवासियों को एक सूत्र में बांधने वाली भाषा है।