इसे इंदु सरकार का रिव्यु ही मानें। आपातकाल को लेकर मधुर की रिसर्च के लिए मधुर को 8/10। उसे परदे पर जीवित करने के लिए 5/10। विषय ये नहीं है कि आपने क्या दिखाया और क्या नहीं दिखा पाए, विषय ये है की आपने जो भी दिखाया उसे थोड़ा मन से दिखा देते। विवेक अग्निहोत्री के पास आप के जैसा नेशनल अवार्ड्स वाला गौरवशाली पास्ट नहीं है फिर भी उन्हें बुद्धा इन अ ट्रैफिक जैम में जो दिखाना था उन्होंने भरपूर दिखाया और एक फ्लो में दिखाया।
मैं तो यही कहूंगा कि मधुर जी आपने इंदु सरकार को बनाने में कंजूसी की है और पूरे दिल से नहीं बनाया। कंजूसी पैसे की भी और एडिटिंग की भी। एक नेशनल अवार्ड विनर डायरेक्टर से इससे बेहतर की उम्मीद करते हैं सर। बैकग्राउंड स्कोर बेहद औसत। ये आवाज़ है और चढ़ता सूरज अच्छे। जैसा कि बाकी रिव्यूज़ से आप सब समझ गए हैं कि इंदु सरकार एक स्त्री (कीर्ति कुल्हारी) की कहानी है जो नवीन सरकार (तोता रॉय चौधरी) की पत्नी हैं और नवीन एक आला सरकारी अधिकारी हैं जो संजय के एक ख़ास मंत्री के ख़ास हैं। देश में आपातकाल की घोषणा होती है और फिर कैसे नसबंदी, सुंदरीकरण आदि के नाम पर आम जनता पर अत्याचार प्रारम्भ होते हैं। कहानी में ज़्यादा न आते हुए ऊपर ऊपर बस इतना बता देता हूँ की फिल्म आपातकाल की आप बीती को अपने हृदय में समेटे है लेकिन एक आलोचक के नाते मैं कुछ बिंदु रेखांकित करना चाहूँगा जिन वजहों से फिल्म मुझे हल्की लगी।
सर्वप्रथम आपने फर्स्ट हाफ में जो प्लॉट बिल्ड करने का प्रयास किया है उसमें एडिटिंग की काफी संभावना है। कायदे से फिल्म २ घण्टे की बन सकती थी। सेकंड हाफ मजबूत है और श्रेय कीर्ति को जाता है। संजय के रोल में नील को सिर्फ वन लाइनर्स मिले हैं और कुछ पोस्चर गेस्चर लेकिन नील ने निभा लिया उसे। जगदीश टाइटलर वाली दाढ़ी वाले इंसान ने अपने किरदार को जीवंत किया है ये आप देख कर समझ जाएंगे। नवीन (तोता रॉय चौधरी) एक अच्छे अभिनेता हैं लेकिन कहीं कहीं ओवर एक्टिंग कर देते हैं। अनुपम सहज अभिनेता हैं उन्हें रेट करने की आवश्यकता नहीं। अब सवाल फिल्म मेकिंग को लेकर। आपातकाल के ही पृष्ठभूमि पर एक फिल्म बनी थी किस्सा कुर्सी का। उससे बेहतर पोलिटिकल सटायर मैंने हिंदी सिनेमा में तो नहीं देखा फिलहाल। कहीं पढ़ने को मिलता है कि इस फिल्म को बैन तो किया ही गया था साथ ही इसके प्रिंट्स गुड़गांव मारुती फैक्टरी में संजय ने स्वयं जलाये थे। आप अगर वो किस्सा नहीं जोड़ सकते थे तो भी उस फिल्म से कुछ अपने मतलब की चीज़ें तो ले ही सकते थे। खैर मैं फिल्ममेकिंग की बात कर रहा था। रह रह कर मुझे हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी और ब्लैक फ्राइडे याद आती हैं। ब्लैक फ्राइडे इसलिए क्योंकि वो बोल्ड फिल्म मेकिंग का एक अद्वितीय उदाहरण है। और हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी इसलिये क्योंकि वो मजबूत निर्देशन का एक बेहतरीन नमूना है।
इंदु सरकार के प्लस पॉइंट्स में एक कीर्ति का अभिनय दूसरा जगह जगह रेफ़्रेन्सेस और हिंट्स देना। लेकिन काश मधुर इसमें थोड़ा पैसा और मन और लगाते तो फिल्म को बहुत दिनों तक याद किया जाता। मधुर से शिकायत बस है कि जब वे एक संवेदनशील विषय पर फिल्म बना रहे हैं जिस पर पहले किसी ने ज़्यादा हिम्मत नहीं की है ज़्यादा तो सर ऐसे में आप या तो पूरी आर्टिस्टिक लिबर्टी लीजिए और सब कुछ साफ़ साफ़ दिखाइये नहीं तो अगर फिक्शन के ही इर्द गिर्द घूम के अपनी बात बतानी है तो फिर थोड़ा पैसा, मन, एनर्जी, इफेक्ट्स, शिद्दत, ताक़त, क्राफ्ट ज़्यादा झोंकिये न। मैं फिर एक बार ये कह दूं कि आपने कवर काफी कुछ कर लिया है फिर भी एक चीज़ जो मुझे खटकी वो थी क्वालिटी।
मिसाल के तौर पर आंधी भी कम बेसी इंदिरा की लाइफ पे आधारित थी लेकिन उस फिल्म को कल्ट बनाते हैं उसके गीत, बढ़िया निर्देशन, दमदार अभिनय। लेकिन मैं समझ सकता हूँ वो शायद आपके फिल्म बनाने का तरीका न हो लेकिन क्राफ्ट इम्प्रूव हो सकता है। मैं इंदु को कीर्ति के बेहतरीन अभिनय के लिए और मधुर के थोड़ी हिम्मत दिखाने के लिए 2.5 स्टार देता हूँ। कुछ संवाद इंडिरेक्टली प्रेजेंट गवर्नमेंट की तरफ भी इशारा करती हैं लेकिन फर्स्ट हाफ यदि थोड़ा बंधा हुआ होता तो फिल्म में थोड़ा मज़ा और आता। ओवरऑल आप लोग ये फिल्म देखें और थोड़ा सा आपातकाल को समझें।