(This is a Hindi translation of our post: Why Indian media is against Arnab but India isn’t by @theFirstHandle)
टाइम्स नाउ के संपादक अर्नब गोस्वामी के प्रति भारतीय मीडिया की घृणा जगजाहिर है. अर्नब की मुखर और अतिरंजित शैली के प्रत्युत्तर में CNN-IBN और NDTV जैसे चैनल्स ने कई सारे सूक्ष्म मीडिया अभियान भी चलाये हैं. इसका कारण अभी तक बहुत साधारण था: अर्नब को मिलाने वाली TRP, बहुत ज्यादा ऊंची TRP.
अब, इन लोगों को अर्नब से नफ़रत, बहुत शातिर नफ़रत, की एक नयी वजह मिल गयी है. अर्नब की वजह से ही टाइम्स नाउ उन चुनिन्दा समाचार चैनल्स में से है जिन्होंने JNU के देशद्रोहियों के खिलाफ सख्त रूख अपनाया. जबकि JNU के देश-विरोधी नारेबाजी के खिलाफ बाकी सारे चैनल्स का रूख बहुत नर्म रहा. उनके संपादकों के ट्वीट से उनके रूख की साफ़ झलक मिलती है:
Surely the Indian State is more secure than to arrest a student for inflammatory slogans & send police to JNU campus. Insane overreaction
— barkha dutt (@BDUTT) February 12, 2016
A colonial law like sedition needs to be struck off statute books. Prosecute for violence, not for sloganeering IMHO.
— Rajdeep Sardesai (@sardesairajdeep) February 14, 2016
यहाँ अर्नब ने दूसरा रास्ता चुना. हर रोज उसके पैनल डिस्कशन “भारत की बर्बादी” और “भारत तेरे टुकडे होंगे” जैसे नारों के समर्थन में दिए जाने वालों तर्कों को धराशायी करने के लिए ही होते थे. उमर खालिद और उसकी गैंग को पटखनी देने वाला उसका विडियो कई दिनों तक सोशल मीडिया पर छाया रहा.
अर्नब ने ऐसा क्यों किया? अर्नब बहुत घाघ व्यक्ति है. समझना थोड़ा मुश्किल है.
क्या वो भाजपा समर्थक हैं? अगर ललित मोदी मुद्दे पर सुषमा स्वराज के खिलाफ उनके सतत (संभवतया सबसे मजबूत भी) अभियान को देखें तो उत्तर होगा बिलकुल नहीं.
क्या वो ऐसे दक्षिण पंथी हैं जो अनिवार्य रूप से भाजपा से साथ तो नहीं हैं लेकिन विचारधारा से सहमत हैं? हिन्दू मंदिरों में महिलाओं के प्रतिबंधित प्रवेश पर उठाये हुए उनके सवाल देखकर ऐसा तो नहीं लगता.
जब भी अवसर आया (जैसे पाकिस्तान के साथ हुई कोई भी बहस), अर्नब ने हमेशा भारत का पक्ष लिया. तो क्या वो राष्ट्रवादी हैं? शायद.
ये दलील भी दी जा सकती है कि वो सिर्फ TRP का भूखा है और इसीलिए राष्ट्रवादी बन जाता है, और कुछ हद तक ये सही भी हो सकती है. लेकिन उनकी डिबेट्स में उनके रूख का बारीकी से अध्ययन किया जाए तो कोई भी ये नहीं कह सकता कि वो राष्ट्रवादी नहीं है.
और यही वो वजह है जिससे उसकी बिरादरी के बहुत सारे लोग खीझे हुए हैं. ये पता चलने पर कि अर्नब एंटी-एंटी-नेशनल है, एक सहकर्मी बरखा दत्त का ये कटाक्ष भरा ट्वीट देखिये:
My nationalism is made of stronger stuff than the bile of 8 talking heads & one screaming anchor.Sick of dogmas, binaries & banalities.
— barkha dutt (@BDUTT) February 15, 2016
बरखा जैसे लोग स्तंभित थे. अचानक उनको अहसास हुआ कि कैसे अर्नब ने इन सबको पूरी तरह पछाड़ दिया है. TRP रेटिंग जो कहानी बहुत पहले से बयां कर रही थी वो अब और ज्यादा मुखर हो गयी थी. और इसी वजह से अर्नब के खिलाफ इनको अपनी तीव्रता बढ़नी पड़ी.
जल्दी पटियाला हाउस कोर्ट के वकील और भाजपा विधायक ओ पी शर्मा द्वारा पत्रकारों पर हमले की शर्मनाक घटना हुई. किसी भी प्रकार की हिंसा को माफ़ नहीं किया जा सकता और कानून बनाने और कानूनी पेशे से जुड़े लोगों द्वारा हिंसा तो बिलकुल भी नहीं. JNU मामले का न तो विरोध कर पाने और न ही खुल कर इसका समर्थन कर पाने से वामपंथी लिबरल मीडिया इस तरह की परिचर्चाओं से बहुत असहज हो चला था. मीडिया के इस वर्ग को उन हिंसा करने वाले वकीलों ने इस असहजता से निकलने का आदर्श मार्ग खोल दिया. इस घटना के तुरंत बाद पूरा कथानक JNU के नारों से बदल कर मीडिया वर वकीलों का हमला बन गया.
बरखा दत्त, निधि राजदान और राजदीप सरदेसाई जैसों ने अपनी दिशा ही बदल ली जबकि अर्नब ने अपना एंटी-एंटी-नेशनल रुख कायम रखा. इससे वामपंथी लिबरल समूह की नाराज़गी और बढ़ गयी. अंततः वकीलों के खिलाफ मीडिया वालों द्वारा प्रायोजित एकजुटता रैली में भी भाग नहीं लिया. जाहिर तौर पर अर्नब अपने बीमार पिता की देखभाल में लगे थे लेकिन “मोरल कम्पास” की चाल में में ये छोटी-छोटी बारीक बातें खो जाती हैं.
So 2 news channels boycott protests by journalists against attacks on fellow journalists. Time to name/shame them?
— Rajdeep Sardesai (@sardesairajdeep) February 16, 2016
और अब धन्यवाद इन सब का, चीजें अब इस हास्यास्पद स्तर पर आ गयी हैं कि वामपंथी अब लोगों को सलाह दे रहे हैं कि अर्नब का बायकाट करो. याद रहे, कुछ ही महीने पहले तक (दिलवाले फिल्म) बायकाट करना साम्प्रदायिक था.
इन सबका परिणाम क्या हुआ? #IndiaWithArnab (भारत अर्नब के साथ है). हैश-टैग ट्विटर पर सबसे ऊपर ट्रेंड होने लगा, अर्थात ये सबसे ज्यादा चर्चित विषय था.
सोचिये, कौन चर्चा कर रहा था इसपर? वो दक्षिणपंथी या “भक्त” जो कई बार अर्नब को गरियाते रहे हैं (और गरियाते रहेंगे). जब ये लोग इस हैश-टैग को ट्रेंड कर रहे थे, हकीकत ये है कि अर्नब उस वक़्त भी भाजपा की धुलाई कर रहे थे. तो क्या नतीजे निकाले जायें?
अर्नब भारत के साथ है, इसलिए “भारत अर्नब के साथ है” कहना मूर्खता है. जैसा की मैंने अपने ट्वीट में पहले भी कहा है कि “भक्तों” की “भक्ति” किसी व्यक्ति में नहीं, भारत में है, और उस व्यक्ति में है जो उनको उस क्षण भारत का हितैषी लगता है. अर्नब इसपर खरे उतरे. वो एंटी-भाजपा, एंटी-हिन्दू या जल्दी ही एंटी-दक्षिण पंथ भी हो सकते हैं लेकिन जब भी वो देश के साथ हैं, भक्त उनको समर्थन करेंगे.
वामपंथी लिबरल मीडिया को इससे क्या निष्कर्ष निकालना चाहिए? वो देश की नब्ज़ पर से अपनी पकड़ पूरी तरह खो चुके हैं. कई बार बात उनके सामने जाहिर तो होती है लेकिन वो मानने को तैयार नहीं होते. उनकी TRP गिर रही है, ट्विटर के मेंशन हमेशा गालियों से भरे होते हैं. और अब तो वकील उनको व्यक्तिगत रूप से भी गलिया रहे हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिस्सा होते हुए भी गालियाँ निंदनीय हैं, लेकिन वामपंथी मीडिया के लोगों को आत्म निरीक्षण को जरूरत है, आखिर उनको गालियाँ क्यों मिल रही हैं.
किसी भी आम भारतीय से बात कीजिये, Whatsapp देखिये, ज्यादातर लोग JNU में लगाये गए देश विरोधी नारों से आहत हैं. वहीँ दूसरी तरफ राजदीप और बरखा ने दोषियों को बचाने में अपनी सारी ऊर्जा लगा दी. और जनता भी ये जानती है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए उनका प्यार तो इस बचाव की वजह नहीं है. पहले सागरिका कई बार खुलेआम अभिव्यक्ति पर पाबंदियों की वकालत करती रही हैं, बरखा ने ब्लॉग लिखने वालों पर केस किये हुए हैं. सबसे ज्यादा विचलित करने वाली बात; अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के ये तथाकथित पुरोधा कमलेश तिवारी की गिरफ्तारी और उसपर रासुका लगाये जाने के समय चुप थे. अब आम भारतीय जनमानस धीरे-धीरे ये बात समझ रहा है कि स्टार एंकर लोगों द्वारा ये अपनी विचारधारा को पोषित करने के लिए, अपनी सहूलियत से लिए जाने वाले पक्ष भर हैं.
हो सकता है अर्नब ने अपनी ऊंची TRP की सहूलियत के लिए ये “राष्ट्रवादी” मुखौटा लगाया हो, वो मुखौटा जो कभी उतर सकता है, लेकिन राजदीप और बरखा जैसों का मुखौटा तो उतर ही गया है.