साहित्य समाज का दर्पण होता है। जैसा समाज होता है, वैसा ही साहित्य दिखाई देता है।
यह बात पूरी तरह सही है। जब हमारा देश पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था और उनसे मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहा था, तब हमारे देश का साहित्य और साहित्यकार भी देश के लिए संघर्ष की उस भावना को और भी अधिक तीव्र करने का सराहनीय कार्य कर रहे थे।
इस पृथ्वी पर शायद ही कोई मनुष्य होगा जिसे अपने राष्ट्र, अपनी जन्मभूमि से प्रेम न हो।
रामायण में भी श्रीराम ने कहा है-
अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।
मैं उन सभी देशभक्तों को नमन करता हूँ। इन पंक्ति से-
जो उतरे थे मुर्दा लाशों को लडऩे का पाठ पढ़ाने, जो आये थे आजादी के मतवालों का जोश बढ़ाने, मैं आया हूं उन राजद्रोही चरणों पर फूल चढ़ाने।
स्वतंत्रता के इस महायज्ञ में समाज के प्रत्येक वर्ग ने अपने-अपने तरीके से बलिदान दिए। इस स्वतंत्रता के युग में साहित्यकार और लेखकों ने भी अपना भरपूर योगदान दिया। जब हमारे देश में स्वतंत्रता आंदोलन का यज्ञ आरंभ हुआ तो लगभग हर प्रांत के, हर भाषा के साहित्यकारों कवियों और लेखकों ने अपनी मूर्धन्य लेखनी द्वारा देश के व अपने क्षेत्र के लोगों से अपनी-अपनी आहुतियां डालने का आवाहन किया।
अन्य भाषा के रचनाकारों की तरह संस्कृत के कवियों की लेखनी ने भी अपने राष्ट्र के नवजवानों को जागरुक करने का कार्य किया। इन्होंने अपने दृश्य-श्रव्य काव्य के माध्यम से जनमानस के हृदय में राष्ट्रीय भावनाएँ उत्पन्न की। परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़ी भारतमाता को स्वतन्त्र कराने के लिए इन कवियों ने अपनी रचनाओं द्वारा लोगों के मस्तिष्क को झकझोर दिया। इस राष्ट्र को स्वतन्त्र कराने में इन सभी भाषा भाषी लेखकों का महनीय योगदान रहा है।
रामनाथ तर्करत्न – आपका जन्म 1840 ई. के लगभग बंगाल के शान्तिपुर नामक स्थान पर हुआ था।
इन्होंने अपने काव्य में लिखा है कि- पराधीनता व्यक्ति की वीरता को नष्ट कर देती है। दासता व्यक्ति के लिए एक अभिशाप है।
हिनस्ति शौर्यं सुरुचिं रुणद्धि भिनत्ति चित्तं विवृणोति वित्तम्। पिनष्टिं नीतिञ्च युनक्ति दास्यं हा पारतन्त्र्यं निरयं व्यनक्ति।।
कवि पुन: लिखता है कि-
पराधीनता से अच्छा है, मृत्यु हो जाए।
असुव्यपायेष्व पि नो जहीम: स्वतन्त्रतामन्त्रमतन्द्रिणोऽद्य। उपागतायां परतन्त्रतायां यशोधनानां शरणं हि मृत्यु;।।
पण्डिता क्षमाराव यह संस्कृत के अतिरिक्त मराठी और अंग्रेजी में भी रचनाएँ करती थीं। इनकी की राष्ट्रभक्तिपरक 3 रचनाएँ हैं-सत्याग्रहगीता, उत्तरसत्याग्रहगीता और स्वराज्यविजय:।
सत्याग्रह गीता (महाकाव्य) में उन्होंने 1931-1944 ई.तक की घटनाओं का वर्णन किया है। यह तीन भागों में विभक्त है। इसमें अनुष्टुप छन्द का प्रयोग हुआ है।
कवयित्री लिखती हैं कि-मैं भले ही मन्दबुद्धि की हूँ, लेकिन मैं अपने राष्ट्र से प्रेम करती हूँ और इसका यशोगान करती हूँ। तथापि देशभक्त्याऽहं जाताऽस्मि विवशीकृता। अत एवास्मि तद्गातुमुद्यता मन्दधीरपि।।
स्वतंत्रता आंदोलन भारतीय इतिहास का वह युग है, जो पीड़ा, कड़वाहट, दंभ, आत्म सम्मान, गर्व, गौरव तथा सबसे अधिक शहीदों के लहू को समेटे है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस जी के विषय में कवि लिखता है- संसार नमन करता जिसको ऐसा कर्मठ युग नेता था, अपना सुभाष जग का सुभाष भारत का सच्चा नेता था सीमा प्रांत की धरती का रत्न शहीद हरकिशन 9 जून 1931 को मियां वाली जेल में (पाकिस्तान) फांसी पर लटकाया गया। उनके विषय में कवि ने क्या सुंदर लिखा है-
हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रहकर हमको भी मां-बाप ने पाला था दु:ख सहकर। प्रेमचंद की ‘रंगभूमि’, ‘कर्मभूमि’ उपन्यास हो या भारतेंदु हरिश्चंद्र का ‘भारत-दर्शन’ नाटक या जयशंकर प्रसाद का ‘चंद्रगुप्त’- सभी देशप्रेम की भावना से भरी पड़ी है।इसके अलावा वीर सावरकर की ‘1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम’ हो ,लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की ‘गीता रहस्य’ या शरद बाबू का उपन्यास ‘पथ के दावेदार’ये सभी किताबें ऐसी हैं, जो लोगों में राष्ट्रप्रेम की भावना जगाने में कारगर साबित।
भारत की राष्ट्रीयता का आधार राजनीतिक एकता न होकर सांस्कृतिक एकता रही है।भारतेंदु हरिश्चंद्र ने जिस आधुनिक युग का प्रारंभ किया, उसकी जड़ें स्वाधीनता आंदोलन में ही थीं। भारतेंदु और भारतेंदु मंडल के साहित्यकारों ने युग चेतना को पद्य और गद्य दोनों में अभिव्यक्ति दी। इसके साथ ही इन साहित्यकारों ने स्वाधीनता संग्राम और सेनानियों की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए भारत के स्वर्णिम अतीत में लोगों की आस्था जगाने का प्रयास किया। भारतेंदु हरिश्चंद्र हिंदी के पक्ष में अलख जगा रहे थे: निज भाषा उन्नति अहै सब भाषा को मूल। वहीं दूसरी ओर उन्होंने अंग्रेजों की शोषणकारी नीतियों का खुलकर विरोध किया। उन्हें इस बात का क्षोभ था कि अंग्रेज यहां से सारी संपत्ति लूटकर विदेश ले जा रहे थे।
इस लूटपाट और भारत की बदहाली पर उन्होंने काफी कुछ लिखा। ‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ नामक व्यंग्य के माध्यम से भारतेंदु ने तत्कालीन राजाओं की निरंकुशता और उनकी मूढ़ता का सटीक वर्णन किया है। अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा है:- ‘भीतर भीतर सब रस चुसै, हंसी हंसी के तन मन धन मुसै। जाहिर बातिन में अति तेज, क्यों सखि साजन, न सखि अंगरेज।’ द्विवेदी युग के साहित्यकारों ने भी स्वाधीनता संग्राम में अपनी लेखनी द्वारा महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
महावीर प्रसाद द्विवेदी, मैथिलीशरण गुप्त, श्रीधर पाठक, माखनलाल चतुर्वेदी आदि इन कवियों ने आम जनता में राष्ट्रप्रेम की भावना जगाने तथा उन्हें स्वाधीनता आंदोलन का हिस्सा बनने हेतु प्रेरित किया। मैथिलीशरण गुप्त ने भारतवासियों को स्वर्णिम अतीत की याद दिलाते हुए वर्तमान और भविष्य को सुधारने की बात की:-राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत-भारती’ में उन्होंने लिखा- ‘हम क्या थे, क्या हैं, और क्या होंगे अभी आओ विचारे मिलकर ये समस्याएं सभी।’ ‘जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है। वह नर नहीं, नर-पशु निरा है और मृतक समान है।।’
तो वहीं माखनलाल चतुर्वेदी ने ‘पुष्प की अभिलाषा’ लिखकर जनमानस में सेनानियों के प्रति सम्मान के भाव जागृत किए। सुभद्रा कुमारी चौहान की ‘झांसी की रानी’ कविता ने अंग्रेजों को ललकारने का काम किया:- चमक उठी सन् सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी की रानी थी।’ पं. श्याम नारायण पांडेय ने महाराणा प्रताप के घोड़े ‘चेतक’ के लिए ‘हल्दी घाटी’ में लिखा:- ‘रणबीच चौकड़ी भर-भरकर, चेतक बन गया निराला था राणा प्रताप के घोड़े से, पड़ गया हवा का पाला था गिरता न कभी चेतक तन पर, राणा प्रताप का कोड़ा था वह दौड़ रहा अरि मस्तक पर, या आसमान पर घोड़ा था।’
जयशंकर प्रसाद ने ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा’ सुमित्रानंदन पंत ने ‘ज्योति भूमि, जय भारत देश।’ इकबाल ने ‘सारे जहां से अच्छा हिदुस्तां हमारा’ मुंशी प्रेमचंद भी स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी भागीदारी निभाने में पीछे नहीं रहे और मृतप्राय: भारतीय जनमानस में भी उन्होंने अपनी रचनाओं के जरिए एक नई ताकत व एक नई ऊर्जा का संचार किया। आंदोलन में विस्फोटक का काम करती रही। उन्होंने लिखा:- ‘मैं विद्रोही हूं जग में विद्रोह कराने आया हूं, क्रांति-क्रांति का सरल सुनहरा राग सुनाने आया हूं।
प्रेमचंद की कहानियों में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ एक तीव्र विरोध तो दिखा ही, इसके अलावा दबी-कुचली शोषित व अफसरशाही के बोझ से दबी जनता के मन में कर्तव्य-बोध का एक ऐसा बीज अंकुरित हुआ जिसने सबको आंदोलित कर दिया।न जाने कितनी रचनाओं पर रोक लगा दी गई और उन्हें जब्त कर लिया गया। कई रचनाओं को जला दिया गया, परंतु इन सब बातों की परवाह न करते हुए वे अनवरत लिखते रहे। उन पर कई तरह के दबाव भी डाले गए और नवाब राय की स्वीकृति पर उन्हें डराया-धमकाया भी गया। लेकिन इन कोशिशों व दमनकारी नीतियों के आगे प्रेमचंद ने कभी हथियार नहीं डालेउनकी रचना ‘सोजे वतन’ पर अंग्रेज अफसरों ने कड़ी आपत्ति जताई और उन्हें अंग्रेजी खुफिया विभाग ने पूछताछ के लिए तलब किया। अंग्रेजी शासन का खुफिया विभाग अंत तक उनके पीछे लगा रहा। परंतु प्रेमचंद की लेखनी रुकी नहीं, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ ने ‘विप्लव गान’ में लिखा:- ‘कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जाए एक हिलोर इधर से आए, एक हिलोर उधर को जाए नाश! नाश! हां महानाश!!! की प्रलयंकारी आंख खुल जाए।’
बंकिमचंद्र चटर्जी का देशप्रेम से ओत-प्रोत ‘वंदे मातरम्’ गीत:-‘वंदे मातरम्! सुजलां सुफलां मलयज शीतलां शस्यश्यामलां मातरम्! वंदे मातरम्! शुभ्र ज्योत्सना-पुलकित-यामिनीम् फुल्ल-कुसुमित-द्रुमदल शोभिनीम् सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम् सुखदां वरदां मातरत्। वंदे मातरम्!’
निराला ने ‘भारती! जय विजय करे। स्वर्ग सस्य कमल धरे।।’ कामता प्रसाद गुप्त ने ‘प्राण क्या हैं देश के लिए। देश खोकर जो जिए तो क्या जिए।।’ कविवर जयशंकर प्रसाद की कलम भी बोल उठी- ‘हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती, स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती।’ कविवर रामधारी सिंह दिनकर भी कहां खामोश रहने वाले थे। मातृभूमि के लिए हंसते-हंसते प्राणोत्सर्ग करने वाले बहादुर वीरों व रणबांकुरों की शान में उन्होंने कहा:- ‘कमल आज उनकी जय बोल जला अस्थियां बारी-बारी छिटकाई जिसने चिंगारी जो चढ़ गए पुण्य-वेदी पर लिए बिना गर्दन का मोल कलम आज उनकी जय बोल।’
हिन्दी के अलावा बंगाली, मराठी, गुजराती, पंजाबी, तमिल व अन्य भाषाओं में भी माइकेल मधुसूदन, नर्मद, चिपलुन ठाकर, भारती आदि कवियों व साहित्यकारों ने राष्ट्रप्रेम की भावनाएं जागृत कीं और जनमानस को आंदोलित किया। कवि गोपालदास नीरज का राष्ट्रप्रेम भी उनकी रचनाओं में साफ परिलक्षित होता है। जुल्मो-सितम के आगे घुटने न टेकने की प्रेरणा उनकी रचनाओं से प्राप्त होती रही। उन्होंने लोगों को उत्साहित करते हुए लिखा है- ‘देखना है जुल्म की रफ्तार बढ़ती है कहां तक देखना है बम की बौछार है कहां तक।’
आजादी के बाद के हालातों को स्पष्ट करते हुए नीरज ने कई रचनाएं लिखी हैं। ‘चंद मछेरों ने मिलकर, सागर की संपदा चुरा ली कांटों ने माली से मिलकर, फूलों की कुर्की करवा ली खुशियों की हड़ताल हुई है, सुख की तालाबंदी हुई आने को आई आजादी, मगर उजाला बंदी है।’
इसी श्रृंखला में शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, रामनरेश त्रिपाठी, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, राधाचरण गोस्वामी, बद्रीनारायण चौधरी प्रेमघन, राधाकृष्ण दास, श्रीधर पाठक, माधव प्रसाद शुक्ल, नाथूराम शर्मा शंकर, गयाप्रसाद शुक्ल स्नेही (त्रिशूल), सियाराम शरण गुप्त, अज्ञेय जैसे अगणित कवि थे। इसी प्रकार राधाकृष्ण दास, बद्रीनारायण चौधरी, प्रताप नारायण मिश्रा, पंडित अंबिका दत्त व्यास, बाबू रामकिशन वर्मा, ठाकुर जगमोहन सिंह, रामनरेश त्रिपाठी, सुभद्रा कुमारी चौहान एवं बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ जैसे प्रबुद्ध रचनाकारों ने राष्ट्रीयता एवं देशप्रेम की ऐसी गंगा बहाई जिसके तीव्र वेग से जहां विदेशी हुक्मरानों की नींव हिलने लगी, वहीं नौजवानों के अंतस में अपनी पवित्र मातृभूमि के प्यार का जज्बा गहराता चला गया।हिंदी अखबार का प्रकाशन पं. युगलकिशोर शुक्ल के संपादन में कलकत्ता से हुआ।
कानपुर से गणेश शंकर विद्यार्थी के संपादन में निकले प्रताप, राष्ट्रीय कवि माखनलाल चतुर्वेदी के संपादन में निकले कर्मवीर, कालांकांकर से राजा रामपाल सिंह के द्वारा निकाले गए हिंदोस्थान ने राष्ट्रवादियों का मिल कर आहवान किया. बंगदूत, अमृत बाजार पत्रिका, केसरी, हिेंदू, पायनियर, मराठा, इंडियन मिरर, हरिजन आदि ब्रिटिश हुकूमत की गलत नीतियों की खुल कर आलोचना करते थे।
आज के समय में भीवैसी ही धारदार रचनाओं की जरूरत है,
जो जन-जन को आंदोलित कर सके, उनमें जागृति ला सके। भ्रष्टाचार व अराजकता को दूर कर हर हृदय में भारतीय गौरव-बोध एवं मानवीय-मूल्यों का संचार कर सके।आज के हमारे कवियों और साहित्यकारों का यह महती दायित्व बनता है ।यहां दरबार कवि ढूंढता है, कवि दरबारों को नहीं ढूंढते। यहां पर कवि किसी मोह के वशीभूत होकर नहीं लिखते। यहां तो राष्ट्र जागरण के लिए लिखा जाता है, आज हमारा देश आजाद हो चुका है, पर आज भी हम देशद्रोहियों, भ्रष्टाचारियों और देश के गद्दारों से त्रस्त हैं।
हमारी महान परंपराओं और संस्कृति का पतन और दमन करने का प्रयास किया जा रहा है। आज भी देश में जयचंदों की कमी नहीं है।
अधिकांश नेता केवल अपने स्वार्थ के लिए कुर्सी पाना चाहते हैं। ऐसे में हमें फिर से ऐसे साहित्यकारों व लेखकों की जरूरत है, जो अपनी लेखनी की धार से इन भ्रष्टाचारियों, स्वार्थी, सत्ता लोलुप व देश के गद्दारों के विरुद्ध लिखकर एक जन क्रांति उत्पन्न कर सकें, जिसे पढ़कर व सुनकर फिर से हमारे देश मे सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और बिस्मिल जैसे देश प्रेमी पैदा हों।
बस इसीलिए तो कहता हूँ आज़ादी अभी अधूरी है।
कैसे उल्लास मनाऊँ मैं? थोड़े दिन की मजबूरी है॥
दिन दूर नहीं खंडित भारत को पुनः अखंड बनाएँगे।
गिलगित से गारो पर्वत तक आजादी पर्व मनाएँगे॥
अटल बिहारी वाजपेयी