हे मित्रों, नमस्कार जैसा कि आप जानते हैं कि सनातन धर्म का विरोध करने वाले तथा जन्म से सनातनी पर कर्म से वामपंथी हमारे एक मित्र हैं, और अक्सर हमारे जैसे सनातनी के साथ वो शास्त्रार्थ के लिए आते रहते हैं और इस बार उन्होंने भारतवर्ष और संविधान को मुद्दा बनाया।
जन्म से सनातनी पर कर्म से वामपंथी मेरे मित्र ने मुझे एक बार पुन: यह कहते हुए ललकारा कि जब संविधान ने हि इस देश को धर्म निरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया है, तो फिर तुम लोग इसे हिन्दू राष्ट्र, हिन्दू राष्ट्र या फिर सनातनी राष्ट्र कैसे घोषित कर सकते हो, ये तो समाज में नफरत फैलाने वाली बात हुई।
हमने मुस्करा कर कहा, हे हमारे वामपंथी मित्र, तुम भूलवश या अज्ञानता वश ऐसा कह रहे हो, हमारे संविधान ने कभी भी भारत को धर्म निरपेक्ष राष्ट्र घोषित नहीं किया है।
वामपंथी:- तुम सनातनी कुछ भी बोलते हो, अरे संविधान के उद्देशिका में Secular शब्द है कि नहीं और है तो इसका अर्थ धर्मनिरपेक्षता नहीं तो और क्या है?
हमने उत्तर देते हुए एक बार फिर से वामपंथी मित्र के ज्ञान चक्षु को खोलते हुए उत्तर दिया:- हे वामपंथी सुनो संविधान की आत्मा उद्देशिका में Secular शब्द ४२ वे संशोधन के असंवैधानिक प्रक्रिया के तहत ठूंस दिया गया और इस शब्द का अर्थ है ” पंथ निर्पेक्षता”।
अब वामपंथी मित्र क्रोधित होकर पूछ बैठे, क्या धर्म और पंथ में अंतर है, क्या धर्म और पंथ एक नहीं है और क्या Secular शब्द केवल पंथ निरपेक्षता को व्यक्त करता है धर्म निर्पेक्षता को नहीं?
हमने अब जन्म से सनातनी पर कर्म से वामपंथी मित्र के जिज्ञासा को शांत करना शुरू किया उनके एक एक प्रश्नों का उत्तर निम्न प्रकार से देकर:-
हे वामपंथी मित्र सुनो आजकल मदरसे और कान्वेंट पढ़ने वाले तथाकथित उदारवादी, वामपंथी और इस्लाम तथा इसाईं मजहब का अनुसरण करने वाले जितने बुद्धजीवी समाचार चैनलों पर चर्चा और परिचर्चा करते हुए पाए जाते हैं , कमोवेश वे सभी संविधान का सहारा लेकर भारतवर्ष को “धर्म निरपेक्ष राष्ट्र” साबित करने हेतु आतुर, व्यग्र और संयमहीन अवस्था में दृष्टिगोचित हो रहे हैं। चर्चा और परिचर्चा में भाग लेने वाले ये मौलाना, मौलवी या ईसाईयत को अपना चुके पर अपने आपको अभी भी हिन्दू बताने वाले ये सभी, भले ही संविधान की पुस्तक देखि हो या नहीं पर अत्यंत विश्वास के साथ ये कहते हुए अवश्य सुने जा सकते हैं कि “भारतवर्ष एक धर्मनिरपेक्ष देश या राष्ट्र है।
आइये अब इस वाक्य का तनिक विश्लेषण करके देखते हैं कि हमारा संविधान (जो २६ जनवरी १९५० को लागू हुआ) इस विषय में वास्तव में कहता क्या है?
मित्रों हम सभी दो शब्दों से तो अवश्य परिचित हैं १) धर्म और २) पंथ। अब हम इन दोनों शब्दों की परिभाषा के ऊपर तनिक ध्यान दें तो हमें स्पष्ट रूप से इन दोनों के मध्य व्याप्त अंतर् अवश्य दिखाई देगा जो निम्नवत है:-
“धर्म”
धर्म शब्द संस्कृत भाषा के ‘धृ’ से बना है जिसका अर्थ है किसी वस्तु को धारण करना अथवा उस वस्तु के अस्तित्व को बनाये रखना। हिन्दू समाज मे धर्म की मान्यता इस प्रकार है “धारणात धर्ममाहुः” अर्थात् धारण करने के कारण ही किसी वस्तु को धर्म कहा जाता है। सनातन धर्म में चार पुरुषार्थ स्वीकार किए गये हैं जो निम्नवत हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इन सब में धर्म को प्रमुखता प्रदान दी गयी है।
गौतम ऋषि कहते हैं – ‘यतो अभ्युदयनिश्रेयस सिद्धिः स धर्म।’ अर्थात जिस काम के करने से अभ्युदय और निश्रेयस की सिद्धि हो वह धर्म है।
हे मित्र सुनो तुम वामपंथी , उदारवादी और अब्रह्मवादी जीवो ने जिस पवित्र पुस्तक को सबसे अधिक निंदनीय बना दिया है अपने कुतर्को, मिथ्या प्रवंचना और अनर्गल प्रलाप से उस मनुस्मृति के द्वारा मनु ने धर्म के दस लक्षण बताये हैं, जो निम्नवत हैं :
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम् ॥
(धृति (धैर्य), क्षमा (दूसरों के द्वारा किये गये अपराध को माफ कर देना, क्षमाशील होना), दम (अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण करना), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (अन्तरंग और बाह्य शुचिता), इन्द्रिय निग्रहः (इन्द्रियों को वश मे रखना), धी (बुद्धिमत्ता का प्रयोग), विद्या (अधिक से अधिक ज्ञान की पिपासा), सत्य (मन वचन कर्म से सत्य का पालन) और अक्रोध (क्रोध न करना); ये दस धर्म के लक्षण हैं।)
मीमांसा दर्शन में “धर्म क्या है” इस विषय पर मीमांसा की गई है। इसके अनुसार “चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः” अर्थात् वेद-वाक्य से लक्षित अर्थ, धर्म है । वेद ने जिन कर्मों को करने के लिये कहा है, उनको करना और जिनको करने से मना किया है, उनको न करना “धर्म” है।
हे मित्र हमारे शास्त्रो ने धार्मिकता को कुछ इस प्रकार से भी व्यक्त किया है :-
स जीवति गुणा यस्य धर्मो यस्य जीवति।
गुणधर्मविहीनो यो निष्फलं तस्य जीवितम्।।
जिसने भी धार्मिक जीवन जिया है वह सदाचारी, गुणवान है और उसका जीवन सफल होता है और वह वही जीवन जीता है और जो लोग धर्म से दूर रहकर सद्गुणों और धार्मिक कर्मों से दूर रहते हैं,उनका जीवन निष्प्रभावी होता है, उनका जीवन मृत्यु के समान होता है। तो इस प्रकार भी हम यह देख सकते हैं की धर्म मानव द्वारा धारण किये गए सद्गुणों और उनके द्वारा किये जाने वाले सद्कर्मो को निरूपित करता है।
प्रामाण्यबुद्धिर्वेदेषु साधनानामनेकता।
उपास्यानामनियमः एतद् धर्मस्य लक्षणम्।।
श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैव अनुवर्त्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत्।।
वेदों में प्रमाणीकरण बुद्धि, साधना के रूप में विविधता, और पूजा के संबंध में नियमन का, यह केवल नियम ही नहीं बल्कि हमारे धर्म की विशेषताएं हैं। धर्म का सार क्या है, सुनें और सुनें और उसका पालन करें! दूसरों के साथ वह मत करो जो तुम्हें पसंद नहीं है। इस प्रकार धर्म सहजीविता और परोपकार की भावना शब्दिक निरूपण प्रतीत होता है।
धर्म की महत्ता और अर्थ को और अधिक व्यापक स्वरूप में समझाते हुए हमारे शास्त्रों के द्वारा यह कथन किया गया है कि:-
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत्।।
मृत धर्म मारने वाले को नष्ट कर देता है, और संरक्षित धर्म उद्धारकर्ता की रक्षा करता है। इसलिए कभी भी धर्म का उल्लंघन न करें, इस डर से कि कहीं मारे गए धर्म हमें कभी न मारें।
और यही नहीं हे मित्र धर्म का व्यापक स्वरूप कुछ इस प्रकार है
धर्मः कल्पतरुः मणिः विषहरः रत्नं च चिन्तामणिः
धर्मः कामदुधा सदा सुखकरी संजीवनी चौषधीः।
धर्मः कामघटः च कल्पलतिका विद्याकलानां खनिः
प्रेम्णैनं परमेण पालय ह्रदा नो चेत् वृथा जीवनम्।।
धर्म है कल्पतरु, विषैला रत्न, चिंतामणि रत्न। धर्म कामधेनु है, जो सदा सुख देने वाली और जीवन रक्षक औषधि है। धर्म काम, कल्पना, विद्या और कला का खजाना है। इसलिए तुम उस धर्म का प्रेम और आनंद से पालन करो, अन्यथा तुम्हारा जीवन व्यर्थ है। अब इस प्रकार धर्म के व्यापक स्वरूप को जानकार हम यह आसानी से समझ सकते हैं कि धर्म “साधन” ना होकर स्वय “साध्य” है |
धर्मो मातेव पुष्णानि धर्मः पाति पितेव च।
धर्मः सखेव प्रीणाति धर्मः स्निह्यति बन्धुवत्।।
धर्म हमें एक माँ की तरह मजबूत करता है, एक पिता की तरह हमारी रक्षा करता है, हमें एक दोस्त की तरह खुशी देता है, और एक परिवार के सदस्य की तरह स्नेह देता है।
श्रीमद भगवतगीता अध्याय २ श्लोक ३७
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।।
हे वामपंथी मित्र सुनो महाभारत के युद्ध में अर्जुन का पक्ष धर्म का होने से युद्ध करना उसके लिये सभी दृष्टियों से उचित था। युद्ध में मृत्यु होने पर उस वीर को स्वर्ग की प्राप्ति होगी और विजयी होने पर वह पृथ्वी का राज्य वैभव भोगेगा। मृत्योपरान्त धर्म के लिये युद्ध करने वाले पराक्रमी शूरवीर की भांति भी स्वर्ग का सुख भोगेगा। इसलिये अब तक जितने भी तर्क दिये गये हैं उन सबका निष्कर्ष इस वाक्य में है युद्ध का निश्चय कर तुम खड़े हो जाओ।
परन्तु जिस परिस्थिति विशेष में गीता का उपदेश दिया गया है उसके सन्दर्भ में युद्ध करने की सलाह न्यायोचित हैं परन्तु सामान्य परिस्थितियों में श्रीकृष्ण के इस दिव्य आह्वान का अर्थ होगा कि सभी प्रकार की मानसिक दुर्बलताओं को त्याग कर मनुष्य को अपने जीवन संघर्षों में आने वाली चुनौतियों का सामना साहस तथा दृढ़ता के साथ विजय के लिये करना चाहिये। इस प्रकार गीता का उपदेश किसी व्यक्ति विशेष के लिये न होकर सम्पूर्ण विश्व की मानव जाति के लिये उपयोगी और कल्याणकारी सिद्ध होगा।
पवित्र पुस्तक गीता में भगवान् श्री कृष्ण ने ‘धर्म’ को और भी व्यापक बनाकर उसे प्रकृति और कर्म से जोड़ दिया। गीता के अंतिम अठारहवें अध्याय के ४७ वें श्लोक के अंत में वे अर्जुन को आश्वस्त करते हैं कि:-
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।
अच्छी तरहसे अनुष्ठान किये हुए परधर्मसे गुणरहित अपना धर्म श्रेष्ठ है। कारण कि स्वभावसे नियत किये हुए स्वधर्मरूप कर्मको करता हुआ मनुष्य पापको प्राप्त नहीं होता। अर्थात ‘स्वभाव से नियत किए हुए स्वधर्म रूपीकर्म को करता हुआ मुनष्य पाप को प्राप्त नहीं होता।’ यह ठीक वैसे ही है, जैसे कि अग्नि का स्वभाव है जलाना। यही उसका धर्म (स्वधर्म) है। इसलिए यदि अग्नि किसी को जलाती है, तो उसे इसका पाप नहीं लगेगा।
प्रभु श्रीकृष्णा ने आगे कहा कि इस शरीर का धर्म है, कर्म करना। यदि यह शरीर अपना कर्म नहीं करेगा, तो यह नष्ट हो जाएगा। यानी कि अपने धर्म का पालन न करने वाला खत्म हो जाएगा। इसलिए अक्सर अन्य विषयों के साथ ‘धर्म’ शब्द को जोड़ दिया जाता है-राजनीति का धर्म, गुरु-धर्म, पितृ-धर्म आदि-आदि।
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश ३ सम्मुलास में स्पष्ट रूप से कहा है कि ” जो पक्ष पात रहित न्याय सत्य का ग्रहण, असत्य का सर्वथा परित्याग रूप आचार है उसी का नाम धर्म और उससे विपरीत का अधर्म है।- उन्होंने इसे और स्पष्ट करते हुए बताया है कि “पक्षपात रहित न्याय आचरण सत्य भाषण आदि युक्त जो ईश्वर आज्ञा वेदों से अविरुद्ध है, उसको धर्म मानता हूँ।”- (सत्यार्थ प्रकाश मंतव्य)।
अब हे वामपंथी मित्र आप तनिक विचार करो यदि हम ‘धर्म’ को इस विराट रूप में लेते हैं, तो वह सापेक्ष रह ही नहीं जाता, क्योंकि उसमें सब कुछ समाहित है। यदि धर्म सापेक्ष ही नहीं है, तो फिर उसके निरेपक्ष होने का प्रश्न ही नहीं उठता।
मित्रों इसके पश्चात का शास्त्रार्थ अगले अंक में आप अवश्य पढ़े।