जाति-भेद से हमारा मतलब उस भेदभाव से है जो आज हमारे देश में फैला हुआ है, जिसके अनुसार आदमी का रहन-सहन, शादी-विवाह और अन्य सामाजिक व्यवहार केवल उसी जाति या बिरादरी में हो सकता जिसमें उसका जन्म हुआ है, चाहे उसके गुण, कर्म, स्वभाव और योग्यता कैसी भी हों।
इसके विपरीत वर्ण व्यवस्था जो प्राचीन भारत में प्रचलित थी और जिसके अनुसार समाज के सभी लोग चार वर्णों में विभक्त थे, जाति व्यवस्था से बिल्कुल अलग थी। वर्ण-व्यवस्था की बुनियाद मनुष्य के गुण, कर्म और स्वभाव पर आधारित थी न कि जन्म पर।
वेद जो हिन्दू धर्म के सबसे प्राचीन पुस्तक हैं जाति-भेद की आज्ञा नहीं देते। वेद में मनुष्यों के चार वर्ण बताये गए हैं- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। जिस वेद मंत्र में इन वर्णों का वर्णन है, उसको जाति भेद का पोषक बनाने के लिए उसके अर्थ का अनर्थ उसी प्रकार किया गया है जिस प्रकार आज बिहार के शिक्षा मंत्री द्वारा उस गोस्वामी तुलसीदास जी के रामचरितमानस के पदों के साथ किया जा रहा है; जिनकी अनेक श्रेष्ठ रचनाएँ (दोहावली, कवितावली, श्री हनुमान चालीसा, सतसई, गीतावली आदि) हिन्दू जनमानस में गहराई से रची-बसी हैं और जिनका भारतीय सांस्कृतिक जीवन में विशेष स्थान है।
ऋग्वेद के 10 वें मंडल के जिस मंत्र को जाति-भेद का पोषक बनाया जाता है वह यह है –
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्य: कृतः ।
ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पद्भ्यां शूद्रो अजायत ॥ (मण्डल -10, सूक्त-90, मन्त्र-12)
हिन्दू समाज को जातियों बांटकर रखवाले लोग इस मंत्र का अर्थ यह बताते हैं- “ब्राह्मण ब्रह्मा के सिर से, क्षत्रिय उसके बाहुओं से, वैश्य उसके जंघा से और शूद्र पैरों से उत्पन्न हुए।”
लेकिन यह अर्थ अशुद्ध है और मंत्र का सही अर्थ यह है- “ब्राह्मण उसका (अर्थात मनुष्य-समाज का) मुख है, क्षत्रिय को बाहु बनाया गया है। जो वैश्य है वह उसका मध्य भाग है और शूद्र पाँव बनाया गया है।”
अगले एवं पिछले मंत्रों की संगति मिलाने से पता चलता है कि इस मंत्र का सही अर्थ यही है। ऋग्वेद के सूक्त के 9 वें मंत्र में मानव समाज का एक पुरुष के सदृश चित्रण किया गया है। 11 वें मंत्र में यह प्रश्न किया गया है-
मुखं किमस्य कौ बाहू का ऊरू पादा उच्येते ।
अर्थात “उसका मुख क्या है, बाहु क्या हैं, मध्य भाग और पांव क्या कहे जाते हैं?” 12 वां मंत्र इसी प्रश्न का उत्तर है और उसका सही अर्थ वही है जो ऊपर हमने बताया है।
इस मंत्र से किसी भी प्रकार के जातिगत भेदभाव की पुष्टि नहीं होती। इसमें मानव समाज की व्याख्या पुरुष के शरीर के रूप में की गई है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का संबंध मानव समाज से ऐसा है जैसा कि सिर, बाहु, मध्य भाग और पांव का शरीर से। ब्राह्मण जो शास्त्रों का अध्यन करते हैं और धर्म का उपदेश देते हैं, मानव समाज के मुख व सिर कहे गये हैं। क्षत्रिय जो बल धारी हैं और वो समाज के लोगों की रक्षा करते हैं तथा समाज की भुजा बताए गए हैं। वैश्य जो व्यापार के लिए देश-विदेश जाते हैं, खेती, बढ़ई, लुहार, सुनार आदि का काम करते हैं, समाज का मध्य भाग है। और शूद्र जो विद्या अध्ययन नहीं बल्कि केवल दूसरों की सेवा करते हैं समाज के पांव हैं। यह जातिगत भेदभाव नहीं हैं, बल्कि कार्य के अनुसार मानव समाज के विभाग का वर्णन है। इसका आधार जन्म नहीं बल्कि कर्म है।
देश और समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए इससे अच्छा विभाग और क्या हो सकता है? इस व्यवस्था में सबसे बड़ा स्थान विद्या और ज्ञान को दिया गया है, दूसरा बल एवं धन को। और क्या मानव शरीर में इन अंगों के यही स्थान नहीं पाये जाते? हमारा मस्तिष्क या सिर जो ज्ञान का स्थान है शरीर में सबसे ऊपर है, उसके नीचे ताकत और बल का प्रतिनिधित्व करती भुजाएं हैं और उसके नीचे धन का प्रतिनिधि उदर व हमारा पेट है और सबसे नीचे दो पैर, जो सारे शरीर की सेवा करते हैं। क्या दुनिया में मौजूद कोई मत मानव समाज के इससे अच्छे विभाग का विचार कर सकता है कि जिसमें ज्ञान और विद्या और धर्मपरायणता को धन और बल दोनों से ऊँचा स्थान दिया गया हो? इसके विपरीत पश्चिमी देशों की संस्कृति में सबसे ज्यादा महत्व धन को दिया जाता है।
इसलिए ऋग्वेद का यह मंत्र जन्म के आधार पर जाति-भेद का उपदेश नहीं देता बल्कि मनुष्य के कर्मों के विभाग से हमें अवगत करवाता है, जिसके बिना कोई भी सभ्य समाज सही तरीके से कार्य नहीं कर सकता। वेदों में ऐसा कोई मंत्र नहीं है जिसमें जातिगत भेदभाव की बात की गई हो। वेदों का उपदेश और सार जातिगत भेदभाव के बिल्कुल विरुद्ध है।
Reference
Caste System, Shri Pandit Gangaprasad