सात दशकों से चली आ रही गणतंत्र दिवस की औपचारिकताओं की पुनरावृत्ति के बाद यदि इतिहास के पृष्ठों पर नज़र डालें तो समाज मे व्याप्त दुरावस्था की जड़ों तक पहुंच कर समाधान का मार्ग तलाशना आसान होगा। स्वातत्र्योत्तर भारत को अल्पसंख्यक बहुसंख्यक अगड़े पिछड़े आदि विभिन्न वर्गों एवं हजारों जातियों मे विभाजित करने के बाद भी अनेकता मे एकता का पाठ पढ़ाने वाली लोकतंत्र के आवरण मे प्रस्तुत संविधान प्रदत्त धर्मनिरपेक्षता से आच्छादित तुष्टीकरण के दुष्परिणामों को छिपाती भारतीय शासन व्यवस्था देाष पूर्ण होकर अपने अंदर भावी ग्रह कलह के बीज छुपाए हुए है।
कार्यानुसार चार वर्णों मे वर्गीकृत प्राचीन भारतीय समाज मे अपने कार्य व्यवसाय पर पीडी दर पीडी एकाधिकार सुरक्षित रखने हेतू जन्माधारित जाति व्यवस्था का आविष्कार हुआ था एवं सीमित संसाधनों पर असीमित दावेदारी के कारण जातीय संघर्ष की भूमिका बनी। वर्तमान युग मे इस प्राचीन व्यवस्था का औचित्य ना होने पर भी जातियों की संख्या मे ना केवल निरंतर वृद्धि देखी जा रही है इनमे से अधिकांश जातियां आरक्षित वर्ग मे शामिल होने को बेताब है। इस प्रवृत्ति को राजनीतिक दलों द्वारा प्रश्रय दिया जाता रहा है। समानता के लोकतांत्रिक सिद्धांत को तिलांजली देकर क्षूद्र स्वार्थ के ख़ातिर राज्य सत्ताऐं जब प्रजा को विभिन्न वर्गों मे बांट कर पक्षपात करने लगती है तब समाज मे विघटन एवं राज्यों का पतन आरंभ होता है इतिहास मे इन्ही कारणों से बौद्ध धर्म का उदय हुआ था और इन्ही कारणों से बौद्ध धर्म एवं बौद्ध राज सत्ताओं का पराभव हुआ।
कोई भी जाति एवं धर्म शासन तंत्र की सुरक्षा मे विशेषाधिकार प्राप्त करने पर समाज की मुख्य धारा के कटने लगता है। इसका परिणाम सामाजिक विद्वेष द्वारा सामाजिक एकता और अंतत: राष्ट्र की अखंडता के लिये खतरे के रूप मे देखा गया है। सुदृढ़ राज्य सत्ता एवं कुशल सामाजिक नेतृत्व के अभाव के कारण मध्यकाल मे भारतीय समाज अनेक जातियों मे विभाजित हुआ इन जातियों मे टकराव के कारण देश पराधीन हुआ। आज केंद्र मे सुदृढ़ एवं स्थिर राज सत्ता की उपस्थिति भारतीय समाज की एकता एवं राष्ट्र की अखंडता के लिये शुभ संकेत है परंतु क्षुद्र स्वार्थ के ख़ातिर मुट्ठी भर खल तत्वों द्वारा राष्ट्रवादी सरकार को अस्थिर करने के लिये किये प्रयासों मे एक है जाति आधारित जनगणना इसके अंतर्गत समाज को अनेक जातियों मे विभाजित कर मत कोष निर्माण हेतु भेदभाव पूर्ण नीतियों द्वारा समाज की एकता के मूल्य पर राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूर्ण की जायेगी मंडल आयोग की रिपोर्ट के समय जातिवाद से झुलसते समाज के विभत्स दृश्य की पुनरावृत्ति मे सत्ता का मार्ग तलाश किया जाएगा।
गांधी के जाति मुक्त भारत की परिकल्पना को आज के गांधीवादियों द्वारा ही घुरे पर फेंक जातीय जनगणना की स्वीकृति दी गई। इसे धार्मिक कट्टरता के दुष्परिणामों की प्रतिक्रिया स्वरूप जन्मी सामाजिक एकता को जातीय कट्टरता मे परिवर्तित कर सामाजिक विभाजन द्वारा निर्बल करने की साज़िश के रूप मे देखा जाना चाहिये। सदियों से धार्मिक सहिष्णुता के लिये यत्नशील भारतीय समाज को जातीय जनगणना के बाद जातीय सहिष्णुता के प्रयत्न मे अपनी उर्जा व्यय करना होगी। प्राचीन भारत मे सनातन एवं बौद्ध दो धर्मों के बीच समन्वय के अभाव मे भारत भूमि विदेशी अत्याचारों से रक्तिम हुई थी वहीं स्वतंत्र भारत मे सत्ता लोलुप प्रवृत्ति से ग्रसित राजनीतिक दल समाज को कई जातियों एवं धर्मों मे विभाजित कर भारत की एकता को खंडित एवं विकास को अवरुद्ध करने की दिशा मे प्रयत्नशील है।
लोकतंत्र मे सत्ता के लिये संख्या बल आवश्यक है ओर संख्या बल के लिये विभिन्न समुदायों के मध्य विभाजन रेखा खींच कुछ जाति समुहों को तुष्टीकरण द्वारा अपने पक्ष मे करने जैसे ओछे हथकंडों मे सत्ता का मार्ग खोजा जायेगा। समानता का सिद्धांत ही लोकतंत्र की मूल भावना एवं राष्ट्रीय एकता की नीव है, समाज के एक वर्ग को आवंटित विशेष सुविधाऐं, कुछ राजनीतिक गुटों के दबाव मे इन सुविधाओं का विस्तार, इस नीव को कमजोर करता हैं। सुरसा के मुख की भांति निरंतर द्विगुणित होता जातीय और धार्मिक वैमनस्य इसका उत्पाद है। इसे नियंत्रित करने के बजाय इसके विस्तार हेतु जातीय जनगणना जैसे नए नए मार्ग तलाशे जा रहे है।