1959 साल! कमजोर मानसून से चावल का उत्पादन बहुत कम हुआ था। बिचौलिओं ने खाद्यान्न का भंडारण कर ब्लैक में ऊंची कीमत पर बेचना शुरू कर दिया था। इससे बेतहाशा मूल्यवृद्धि हुई जिसे रोकने के लिए सरकार ने ‘राइस कर्डनिंग’ अर्थात एक जिले से दूसरे जिले में चावल ले जाने पर रोक लगा दी। इससे कुपित होकर ब्लैक मार्केटिंग करने वालों ने वामपंथियों को उकसा दिया। बंगाल के विभिन्न क्षेत्रों में ‘फूड आंदोलन’ की शुरुआत हुई। विधानसभा में बहसें हुईं। मिडिया में जबरदस्त रिपोर्टिंग की गई।
साठ के दशक के मध्य में अचानक किरोसीन तेल की कीमत बढ़ गई। कोढ़ में खाज की तरह ट्राम का भाड़ा भी बढ़ गया। ऐसी परिस्थिति में वामपंथियों ने अपने लिए सुवर्ण अवसर देखा। भूखे प्रदेशवासियों की मन:स्थिति का फायदा उठाकर उन्होंने अपनी राजनीति चमकाने और बंगाल की सत्ता हड़पने के लिए आंदोलन में विद्यार्थियों और छोटे बच्चों तक को लगा दिया। फरवरी 1966 में पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाले छात्र नुरुल इस्लाम की पुलिस की गोली से मौत हो गई! मौतों को मौके के रूप में इस्तेमाल किया गया। आंदोलन पूरे बंगाल में फैल गया। इसी बीच वामपंथियों ने आम जनता के बीच जोरदार प्रचार किया कि तत्कालीन खाद्य मंत्री और मुख्यमंत्री प्रफुल्ल चंद्र सेन ने कोलकाता के रिहायशी इमारतों में से एक, ‘स्टिफन हाउस’ खरीद लिया है। यह मिथ्या प्रचार बहुत ही प्रभावी रहा और ‘आरामबाग के गांधी’ नाम से सुख्यात प्रफुल्ल चंद्र सेन, ‘बांग्ला कांग्रेस’ के प्रदेशाध्यक्ष अजय मुखोपाध्याय से लगभग 800 वोटों से हार गए।
धीरे धीरे सेन महाशय ने राजनीति से संन्यास ले लिया। वे अपने एक कमरे वाले फ्लैट में रहते थे। उनकी आर्थिक स्थिति इतनी लचर थी कि वे अपनी चिकित्सा का खर्च उठाने में भी सक्षम नहीं थे। पश्चिम बंगाल के इस तृतीय मुख्यमंत्री की 93 वर्ष की आयु में जब 1990 में मृत्यु हुई तो इनके पास थी सिर्फ चार जोड़ी धोती कुर्ता और एक अलमारी पुस्तकें।
ऐसे सरल जीवन जीने वाले गांधीवादी नेता के उपर ‘स्टीफन हाउस’ जैसे बेशकीमती बिल्डिंग के खरीदने का आरोप लगा कर वामपंथियों ने पश्चिम बंगाल की जनता को भ्रम में डाल कर अपनी राजनीति तो चमका ली परन्तु यह कभी प्रमाणित नहीं कर सके कि सेन महाशय ने बिल्डिंग खरीदी थी। आज भी कोलकाता में वो ‘स्टीफन हाउस’ है परन्तु उसके मालिक प्रफुल्ल चंद्र सेन नहीं है!
तो फिर वामपंथियों ने जनता में झूठी बात प्रचारित कर उसे धोखा क्यों दिया?
वामपंथियों का बाइबल ‘रूल्स फाॅर रेडिकल्स’ के “पीक द टार्गेट, फ्रीज इट, पर्सोनलाइज इट एंड पोलराइज इट” के सिद्धांत के अनुसार वामपंथी जमात अपने विरोधियों के मुख्य चेहरे को ‘टार्गेट’ कर एक माहौल बनाती है। उस टार्गेट के चारों ओर एक विशेष एजेंडा चलाते हुए उस पर व्यक्तिगत आक्रमण करती है। घटनाएं फ्रेम की जाती हैं और पूरा इकोसिस्टम जन-मानस को तैयार करने के लिए सक्रिय हो जाता है।बंगाल में वामपंथियों के सत्ता के संघर्ष में सबसे बड़े बाधक उनके मुखर विरोधी और सुप्रसिद्ध मुख्यमंत्री विधानचंद्र राय के उत्तराधिकारी प्रफुल्ल चंद्र सेन थे। उन्हें सत्ताच्युत करने हेतु जनता के मन में उनके प्रति आक्रोश पैदा किया गया। इसमें वामपंथी जीते, जनता हार गई!
2014 से केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार आयी तब से प्रत्येक छह-सात महिने पर कोई न कोई एजेंडा वाली नरेटिव लगातार चलाई जा रही है। पहले असहिष्णुता, पुरस्कार वापसी, माॅब लिंचिंग, जैसे प्रायोजित प्रयास से सरकार को अस्थिर करने का प्रयास किया गया। बिहार में सरकारी नौकरी का ‘क्रेज’ रहता है। इस मनःस्थिति का फायदा उठाने के लिए 17 सितंबर 2020 को नरेंद्र मोदी के जन्मदिन पर ट्विटर पर बेरोजगार दिवस ट्रेंड करवाया गया। अक्टूबर-नवंबर 2020 में बिहार विधानसभा चुनाव थे। फिर 2021 में भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में चुनाव थे। इन चुनावों को केंद्र कर इकोसिस्टम फिर से सक्रिय हुआ। मिडिया में यह बहस जोरो से चलने लगी कि भारत में सिर्फ चार दिनों का ‘कोयला रिजर्व’ बच गया है इसके बाद भयंकर ब्लैक आउट होगा।
एनडीटीवी, द प्रिंट जैसे मिडिया हाउस इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया में जनता में भय व्याप्त हो ऐसे हेडलाइंस वाले खबर चलाने लगे। देश की एक बहुत बड़ी ‘लेबर फोर्स’ को सरकारी नौकरी देने वाली रेलवे के बिकने की खबर चलने लगी जबकि रेल मंत्री ने कई बार स्पष्टीकरण दी। सोशल मीडिया पर बहसों का दौर चल पड़ा। उधर “मोदी जी, हमारे बच्चों की वैक्सीन विदेश क्यों भेज दी” के पोस्टर लगे जबकि भारत सरकार के कोरोना प्रबंधन और वैक्सीनेशन की सफल योजना विश्व के विकसित देशों की तुलना में बेहतर सिद्ध हुई है। एयर इंडिया की सफल डील पर भी जनता को भ्रमित करने का प्रयास किया गया। आज ‘आपरेशन गंगा’ की सफलता में एयर इंडिया के योगदान से प्रत्येक भारतीय कृतज्ञ है। किसान विरोधी और विशुद्ध राजनैतिक आंदोलन ‘किसान आंदोलन’ को तो देश कभी भूल नहीं सकता। जैसे जैसे उत्तर प्रदेश का चुनाव नजदीक आता गया इस आंदोलन की तिव्रता और खतरनाक षड्यंत्र तेज होते गए।
26 जनवरी को लाल किले पर पताका फहराना हो, पुलिस को उत्तेजित कर गोली चलाने के लिए मजबूर करना हो, टिकरी बार्डर के समीप प्रदर्शन में शामिल होने गई युवती का सामूहिक बलात्कार हो, सिंघु बार्डर पर ईश निंदा के आरोप में दलित-मजदूर लखबीर सिंह की नृशंस हत्या हो या लखिमपुर खिरि की दुर्घटना, उनका उद्देश्य सरकार के प्रति जनता को आक्रोशित कर आगामी चुनाव में भाजपा की हार सुनिश्चित करना था। इस बात का खुलासा योगेन्द्र यादव ने यह कहते हुए कर दिया कि “किसान आंदोलन में हमारा काम चुनाव की राजनीति के लिए जमीन तैयार करना था…”। इससे स्पष्ट है कि किसान आंदोलन प्रायोजित और राजनीति प्रेरित था। किसान तो सिर्फ एक मोहरा था जिसको ‘इस्तेमाल’ कर चुनाव जीतने की तैयारी चल रही थी। जरा सोचिए, आखिर किसानों को और देश को क्या मिला? इन वामपंथियों ने सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखने की भूख के लिए देश का कितना आर्थिक और मानसिक शोषण किया? कई परिवारों के कमाउ सदस्य इस आंदोलन की बली चढ़ा दिए गए। इस अपराध हेतु टिकैत, योगेन्द्र यादव तथा अन्य साजिशकर्ताओं को अपराधी क्यों न माना जाए?
सामान्य जनता के पास तथ्यों के परिक्षण हेतु समय और समझ बहुत कम होती है। लोग दो-चार दिनों में बातें भूल कर अपने जीवन की आपाधापी में लग जाते हैं। वे सामयिक लाभ-हानि से बहुत आकर्षित हो जाते हैं तथा जो बातें बार-बार सुनते हैं उसे सच मानने लगते हैं। वामपंथियों ने इस सामाजिक मनोविज्ञान का बहुत सलीके से इस्तेमाल किया है। करते हैं।
सामाजिक -आर्थिक-शैक्षणिक और विमर्श की दुनिया में इस राष्ट्र को दिशा दिखाने वाला पश्चिम बंगाल लगभग 35 वर्षों के वामपंथी शासन के बाद आज जैसे विपन्नावस्था में पड़ा हुआ है और वामपंथी बहकावे में आकर किरोसीन तेल के मूल्य वृद्धि पर सड़कों पर आगजनी करने वाले लोग पेट की आग बुझाने और जीवन की रक्षा के लिए आज जैसे पलायन को मजबूर हैं ऐसी स्थिति पूरे भारत की न हो इसलिए राष्ट्र के प्रत्येक चिंतनशील और दायित्वान व्यक्ति की यह नैसर्गिक जिम्मेदारी बनती है कि आम जनता की वामपंथी षड्यंत्रों से रक्षा करने हेतु सत्य का संधान करने के लिए सक्रियता बढ़ाएं तथा यथोचित मार्गदर्शन करें।