Wednesday, October 9, 2024
HomeHindiवेदो के दृष्टीसे कल्याणकारी राज्य की संकल्पना: भाग 1

वेदो के दृष्टीसे कल्याणकारी राज्य की संकल्पना: भाग 1

Also Read

मनुष्य की व्यक्तिगत तथा सामूहिक उन्नति के लिए विचारकों द्वारा विकसित विविध मविधाओं में राज्य का सर्वोच्च स्थान है। मानव के सर्वांगीण विकास हेतु राज्य एक अति आवश्यक एवं उपयोगी संस्था है। इसके कल्याणकारी स्वरूप का प्रत्येक काल मे हुआ है। इसका सर्वोपरि उद्देश्य मानव समुदाय का हित है। किसी भी राज्य की महत्ता इस बात में निहित है कि वह किस सीमा तक लोक कल्याणकारी है? इस संदर्भ में राज्य का अपने नागरिकों के प्रति देश की सुरक्षा, शांति और प्रशासन के अतिरिक्त भी वृहत्तर कर्तव्य तथा उत्तरदायित्व है। इस प्रकार के दायित्वों में प्रमुख हैं- नागरिकों का अधिकाधिक हित करना, इस बात की व्यवस्था करना कि उनके जीवन स्तर (रहन-सहन तथा खान-पान) का बेहतर विकास हो, उनके भौतिक, बौद्धिक एवं नैतिक अभ्युदय के सभी साधन पर्याप्त मात्रा में सुलभ हों तथा उनकी और उनके संतानों की शिक्षा का समुचित प्रबंध हो। इस प्रकार “वह राज्य लोक हितकारी होता है, जो अपने नागरिकों के लिए व्यापक समाज सेवाओं की व्यवस्था करता है।”

प्रत्येक शासन प्रणाली का राज्य अपनी परिस्थितियों एवं संसाधन के अनुरूप अपने को जनकल्याणकारी बनाने के लिए सचेष्ट रहता है, क्योंकि किसी भी राज्य की शक्ति और स्थिति उसके निवासियों की संपन्नता, सुख और विकास पर अवलंबित है। मानव हित के साधन के रूप में राज्य का विकास प्राचीन भारतीय चिंतन में तथा पाश्चात्य राजनीतिक विचारधारा में एक जैसा दिखाई देता है।

प्राचीन भारतीय विचारकों ने धर्म, दर्शन, अध्यात्म एवं विज्ञान के चिंतन में विशेष तत्परता प्रदर्शित की थी। फिर भी उन्होंने मनुष्य के भौतिक सुखों को नियंत्रित तथा अनुशासित करनेवाले विषयों की उपेक्षा नहीं की। वैदिक व ब्राह्मण साहित्य में स्पष्ट रूप से राज्य के उद्देश्य में यह वर्णित है कि “शांति-व्यवस्था, सुरक्षा एवं न्याय ही राज्य का मूल कर्तव्य एवं लक्ष्य है। प्रजा की नैतिक व भौतिक उन्नति ही राज्य का परम उद्देश्य है।” इसी प्रकार ‘महाभारत’ के शांति पर्व में यह कहा गया है कि “राज्य को निरंतर सत्य की रक्षा करनी चाहिए।

व्यक्तियों के नैतिक जीवन का पथ-प्रदर्शन, शुद्धि तथा नियंत्रण करना चाहिए तथा पृथ्वी को मनुष्य के लिए निवास योग्य एवं सुखदायिनी बनाना चाहिए।” इस प्रकार प्राचीन भारतीय चिंतन में, प्रजा का सर्वांगीण कल्याण ही राज्य का परम उद्देश्य माना जाता था।” लोक कल्याणकारी राज्य का स्वरूप देशकाल के अनुसार बदलता रहता है। प्रत्येक युग के विचारकों ने इसे सामाजिक संदर्भों में परिभाषित करने की चेष्टा की है। यूनानी राजनीतिक चिंतक अरस्तु की इस प्रसंग में उक्तिः सर्वाधिक समीचीन है। उसके अनुसार, “राज्य का अस्तित्व जीवन (भौतिक उन्नति) के लिए है तथा उसकी निरंतरता सद्जीवन (नैतिक जीवन) के लिए है।

भारतवर्ष सृष्टि का आरंभ कृतयुग (सत्ययुग) से मानता है। कृतयुग का प्रजा धर्मनिष्ठ, सदाचारी और ब्रह्मज्ञानी थी। प्रजा अपनी रक्षा पारस्परिक धर्म का पालन करके करती थी। प्रजा के वर्णाश्रम धर्म की रक्षा के लिए किसी राजा की आवश्यकता नहीं थी। साम्यभाव पराकाष्ठा पर था। यह साम्यभाव किसी बाह्य शक्ति के भय से नहीं वरन विद्या, त्याग, तपस्या तथा कल्याणकारी दैवी नियमों के ज्ञानरूपी आंतरिक शक्ति से प्रेरित होकर मानसी प्रजा ने स्वतः अपनाया था। प्रत्येक जीव में अपने ही समान आत्मा के दर्शन से ऐसे साम्यभाव की स्थापना हुई थी।

  Support Us  

OpIndia is not rich like the mainstream media. Even a small contribution by you will help us keep running. Consider making a voluntary payment.

Trending now

- Advertisement -

Latest News

Recently Popular