Saturday, April 27, 2024
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द कश्मीर फाइल्स के अलावा 3 फिल्में जो एक जिम्मेदार डायरेक्टर द्वारा जरूर बनाई जानी चाहिए

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Utkarsh Mishra
Utkarsh Mishrahttps://wrestling-hub.com
उत्कर्ष मिश्र बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में अध्ययनरत हैं। खेल व राजनीतिक विषयों पर इनकी समीक्षा कई पोर्टल पर पब्लिश हुई है। इन्होंने स्पोर्ट्सकीड़ा के साथ क्रिकेट और रेसलिंग के लेखन और समीक्षा पर 2 वर्ष तक काम किया है। वह sportsjagran.com पर भी लिखते रहते हैं।

कश्मीरी हिंदुओं के ऊपर हुए अत्याचार को दबाने की तमाम कोशिशें की गई हैं। एक विचारधारा विशेष के लोगों ने तरह-तरह की नीतियां अपनाकर कश्मीरी पंडितों सिखों और दलितों के नरसंहार को एक आम घटना साबित करने की कोशिश की है।

सर्वप्रथम तो इस बर्बरता के असली आंकड़ों को भारत के मुख्य धारा के अखबारों ने कभी भी जानने की कोशिश नहीं की ना ही उनका प्रकाशन किया गया। कश्मीरी अखबार पूरी त्रासदी की रिपोर्ट करते रहे लेकिन भारतीय मीडिया आंख और कान बंद करके दिल्ली में बैठा रहा। अंत में हजारों की संख्या को घटाकर कुछ सैकड़ों में बता दिया गया और कागजी तौर पर त्रासदी की व्यापकता घटाने की कोशिश की गई।

मीडिया चुप रही क्योंकि यह दौर वैसा था जहां सरकार की जी हजूरी करने पर पदम पुरस्कार दिए जाते थे, भले ही आप युद्ध में कश्मीर जाकर भारतीय सेना के सभी ठिकानों का पता दुश्मन को क्यों ना दे दे।

इसके बाद दूसरे दौर में इस मुद्दे को कुछ इस तरह भुला दिया गया या यूं कहें कि जबरदस्ती लोगों के दिमाग से निकालने की कोशिश की गई, जैसे यह कभी हुआ ही ना हो या फिर यह एक काल्पनिक घटना मात्र हो।

तीसरा दौर आता है घटना की लीपापोती करके गुनाहगारों को ही पीड़ित बताने का। मसलन हैदर और शिकारा जैसी फिल्में बनाई जाती हैं और पूरे नरसंहार को स्वयं संहारक समुदाय की वेदना के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। पीड़ित कश्मीरी हिंदू तो लगभग गायब ही हो जाते हैं।

आज के समय में जब विवेक अग्निहोत्री ने वास्तविक घटनाओं के आधार पर द कश्मीर फाइल्स नाम की डॉक्यूमेंट्री बनाकर पीड़ितों की वेदना को सबके सामने लाया, तो भी कुछ वैसा करने की कोशिश की गई जैसा पिछले 30 सालों से किया गया है।

फिल्म के रिलीज से पहले ही फिल्म को फ्लॉप करने की तमाम कोशिशें की गई। थियेटरों में फिल्म को काफी कम स्क्रीन दी गई।प्रमोशन के लिए कई शो जहां पर अमूमन फिल्मों को प्रमोट किया जाता है, वह भी इस फिल्म को प्रमोट करने के लिए इनकार करते नजर आए।

हद तो तब हो गई जब उन सिनेमाघरों ने भी इस फिल्म के पोस्टर नहीं लगाएं जहां यह फिल्म लगी हुई थी। भला हो जागरूक हो रहे हिंदू समाज का जिन्होंने परस्पर फिल्म को प्रमोट किया और वर्ड ऑफ माउथ से फिल्म की लोकप्रियता काफी बढ़ी।

द कश्मीर फाइल्स ने न सिर्फ महामारी के बाद से रिलीज हुई फिल्मों को पछाड़ा बल्कि कई सारे रिकॉर्ड बनाएं फिल्म 200 करोड़ का आंकड़ा पार कर चुकी है और अभी भी अक्षय कुमार कि बच्चन पांडे को पीछे छोड़े हुए है

दर्शकों को सिनेमा हॉल तक लाने के बाद भी बॉलीवुड के तमाम बड़े चेहरों ने काफी समय तक फिल्म की सफलता पर चुप्पी साधी। जब उनके दोहरे रवैया के कारण उनकी आलोचना हुई तो इन लोगों ने अधूरे मन से ही फिल्म का नाम लिया। ज्यादातर ने यह कहा कि उन्होंने फिल्म देखी तो नहीं है। कश्मीरी सत्ता के हुक्मरानों ने इस फिल्म को वास्तविकता से परे बताया है।

पॉलिटिकल गलियारे की बात करें तो अरविंद केजरीवाल और कांग्रेस पार्टी कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार के मुद्दे पर कुछ इस तरह पेश आ रही है जैसे वह पैरेलल यूनिवर्स में जीते आए हैं। सांड की आंख जैसी फिल्म को टैक्स फ्री करने वाले केजरीवाल साहब ने फिल्म को झूठा बताते हुए इसे यूट्यूब पर रिलीज करने को बोला। यह ना रुके और उन्होंने कश्मीरी पंडितों की वेदना को लात मारते हुए इसे प्रोपेगेंडा बता दिया।

हालांकि धरातल की बात यह है कि पिछली दो पीढ़ियों के हिंदुओं में जो जागरूकता आई है, वह इन दोनों ही पार्टियों की नींद हराम किए हुए हैं। अब अगर विवेक अग्निहोत्री जैसे जिम्मेदार और तथ्यात्मक रूप से सही निर्देशकों द्वारा फिल्में बनाई जाएंगी तो ना ही उनके पास बजट के लिए पैसों की कमी पड़ेगी और ना ही प्रमोशन के लिए किसी के पास भटकने की आवश्यकता।

विवेक की कश्मीर फाइल्स के बाद अब कुछ और मुद्दे हैं जिनको हाईलाइट करना बहुत जरूरी हो चुका है। इन पर फिल्में बनाकर व्यापक रूप से रिलीज करने की कोशिश करनी चाहिए। इनमें से 3 मुद्दे हैं :

रेड टेरर : अ केरला रियलिटी

Source : Magzter

केरल में कम्युनिस्ट विचारधारा की सरकारों ने चीन से प्रेरित मीडिया रिपोर्टिंग का ऐसा सिस्टम बनाया है जिसमें केवल ऐसी घटनाएं रिपोर्ट जाती हैं जिनसे राज्य सरकार की तारीफों के पुल बांधे जाए। जो घटनाएं केरल में लगातार हो रहे अत्याचार को दिखा सकें उनको मीडिया में जाने नहीं दिया जाता। टीवी पर आपको यूपी, दिल्ली, मध्यप्रदेश, कश्मीर, बिहार से लेकर कर्नाटक तक के मसले डिबेट में मिल जाएंगे, पर केरल का नाम शायद कभी किसी ने प्राइम टाइम में सुना हो।

तमाम हिंदू संगठनों और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं पर हमलों के लंबे इतिहास के बावजूद किसी का ध्यान केरल की तरफ नहीं जाता। मीडिया केरल में भी केवल नींबू के छोटे फूलों को दिखाता है, उसके आसपास के बड़े-बड़े सैकड़ो कांटे इनकी नजरों से बच जाते हैं। कुछ साल पहले इस्लामिक संगठन NDF ने एक प्रोफेसर के हाथ काट दिए थे। केरल में इन संगठनों को काफी रियायत मिलती है और कार्यवाही के नाम पर सिर्फ औपचारिकता की जाती है।

आंकड़ों की बात करें तो साल 1969 से लेकर अब तक केरला में 291 भाजपा और संघ से जुड़े कार्यकर्ताओं को मौत के घाट उतारा जा चुका है। इनमें से 228 तो रेड टेरर का शिकार हुए हैं। कुछ वर्ष पहले एक कार्यकर्ता श्री राधाकृष्णन को उनके घर में जिंदा जला दिया गया था। कम्युनिस्ट गुंडों द्वारा उनके घर में आग लगाई गई थी जिसमें वह, उनके छोटे भाई और उनकी पत्नी तीनों बुरी तरह जल गए थे। आग में उनके दो भतीजे भी जल गए थे।

केरला चुनाव के बाद सितम्बर से नवंबर 2016 तक भाजपा कार्यकर्ताओं पर 100 से ज्यादा छोटे और बड़े हमले हुए।15 कार्यकर्ताओं के घर जला दिए गए और दर्जनों के वाहन और ऑटो रिक्शा आग के हवाले हुए। सब कुछ सिर्फ 2 महीने में हुआ। फिर भी आपको और मुझे इन सभी घटनाओं से जुड़ी कोई जानकारी नहीं हुई होगी क्योंकि केरला में हो रहे अपराधों को हमारे तरफ की मीडिया कभी भी हाईलाइट नहीं करती है।

द न्यूज़ मिनट की पत्रकार धन्या राजेंद्रन ने भी आरोप लगाते हुए कहा था कि मीडिया वामपंथी झुकाव वाली है। वह केरला की सरकार की कोई भी नाकामी मुख्य पटल पर नहीं लाने देती है और ना ही किसी भी घटना की ठीक से रिपोर्टिंग करती है। यह सबकुछ वहां की उनकी विचारधारा वाली सरकार को बचाने में काम करता है। 2019 में कांग्रेस के विंग यूथ कांग्रेस के भी कार्यकर्ताओं को रेड टेरर का शिकार होना पड़ा। खुद कॉंग्रेस भी इस मुद्दे को उठाने की जगह चुनाव प्रचार में व्यस्त रही थी।

एक चल रही क्लास में आरएसएस कार्यकर्ता शिक्षक की हत्या जैसे ऐसे सैकड़ों हत्याकांड केरला में आए दिन होते रहते हैं। फिर भी इस पर किसी की नजर नहीं जाती है ऐसे में जरूरत है इस मुद्दे पर भी एक डॉक्यूमेंट्री बनाकर केरला का लाल सच सबके सामने लाया जाए।

अयोध्या : द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ ब्लडशेड

Source : Post Card News

अयोध्या की घटना मुलायम सिंह यादव के दिशा निर्देश पर हुई थी। अयोध्या के नाम पर लोगों को विवादित ढांचे का ही नाम रटाने की कोशिश करती मीडिया कभी भी यह नहीं दिखाती है कि कैसे पुलिस ने हज़ारों की भीड़ पर फायरिंग करते हुए मौत के घाट उतार दिया था। जुर्म बस इतना था कि वह रोड पर बैठ कर प्रदर्शन कर रहे थे। आज के समय में जहां लाठीचार्ज भी लोकतांत्रिक आजादी का हनन माना जाता है, वहां आज से 32 साल पहले क्या हुआ था उसे कोई याद नहीं कर रहा है।

हिंदी समाचार पत्रों की रिपोर्टिंग को छोड़ दिया जाए तो लगभग सभी साक्ष्य व इतिहास मिटाने जाने की साजिश की गई। कई अखबारों ने तो उस वक्त घटनाक्रम की सारणी में से उस घटना को हटा दिया था मानो वह हुई ही न हो। मुल्ला-यम सरकार द्वारा इस घटना में 16 मौतों को दिखा कर इनका असली आंकड़ा भी छुपा लिया गया, लेकिन कुछ समाचार पत्रों ने मौतों की संख्या सरकारी आंकड़ों से ज्यादा बताई थी।

इस फिल्म का बनना भी उतना ही जरूरी है। इससे पहले कि कोई और लिब्रांडू डायरेक्टर इस घटना को अपना मिर्च मसाला लगाकर परोस दे, विवेक अग्निहोत्री जैसे किसी जिम्मेदार डायरेक्टर को इसे बनाना चाहिए और पूरी घटना को चक्रवार रूप से दिखानी चाहिए।

कैराना: द नेक्स्ट कश्मीर?

कैराना में भारी तादाद में हो रहे हिन्दू पलायन ने कुछ वर्षों पहले सभी की नजरें अपनी तरफ खींची थी। यहां पर भी पलायन के कारण कश्मीर जैसे ही थे पर एक अंतर जो कैराना और कश्मीर में देखने को मिला वह यह था कि कैराना में सबकुछ चुपचाप हुआ। समुदाय ने अपना काम उसी तरीके से किया और मंसूबो को अंजाम तक पहुँचाया लेकिन यह सब इंटरनेट के जमाने मे भी सालों तक किसी के सामने नहीं आया।

कुछ इस तरह की घटनाएं दिल्ली में भी रिपोर्ट की गई जहां एक समुदाय विशेष के लोग हिंदुओ के घरों के आगे “यह घर बिकाऊ है” लिख कर चले जाते थे। इन घरों में रहने वाले लोगों का सार्वजनिक रूप से असीमित दमन किया जाता था और पुलिस और प्रशासन इस बाबत कोई ठोस कदम नहीं उठाता था।

अलीगढ़ में कुछ ऐसे ही घटनाओं के बारे में पता चला जो दिल्ली और कैराना जैसी ही थी। इनके अलावा न जाने कितनी जगहों पर यह काम चल रहा होगा यह भी सोचनीय विषय है क्योंकि ये घटनाएं भी मीडिया और सोशल मीडिया पर सालों बाद आईं। ऐसे में एक फ़िल्म बनाकर इसपर प्रकाश डालते हुए इस विषय मे हिंदुओ को सतर्क करना चाहिए क्योंकि जो कश्मीर में हुआ वो हो सकता है नहीं – होना शुरू हो चुका है।

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