मित्रों जैसा की आप और हम वर्ष २०१४ से लगातार अपने देश में एक शोर सुन रहे हैं, खासकर विपक्ष का हर नेता और उनकी पार्टी का हर कार्यकर्ता चीख चीख कर जनता को बता रहे हैं कि “हमारा संविधान खतरे में है, हमें संविधान को बचाना है”। अब प्रश्न ये है विपक्षी नेता और उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओ को ही केवल दिखाई दे रहा है की “संविधान खतरे में है” पर आम जनता को तो जैसे लगता है इसमें कोई दिलचस्पी ही नहीं है या फिर वो अच्छी तरह समझती है की संविधान खतरे में नहीं बल्कि भ्रष्टो का भ्रष्टाचार खतरे में है, लुटेरों का लूट खसोट खतरे में है, माफियाओ की माफियागिरी खतरे में है, गुंडों की गुंडागर्दी, दंगाइयों के दंगे फसाद, हुड़दंगियों का हुड़दंग और दलालो की दलाली खतरे में है।
दरअसल संविधान तो केवल दो बार खतरे में आया (१) जब जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद ३७० और ३५ अ लगाकर उसे भारत से अलग कर दिया गया जबकि उसके विकास के लिए पूरा पैसा भारत से भेजा जाता था और वंहा अपना विधान और अपना निशान दे दिया गया (२) जब देश पर आपातकाल थोपकर संविधान में ४२ व संसोधन करके उसके उद्देशिका में चोरी छुपे “सेक्यलर और सोशल” शब्द डाल दिया गया।
आइये देखते है वर्ष १९४७ से लेकर अब तक राज्य की चुनी हुई व्यवस्था को संविधान का सहारा लेकर किस प्रकार अवैधानिकता से बरखास्त कर दिया गया।
मित्रों संविधान का अनुच्छेद ३५६ बहुत ही बदनाम अनुच्छेद है अरे कहने का अर्थ ये है की इस अनुच्छेद का नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक इतनी बार दुरुपयोग किया गया है की इसके हिस्से में बदनामी यूँ ही आ गयी जबकि ये लोकतंत्र को मजबूती देने के लिए बनाया गया था। अनुच्छेद ३५६ अर्थात राज्य में राष्ट्र्रपति साशन।
आमतौर पर, राष्ट्रपति शासन तब लगाया जाता है जब जनता द्वारा चुनी गयी किसी राज्य की राज्य सरकार अपना बहुमत खो देती है या सत्तारूढ़ दल के भीतर विभाजन या गठबंधन सहयोगी द्वारा समर्थन वापस लेने की स्थिति में वो अल्पमत में आ जाती है। पर आपको ऐसे उदाहरण भी मिलेंगे, विशेष रूप से १९७० और १९८० के दशक में, जहां राज्य सरकारों को विधानसभा में बहुमत होने के बावजूद बर्खास्त कर दिया गया। चुनाव के बाद के परिदृश्य की स्थिति में राष्ट्रपति शासन भी लागू होता है, जहां कोई भी दल या गठबंधन नई सरकार बनाने की स्थिति में नहीं होता है। ऐसी स्थितियां भी हैं जहां एक मुख्यमंत्री ने अदालतों द्वारा अयोग्यता या अरविंद केजरीवाल के मामले में फरवरी २०१४ में जन लोकपाल विधेयक पारित करने में विफल रहने जैसे विभिन्न कारणों से अपना इस्तीफा दे दिया है। इसके अलावा, राज्य के भीतर मौजूदा (अक्सर बिगड़ती) कानून व्यवस्था की स्थिति पर भी विचार किया जाता है। इसमें अलगाववादी विद्रोह (पंजाब, जम्मू और कश्मीर, पूर्वोत्तर राज्य), जातीय संघर्ष (असम, त्रिपुरा) और सांप्रदायिक दंगे (उत्तर प्रदेश) के कारण हिंसा शामिल हैं।
संविधान के निर्माता भारतीय राजनीति की प्रकृति, चाल, चलन और चरित्र का अनुमान करने में सक्षम नहीं थे, अत: उनको ये कल्पना भी नहीं थी की संविधान को केवल एक विशेष राजनीतिक दल को लाभ पहुंचाने के लिए संशोधित (अमेंड) किया जा सकता है या किया जायेगा। विडंबना (आईरोनिक) यह है कि संविधान लागू होने के एक वर्ष पश्चात ही १९५१ में, अनुच्छेद ३५६ का दुरुपयोग नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोपीचंद भार्गव को बर्खास्त कर दिया था, वो भी जब उनके पास राज्य में बहुमत थी और उनकी विफलता की कोई स्थिति नहीं थी। नेहरू ने एक बार फिर से, १९५४ में, आंध्र प्रदेश की चुनी हुई सरकार को उखाड़ फेंका था क्योंकि केंद्र सरकार को राज्य पर एक कम्युनिस्ट शासन की संभावना की आशंका व्याप्त थी।
अनुच्छेद ३५६ को भारतीय संविधान में शामिल किया गया था ताकि केंद्र सरकार संवैधानिक तंत्र की विफलता के कारण कानून और व्यवस्था की गड़बड़ी जैसी गंभीर परिस्थितियों से राज्यों की रक्षा कर सके, क्योंकि भारत जैसे बड़े देश में ऐसी स्थिति के बढ़ने की संभावना हमेशा बनी रहती है। अनुच्छेद ३५६ के आधार पर दी गई असाधारण शक्ति राज्यों को उनकी चुनी हुई सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए नहीं, बल्कि उन्हें बचाने के लिए थी।
जैसा कि हम सब जानते हैं कि, “संघीय ढांचा भारतीय संविधान की मूल संरचना का एक हिस्सा है” और जनता द्वारा किसी राज्य की चुनी हुई राज्य सरकार की व्यवस्था को उखाड़ फेंकने और विधानसभा को निलंबित करने का कोई भी अनुचित या मनमाना कार्य संविधान की मूल संरचना और दिए गए अधिनियम में बाधा उत्पन्न करता है अत: इस तरह के कार्य को किसी भी परिस्थिति में बढ़ावा नहीं देना चाहिए।
आइये देखते हैं कि अनुच्छेद ३५६ की मूल प्रकृति और उसका दायरा क्या है?
अनुच्छेद ३५६ की प्रकृति और दायरे का विश्लेषण करे तो हम पाएंगे कि अनुच्छेद ३५६ के दो आवश्यक कारक हैं, जो निम्नवत है:
१) राष्ट्रपति, जोकि हमारे देश का प्रथम नागरिक होता है, सम्बंधित राज्य के राज्यपाल द्वारा भेजी गई रिपोर्ट के आधार पर उक्त राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा सकता है। राष्ट्रपति शासन कई अन्य परिस्थितियों में भी लगाया जा सकता है जो राज्य की रक्षा के लिए मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर राष्ट्रपति को संतुष्टिकारक लगता है।
२) दूसरा, जब संवैधानिक तंत्र किसी राज्य में विफल हो जाता है तब उस राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है। संवैधानिक तंत्र की विफलता उस स्थिति को संदर्भित करती है जब राज्य सरकार संविधान के प्रावधानों का पालन करते हुए अपने कार्यों/दायित्वों को पूरा नहीं कर पा रही है।
किसी राज्य का राज्यपाल, राष्ट्रपति के अधीन कार्य करता है और राष्ट्रपति केंद्र में रह रहे दल से संबंधित मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर कार्य करता है, इसलिए, ये माना जाता है कि “राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति को प्रेषित की गयी रिपोर्ट के केंद्र में रह रहे दल के हितों और एजेंडे से प्रभावित होने की बहुत अधिक संभावना रहती है” और १९४७ से लेकर अब तक का भारत का इतिहास इसका साक्षी है। अब अगर हम उदाहरण के तौर पर देखे तो, पीएम के रूप में स्व. श्रीमती इंदिरा गांधी के पास सबसे अधिक बार राष्ट्रपति शासन लगाने का रिकॉर्ड है और ९० % परिस्थितियों में, राष्ट्रपति शासन, स्व. श्रीमती इंदिरा गाँधी जी द्वारा उन राज्यों में लगाया गया था जो विपक्षी दलों द्वारा शासित थे या उन राज्यों में जो उनकी पार्टी के हितों के अनुसार नहीं चल रहे थे।
S.R. Bommai vs Union Of India on 11 March, 1994(1994 AIR 1918, 1994 SCC (3) 1)
भारतीय संविधान कानूनी और सामाजिक दोनों स्वरूप को धारण करने वाला दस्तावेज है। यह देश के शासन के लिए एक मशीनरी प्रदान करता है। इसमें राष्ट्र द्वारा अपेक्षित आदर्श भी शामिल हैं। संविधान द्वारा निर्मित राजनीतिक तंत्र इस आदर्श को प्राप्त करने का एक साधन है।
बोम्मई मामले में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अनुच्छेद ३५६ के दुरुपयोग को लेकर गंभीर सवाल उठाए गए थे। इस मामले में, कर्नाटक के मुख्यमंत्री को राज्यपाल द्वारा फ्लोर टेस्ट में बहुमत साबित करने का मौका देने से पहले बर्खास्त कर दिया गया था और बाद में, राज्य पर राष्ट्रपति शासन लगाया गया था।
अत: उपर्युक्त केस पर निर्णय देते हुए आदरणीय सर्वोच्च न्यायालय की खंड पीठ ने ये कहा कि “अनुच्छेद ३५६ का सूक्ष्म विश्लेषण स्पष्ट रूप से इंगित करता है कि अनुच्छेद ३५६ के प्रावधान द्वारा प्रदत्त शक्ति “राज्यों में संवैधानिक तंत्र की विफलता के मामले में” प्रयोग करने योग्य है। यह राष्ट्रपति को इस बात से संतुष्ट होने पर शक्ति प्रदान करता है कि, “एक ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है” जिसमें राज्य की सरकार को संविधान के प्रावधानों के अनुसार ‘नहीं’ चलाया जा सकता है और यह कार्रवाई उसे संबंधित राज्य के राज्यपाल से रिपोर्ट प्राप्त होने पर ही करनी चाहिए या, अन्यथा’, यदि वह संवैधानिक तंत्र की विफलता के बारे में संतुष्ट है।
अनुच्छेद ३५६ (१ ) राष्ट्रपति को असाधारण शक्तियाँ प्रदान करता है, जिसका उसे संयम से और बड़ी सावधानी के साथ प्रयोग करना चाहिए, यदि वह सरकार की रिपोर्ट से संतुष्ट हो या अन्यथा कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जिसमें राज्य की सरकार नहीं चलाई जा सकती है संविधान के प्रावधानों के अनुसार। इसमें जुड़े शब्द ‘अन्यथा’ का बहुत व्यापक महत्व है और इसे केवल कानून की अदालतों में साक्ष्य की स्वीकार्यता के लिए प्रासंगिक सिद्धांतों पर परीक्षण करने योग्य सामग्री तक सीमित नहीं किया जा सकता है। अनुच्छेद ३५६ (१) के तहत कार्रवाई करने से पहले राष्ट्रपति के सामने रखी जा सकने वाली सामग्री की प्रकृति के बारे में भविष्यवाणी करना अत्यंत ही मुश्किल है। इसके अलावा, चूंकि राष्ट्रपति से अपनी व्यक्तिपरक संतुष्टि के लिए अपने कारणों को दर्ज करने की उम्मीद नहीं की जाती है, इसलिए न्यायालय के लिए यह पता लगाना भी उतना ही मुश्किल होगा कि उक्त प्रावधान के तहत शक्ति के प्रयोग के लिए राष्ट्रपति को क्या आधार दिए गए।
न्यायालय ने कहा कि आम तौर पर राष्ट्रपति की संतुष्टि संदिग्ध नहीं होती है लेकिन राज्यपाल की रिपोर्ट की जांच राष्ट्रपति की संतुष्टि के आधार का पता लगाने के लिए की जा सकती है।
आइये देखते हैं कि वर्ष १९५० से लेकर अब तक कांग्रेस ने और विपक्ष ने कितनी बार अनुच्छेद ३५६ का उपयोग या दुरुपयोग किया :-
१) जवाहर लाल नेहरू इनका कार्यकाल ८ अगस्त १९४७ से लेकर मई १९६४ तक रहा और इन्होने कुल ८ बार अनुच्छेद ३५६ का उपयोग किया।
२) स्व. श्रीमती इंदिरा गाँधी इनका कार्यकाल जनवरी १९६६ से मार्च १९७७ तक तथा जनवरी १९८० से अक्टूबर १९८४ तक रहा और इस दौरान इन्होने कुल ५० बार अनुच्छेद ३५६ का उपयोग किया |
३) स्व. श्री राजीव गाँधी, इनका कार्यकालअक्टूबर १९८४ से लेकर दिसंबर १९८९ तक रहा और इस दौरान इन्होने ६ बार अनुच्छेद ३५६ का उपयोग किया।
४) स्व. श्री पी. वी. नरसिम्हाराव, इनका कार्यकाल जून १९९१ से मई १९९६ तक रहा इस दौरान इन्होने ११ बार अनुच्छेद ३५६ का उपयोग किया।
५) मनमोहन सिंह इनका कार्यकाल मई २००४ से मई २०१४ तक रहा और इस दौरान इन्होने १२ बार अनुच्छेद ३५६ का उपयोग किया।
विपक्ष का भी देख लो आप श्री मोरारजी देसाई ने १६ बार, श्री चौधरी चरण सिंह ने ४ बार, वि. पि. सिंह ने २ बार, चंद्रशेखर सिंह ने ५ बार, देवगौड़ा ने १ बार, स्व. श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने ५ बार अनुच्छेद ३५६ का उपयोग किया। अब दोस्तों मजे की बात ये है की वर्ष १९५० से लेकर अब तक करीब करीब १२४ बार राष्ट्रपति शासन लगाकर राज्य की सरकारों को बर्खास्त किया जा चूका है और इसमें से करीब ८७ बार अकेले कांग्रेस की सरकार ने किया तो अब आप समझ सकते हैं की संविधान को बचाने की आवश्यकता किसके शासन काल में अत्यधिक होनी चाहिए।