महर्षि वाल्मीकि, जिन्होंने प्रभु श्रीराम के जीवनकाल में हि उनका पावन जीवन वृत्त रच कर सम्पूर्ण रामायण के रूप मे अमूल्य धरोहर देने के लिए सभी देवताओं ने एक स्वर में चयनित किया था, वो जन्म से वाल्मीकि समुदाय से थे। महर्षि व्यास जिन्होंने महाभारत नामक दुनिया के सबसे बड़े ग्रंथ कि रचना कि वो भी जन्म से ब्राह्मण समाज से नहीं थे। माता शबरी जिनके प्रेम रस मे डूबे जूठे बेर को प्रभु श्रीराम ने बड़े हि प्रेम और स्नेह से ग्रहण किया था वो भी जन्म से ब्राह्मण या क्षत्रीय या वैश्य नहीं थी। निषादराज जिनका आतिथ्य प्रभु श्रीराम ने स्विकार किया था वो भी जन्म से ब्राह्मण नहीं थे।
हस्तिनापुर के महामंत्री विदुर भी दासीपुत्र थे। मगध पर शासन करने वाला नन्द वन्श भी जन्म से ब्राह्मण या क्षत्रीय नहीं था। भगवान बिरसा मुंडा हो या वो भील हो जिन्होंने महाराणा प्रताप का साथ दिया था अकबर के विरुद्ध क्या वो ज्न्म से ब्राह्मण या क्षत्रीय थे।संत शिरोमणि रविदास जी भी जन्म से ब्राह्मण नहीं थे।महात्मा फुले भी जन्म से ब्राह्मण नहीं थे। भारत रत्न बाबा साहेब श्री भीमराव रामजी अम्बेडकर भी जन्म से ब्राह्मण नहीं थे। कोलगेट जैसे ब्रांड को अपने दन्तकान्ति ब्रांड से उखाड़ फेकने वाले और पूरी दुनिया में पतंजलि का धूम मचाने वाले योग गुरु बाबा रामदेव भी जन्म से ब्राह्मण नहीं है। हमारे देश के हि नहीं पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा लोकप्रिय नेता श्री नरेन्द्र मोदी जी हों या हमारे देश के राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद जी हो इनमे से कोई भी जन्म से ब्राह्मण या क्षत्रीय नहीं था ।ऐसे एक दो नहीं अपितु लाखों उदाहरण मिल जाएँगे जिसमें व्यक्ति ने जन्म भले हि किसी भी कुल में लिया हो पर अपने कर्मो से उसने वो ऊचाइयां हासिल कि सारे विश्व ने उन्हें सम्मान प्रदान किया उनकी प्रशंसा कि।हमारे महान ग्रन्थ भी इसी तथ्य को स्थापित करते हैं। हमारे पूर्वजों ने वर्ण व्यवस्था हमें दी वो मुख्यत: व्यक्ति विशेष के कर्म से जुड़ी हुई थी।
दुनिया कि सबसे प्राचिन और पवित्र पुस्तक वेद हैं। ये इश्वर् की वाणी है। इन वेदों में भी कहीं भी जाती व्यवस्था की बात नहीं कि गई है अपितु कर्म विभाजित व्यवस्था की बात की गई है।
उदाहरण के लिए:-
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायतः ॥
(ऋग्वेद संहिता, मण्डल 10, सूक्त 90, ऋचा 12)
अब इसका शाब्दिक अर्थ कोई भी सामान्य ज्ञान रखने वाला व्यक्ति इस प्रकार निकाल सकता है:-“सृष्टि के मूल उस परम ब्रह्म का मुख ब्राह्ण था, बाहु क्षत्रिय के कारण बने, उसकी जंघाएं वैश्य बने और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुआ”। अब इसी अर्थ को लेकर मिथ्या अपवन्चना करने वाले कुकर्मी, विधर्मी और मलेच्छ सनातनधर्मीयों के मध्य घृणा फैलाकर उन्हें अलग थलग करने का प्रयास सदैव करते रहते हैं।
ऋग्वेद के उक्त सूक्त में जो स्थापित किया जा रहा है वो है वर्ण व्यवस्था और उसकी वास्तविकता निम्न प्रकार है:-
१:-मुख से ब्राह्मण वर्ण कि उत्पत्ती:- इसका अर्थ कि मनुष्य के रूप में जन्म लिया हुआ कोई भी जीव यदि सत्कर्मो का, सदाचार का, मानवीय सामाजिक व्यवहार का, शिक्षा के आदान प्रदान का या फिर मार्गदर्शक का कार्य करता है तो वह ब्राह्मण वर्ण का होता है। अत: इस प्रकार हम देखते हैं कि मुख ब्राह्मणोचित बौद्धिक कार्यों में संलग्नता का द्योतक है, जिसमें शारीरिक श्रम गौण होता है और मस्तिष्क का उपयोग अत्यधिक होता है।
2:-बाहु अर्थात भुजाओं से क्षत्रीय वर्ण:- हम देखते हैं कि यदि हमारे शरीर पर किसी प्रकार का आघात होता है, तब सबसे पहले हमारी भुजायें सामने आती हैं, ठीक उसी प्रकार कोई भी व्यक्ति जो समाज, देश और प्रजा की रक्षा के लिए तत्पर रहता है, युद्ध में भाग लेता है, दुश्मनों से लोहा लेता है। धर्म, सत्य और शांति के लिए युद्ध करता है और अपने देश/ राष्ट्र की रक्षा करता है, वो क्षत्रीय वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत आता है। ये ऐसे कार्य हैं जिनमें अच्छी शारीरिक सामर्थ्य के साथ प्रत्युत्पन्नमतिता की बाद्धिक क्षमता की आवश्यकता अनुभव की जाती है। प्राचीन ग्रंथों में इनको क्षत्रियोचित कार्य कहा गया है।
३:- जंघा से वैश्य वर्ण कि उत्पत्ती:- जिस प्रकार जंघा हमारे शरीर रूपी सरंचना को आधार प्रदान करती है ठीक उसी प्रकार जो कोई व्यक्ति व्यवसाय से सम्बन्धित कार्य जैसे, कृषी का व्यवसाय तथा इसके अतिरिक्त समस्त वाणिज्यिक कार्य जिससे राजस्व कि प्राप्ति होती है, राष्ट्र के खजाने में वृद्धि होती है और सामाजिक कार्यों कि पूर्ति करने हेतु कार्य करता है और राष्ट्र को आधार प्रदान करता है वो वैश्य वर्ण के अंतर्गत आता है। इन कार्यों में व्यापार विशेष के योग्य सामान्य बुद्धि की भूमिका प्रमुख रहती है और शारीरिक श्रम की विशेष आवश्यकता नहीं होती। इन्हें वैश्यों के कार्य कहा गया है।
४:- पैरों से शूद्र वर्ण कि व्यवस्था:- जिस प्रकार शरीर में गति के लिए पैरों कि आवश्यक्ता पड़ती है अर्थात एक स्थान से दूसरे स्थान पर शरीर को ले जाने कि आवश्यक्ता पड़ती है तब पैर हि कार्य करता हैं, उसी प्रकार किसी राष्ट्र कि समाजिक व्यवस्था के स्क्रू रूप से संचालन के लिए जो मेहनतकस व्यक्ति कार्य करते हैं, वे शूद्र वर्ण के अंतर्गत आते हैं। दूसरे शब्दों में कहें जिनमें अतिसामान्य प्रकार की बौद्धिक क्षमता पर्याप्त रहती है और जिनमें शारीरिक श्रम ही प्रायः आवश्यक होता है।
मनुस्मृति (जिसको निम्न कोटि कि निकृष्ट मानसिकता वाले मनोरोगियों ने बदनाम कर रखा है) में भगवान मनु ने भी उसी तथ्य को दोहराया है।
लोकानां तु विवृद्ध्यर्थं मुखबाहूरूपादतः ।
ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निरवर्तयत् ॥
(मनुस्मृति, अध्याय 1, श्लोक 31)
शाब्दिक अर्थ: समाज की वृद्धि के उद्येश्य से उसने (ब्रह्म ने) मुख, बाहुओं, जंघाओं एवं पैरों से क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र का निर्माण किया।
मनुस्मृति जन्म के आधार पर व्यवस्थित समाजिक व्यवस्था का कहीं भी समर्थन नहीं करती। महर्षि मनु ने मनुष्य के गुण-कर्म–स्वभाव पर आधारित समाजिक व्यवस्था की रचना कर के वेदों में परमात्मा द्वारा दिए गए आदेश का ही पालन किया है।
हमने ऋग्वेद और मनुस्मृति को देखा अब योगिराज महाप्रभु श्रीकृष्ण के मुख से व्यक्त किये गए गीता के पवित्र ज्ञान के अनुसार:-
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥ 14 ॥
सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है।॥ 14 ॥
भगवद गीता अध्याय ३ कर्मयोग।
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः॥ 41 ॥
हे परंतप! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किए गए हैं ॥ 41 ॥
भगवद गीता अध्याय १८ मोक्ष्सन्यस्योग।
भगवद गीता के अनुसार ब्राह्मण कौन है?
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥ 42 ॥
अंतःकरण का निग्रह करना, इंद्रियों का दमन करना, धर्मपालन के लिए कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध (गीता अध्याय १३ श्लोक ७ की टिप्पणी में देखना चाहिए) रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना, मन, इंद्रिय और शरीर को सरल रखना, वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना, वेद-शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के तत्त्व का अनुभव करना- ये सब-के-सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं ॥ 42 ॥ अध्याय १८
भगवद गीता के अनुसार क्षत्रीय कौन है?
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्॥ 43 ॥
शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वामिभाव- ये सब-के-सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं ॥ 43।। अध्याय १८
भगवद गीता के अनुसार वैश्य और शूद्र कौन है?
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्॥ 44 ॥
खेती, गोपालन और क्रय-विक्रय रूप सत्य व्यवहार (वस्तुओं के खरीदने और बेचने में तौल, नाप और गिनती आदि से कम देना अथवा अधिक लेना एवं वस्तु को बदलकर या एक वस्तु में दूसरी या खराब वस्तु मिलाकर दे देना अथवा अच्छी ले लेना तथा नफा, आढ़त और दलाली ठहराकर उससे अधिक दाम लेना या कम देना तथा झूठ, कपट, चोरी और जबरदस्ती से अथवा अन्य किसी प्रकार से दूसरों के हक को ग्रहण कर लेना इत्यादि दोषों से रहित जो सत्यतापूर्वक पवित्र वस्तुओं का व्यापार है उसका नाम ‘सत्य व्यवहार’ है।) ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं तथा सब वर्णों की सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है ॥ 44 ॥ अध्याय १८
तो इस प्रकार हम देखते हैं कि चाहे वो ईश्वर कि वाणी वेद हो या मनुस्मृति हो या फिर भगवद गीता का पवित्र ज्ञान कहीं भी जाती व्यबस्था का उल्लेख नहीं है। और यही नहीं लाखों उदाहरण ऐसे मिल जाएँगे जब एक व्यक्ति ने अपने कर्मो के आधार पर अपनी वर्ण व्यवस्था बदल ली भले हि उसका जन्म किसी भी वर्ण के कुल में हुआ था।
वर्णों में परिवर्तन:
शूद्रो ब्राह्मणतां एति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम् ।
क्षत्रियाज्जातं एवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च।।
मनुस्मृति १०.६५(10.65): ब्राह्मण शूद्र बन सकता और शूद्र ब्राह्मण हो सकता है। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य भी अपने वर्ण बदल सकते हैं।
शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुर्मृदुवागनहंकृतः।
ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यं उत्कृष्टां जातिं अश्नुते।।
मनुस्मृति ९.३३५(9.335): शरीर और मन से शुद्ध- पवित्र रहने वाला, उत्कृष्ट लोगों के सानिध्य में रहने वाला, मधुरभाषी, अहंकार से रहित, अपने से उत्कृष्ट वर्ण वालों की सेवा करने वाला शूद्र भी उत्तम ब्रह्म जन्म और द्विज वर्ण को प्राप्त कर लेता है।
अत: अब प्रश्न ये उठता है कि आखिर या जाती व्यवस्था आयी कँहा से।
मित्रों हर युग में कुछ लोभी व निम्न कोटि कि निकृष्ट मानसिकता वाले मनोरोगी सनातन धर्म में पैदा होते रहे हैं, जिन्होंने ने अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए सनातन धर्म को तोड़ने से कभी गुरेज नहीं किया।इन्हीं विश्वासघातीयों ने कभी हुण प्रजाति के राक्षसौं के साथ मिलकर, कभी अफगानों के साथ मिलकर, कभी पुर्तगलियों, कभी फ्रांसीसियों, कभी मुगलो तो कभी अंग्रेज ईसाइयों के साथ मिलकर वर्ण व्यवस्था को जातिगत व्यवस्था में बदलने में मुख्य भूमिका निभाई। इन्हीं विश्वासघातीयों ने सनातन धर्म कि पवित्र पुस्तकों मे धूर्तता के साथ मिलकर प्रदुषण फैलाया और फिर सनातन धर्मियों के ह्रदय मे विष स्थापित कर दिया।
वर्ष २०१४ में एक राष्ट्रवादी व्यक्ति ने अपनी महानता से हम सनातनधर्मीयों को एकत्र किया जिसका परिणाम ये निकला कि हमने एकजुट होकर प्रयास किया और पूरे विश्व् में अपना परचम फहराया जो पूरे शान से लहरा रहा है। परन्तु अब तो कई विश्वासघाती निच, कपटी, धूर्त व हरम कि पैदाईश एक बार पुन: ना केवल सनातन धर्म को बाटने कि कोशिश कर रहे हैं अपितु अब तो कुछ बेगैरतों ने जातिगत आधार पर जनगणना भी कराने कि माँग शुरू कर दी है।
It is very dangerous for us just like English language.
जय सियाराम वंदे मातरम
नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)