हम और आप जब भी वीणा की धुन के साथ नारायण नारायण सुनते हैं तब अनायास ही, स्वतः ही श्रीहरि प्रभु विष्णु के अनन्य भक्त, सृष्टी के प्रथम यशस्वी पत्रकार, संगीतकारों के अग्रदूत, वैदिक ऋषि, सदैव भ्रमणशील होने का वरदान प्राप्त, ब्रह्मा जी के मानस पुत्र देव ऋषि नारद जी की याद दिमाग में आये बिना नहीं रहती। जिसका एकमात्र कारण है उनका सब समय श्रीमन्नारायण का भजन करते हुए निरंतर चलायमान रहना। ऐसे त्रिकालदर्शी जिनका देवताओं और असुरों दोनों में पूजनीय स्थान है, का जन्म ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा वाले दिन हुआ था। देवर्षि नारद को श्रुति-स्मृति, इतिहास, पुराण, व्याकरण, वेदांग, संगीत, खगोल-भूगोल, ज्योतिष और योग जैसे कई शास्त्रों का प्रकांड विद्वान माना जाता है।
अब आपके ध्यान्नार्थ प्रस्तुत करता हूँ ब्रह्मऋषि नारद जी से जुड़े, अनेकों में से कुछ रोचक पौराणिक घटनाएं-
सतयुग और त्रेतायुग काल में ब्रह्मऋषि नारद जी ने अनेकों महत्वपूर्ण कार्यों में योगदान दिया है जिसमें प्रमुख हैं- माता श्री लक्ष्मीजी का विवाह प्रभु विष्णुजी के साथ, प्रभु शिवजी का विवाह देवी पार्वतीजी के साथ, इन्द्र को समझा बुझाकर उर्वशी का पुरुरवा के साथ परिणय संबंध स्थापित करवाना, महादेवजी द्वारा जलंधर का विनाश करवाना, आदिकवि महर्षि वाल्मीकि जी को रामायण की रचना निर्माण की प्रेरणा देना, गुरु महर्षि वेदव्यासजी से भागवत की रचना करवाना, पिप्पलाद को समूचित दीक्षा देकर दीक्षित करना, ध्रुव और प्रह्लाद को ज्ञान देकर भक्ति मार्ग की ओर उन्मुख करना इत्यादि। इस सम्बन्ध में आप सभी के ध्यान्नार्थ बता दूँ की ब्रह्मऋषि नारद जी के ये सभी कृत्य सृष्टि संचालन में बहुत महत्व रखते आये हैं।
जैसा आप सभी जानते हैं, की नारदजी एक जगह टिकते ही नहीं। जिसका कारण है, उनको मिला एक श्राप! जो राजा प्रजापति दक्ष ने इनको उसके सभी 11 हज़ार पुत्रों को सभी प्रकार के मोह माया से दूर रहकर मोक्ष की राह पर चलना सीखा देने के परिणामस्वरूप दिया था। क्योंकि इस सीख के चलते ही इनमें से किसी ने भी दक्ष का राज पाट नहीं संभाला था।लेकिन ब्रह्मऋषि नारद जी ने इस श्राप को भी वरदान के रूप में काम में लेना शुरु कर दिया यानि एक लोक से दूसरे लोक में विचरण करते हुए सभी वर्गों के सभी प्रकार के कष्टों को प्रभु के समक्ष रख उन समस्याओं का हल निकलवा लाते थे। इसी कारण से यानि सभी वर्गों को साथ में लेकर चलने वाले कृत्य ने उनको सभी की दृष्टि में पूजनीय बना दिया।
आपको यह जानकर अवश्य ही आश्चर्य होगा कि देवर्षि नारद को आजीवन अविवाहित रहने का श्राप उनके मानस पिता बह्राजी ने क्रोध में उस समय दिया जब उन्होंने अपने पिता की विवाह कर लेने की आज्ञा का पालन करने से ही मना कर दिया।
संत गोस्वामी तुलसीदासजी ने श्री रामचरितमानस के बालकाण्ड में एक प्रसंग का उल्लेख किया है, जिसके अनुसार प्रभु को जब पता लगा यानि ध्यान में आया कि नारदजी को अहंकार आ गया है कि उन्होंने काम पर विजय प्राप्त कर ली है, तब उनकी भलाई के निमित्त प्रभु ने अपनी माया से एक नगर का निर्माण किया, जिसमें एक सुंदर राजकन्या का स्वयंवर चल रहा दिखाया गया। इसको जान नारदजी ने प्रभु से प्रार्थना की कि उन्हें इतना सुन्दर मुख दे दे ताकि वह सुंदर राजकन्या उन्हें पसंद कर ले तब प्रभु ने उनको बंदर का मुख प्रदान कर दिया। अब जब स्वयंवर में राजकन्या (स्वयं लक्ष्मीजी) ने प्रभु को वर लिया तब नारदजी ने अपना मुंह जल में देखा तो उनका क्रोध भड़क उठा और आनन फानन में नारदजी ने प्रभु विष्णु को ही श्राप दे दिया कि उन्हें भी पत्नी का बिछोह सहना पड़ेगा और वानर ही उनकी मदद करेंगे।
इस तरह नारदजी से जुडी और भी कथायें हैं। किन्तु यहाँ में एक अति रोचक वृत्तान्त बता रहा हूँ जिसके अनुसार एक बार नारदजी की मुलाकात पीपल के कोटर में बैठे एक बालक से होती है जो अपने बारे में कुछ भी बताने में असमर्थता जताता है। तब नारदजी ध्यान धर कर जान लेते हैं की यह बालक महान दानी महर्षि दधीचि का पुत्र है और ये ही तथ्य नारदजी उस बालक को बता देते हैं। फिर बालक के पूछने पर वो उसे बताते हैं कि तुम्हारे पिता की मृत्यु मात्र ३१ वर्ष की उम्र में ही हो गयी थी और उनकी अस्थियों का वज्र बनाकर ही देवताओं ने असुरों पर विजय पायी थी। इसके बाद बालक ने उनसे उसके पिताश्री की मृत्यु का कारण भी बता देने का आग्रह किया। तब नारदजी ने उसे बता दिया की तुम्हारे पिताजी की मृत्यु का कारण शनिदेव की महादशा थी और वही शनिदेव की महादशा के चलते ही तुमने भी इतने कष्ट भोगे हैं। इसके बाद नारदजी ने उसका नामकरण करते हुये “पिप्पलाद” नाम रख दिया। नामकरण करने के पश्चात उसे समुचित दीक्षा देकर, दीक्षित कर आशीर्वाद दिया कि एक दिन तुम बहुत बड़े ऋषि की श्रेणी में आ जाओगे। उसके बाद पिप्पलाद ने नारदजी के बताये अनुसार अविलम्ब ब्रह्मा जी की घोर तपस्या कर शनिदेव को उचित दण्ड दिया था। यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि शनिदेव का मनमानी और आत्माभिमानी भरा रवैया सृष्टि के चक्र में असंतुलन पैदा कर रहा था इसलिये त्रिकालदर्शी नारदजी ने ब्रह्माण्ड में सन्तुलन बनाये रखने के साथ साथ अल्पवयस्क बच्चों को शनिदेव की महादशा से मुक्त कर लेने के उद्देश्य को भी ध्यान में रख पिप्पलाद को माध्यम बना सृष्टि संचालन में अपना योगदान सुनिश्चित किया।
अब एक बहुत ही महत्वपूर्ण तथ्य आपको बता देना चाहता हूँ कि देवर्षि नारद को ब्रह्माण्ड का प्रथम पत्रकार कहा जाता है क्योंकि इन्हें तीनों लोकों में वायु मार्ग द्वारा विचरण करने का वरदान तो प्राप्त था ही, इसलिये ये तीनों लोकों में वीणा बजाते, नारायण नारायण करते, बिना किसी भेद भाव के सूचना पहुंचा देते थे। इसलिये ही भारत के अनेक स्थानों में इस अवसर पर बौद्धिक बैठकें तो आयोजित होती ही हैं उसके साथ साथ संगोष्ठियों और प्रार्थनाएं भी आयोजित कर, इस दिन को आदर्श मान पत्रकार बन्धुवों को अपने आदर्शों का पालन करने के साथ साथ समाज के लोगों के प्रति सम दृष्टिकोण और जन हितार्थ की दिशा में लक्ष्य रखने की और प्रेरित किया जाता है।
अन्त में देविर्षि नारद के सभी उपदेशों का निचोड़ जान लेना उचित रहेगा, जो इस प्रकार है- “सर्वदा सर्वभावेन निश्चिन्तितै: भगवानेव भजनीय:।” जिसका अर्थ है- सर्वदा सर्वभाव से निश्चित होकर केवल भगवान का ही ध्यान करना चाहिए।