Friday, March 29, 2024
HomeHindiयन्नेहास्ति न कुत्रचित्- अथ श्री महाभारत कथा

यन्नेहास्ति न कुत्रचित्- अथ श्री महाभारत कथा

Also Read

23 अप्रैल यानि विश्व पुस्तक दिवस है जब पूरा विश्व समुदाय अपने अपने स्तर पर अपनी अपनी तरह से पुस्तकों के महत्व पर, उनकी उपयोगिता पर चर्चा करता  है। भारत वर्ष तो साहित्य और पुस्तकों की अद्भुत भूमि रही है। शताब्दियों की पराधीनता में हमने जो बहुत कुछ खोया उनमें  सहस्त्रों ग्रन्थ और पांडुलिपियाँ भी थीं, जिन्हें कुछ आक्रान्ता चुरा ले गए, कुछ लूट ले गए और कुछ ने केवल नष्ट किया। नालंदा पुस्तकालय ऐसे ही एक आक्रान्ता द्वारा जला दिया गया था और इतिहासकारों का मत है कि वहां इतनी पुस्तकें थीं कि वो महीनों जलती रहीं। ये भारतीय ज्ञान को नष्ट करने का एक क्रूर प्रयास था।

ऐसा प्रयास केवल पुस्तकों को जलाकर, लूटकर, नष्ट करके किया गया हो ऐसा नहीं था। पुस्तकों के प्रति आम जन मानस में अरुचि उत्पन्न करना, पुस्तकों के प्रमुख कथन को उपहास के रूप में प्रस्तुत करना, कई महान साहित्यिक कृतियों  को धार्मिक पुस्तक की तरह प्रस्तुत कर समाज के बड़े वर्ग को उससे दूर रखना जैसे काम करके भी पहले आक्रान्ताओं और फिर वामपंथियों ने हमारी परंपरागत ज्ञान से ओत प्रोत पुस्तकों को नष्ट किया है।

कुछ उदहारण दृष्टव्य हैं, उत्तर भारत के कई प्रान्तों में यह आम धारणा है कि महाभारत न पढ़नी चाहिए न घर में रखनी चाहिए अन्यथा घर में महाभारत होती है और परिवार नष्ट हो जाता है।

ये मिथ्या प्रचार कब, किसने और किस कारण से किया होगा इसका पता लगाना अब दुष्कर है। यह निश्चित है कि यह हमें हमारे पारंपरिक और उज्जवल ज्ञान से विमुख करने के प्रयासों का ही अंग था।

एक ऐसा ग्रन्थ जिसके विषय में स्वयं श्री वेदव्यास कहते हैं, “यन्नेहास्ति न कुत्रचित्” अर्थात जो महाभारत में नहीं है वो कहीं नहीं है। जिस ग्रन्थ का उपक्रम मनुष्यों  को उनके अंतःकरण पर विजय प्राप्त कराने के लिए किया गया है, हम उसी को नहीं पढ़ते, न घर में रखते हैं।

इसी महाभारत का अंश है, श्रीमद्भागवत गीता जो विश्व में कर्मयोग और आत्मा की अमरता के ज्ञान का अनूठा  ग्रन्थ है उसे मानो उपहास का ग्रन्थ बना दिया गया है।

हम चलचित्रों में अपराधियों को गीता पर हाथ रखकर झूठी शपथ लेते देखते हैं या फिर शमशान में लिखा हुआ, “तुम क्या लेकर आए थे क्या लेकर जाओगे?” पारस्परिक चर्चा में भी प्रायः इन वाक्यों  का प्रयोग उपहासात्मक या व्यंग्यात्मक रूप से होता दिखता है।

जिस उपदेश ने विषाद ग्रस्त अर्जुन से गांडीव उठवा दिया वो लोग अपनी युवा संतान को पढ़ने नहीं देते, उन्हें लगता है ये कोई आयु है गीता पढ़ने की? सन्यासी बनना है क्या? कौन समझाएगा, गीता जीवन से दूर जाना नहीं सिखाती, जीवन से पलायन नहीं सिखाती, जीवन से जूझना सिखाती है।

इतना ही नहीं वामपंथ से प्रभावित कुछ लोगों ने तो ज्ञान –विज्ञान के उच्चतम शिखर वाले महाभारत के उस कालखंड को अंधा युग तक कह डाला। आधुनिक नारीवादसे प्रेरित लेखक-लेखिकाओं ने महाभारत की महिला पात्रों की कहानियों और उनके व्यक्तित्व को आधा अधूरा जानकार अनावश्यक और अभद्र टिप्पणियां तक कर डालीं।

विरोध करने को हमारे पास कुछ था नहीं क्योंकि हमने तो मूल ग्रन्थ कभी पढ़ा ही नहीं था।

समय है ज्ञान के इस महाकोश को पुनः खोलने का। विश्वास मानिये इसे घर में रखने से या पढ़ने से घर में कोई महाभारत नहीं होगी। गीता प्रेस ने इसे प्रकाशित किया है। खरीदें घर में रखें और पढ़े। गीता पढ्ने से आपको जीवन जीने का मार्ग और प्रेरणा मिलेगी। आप जीवन से कभी नहीं भागेंगे। अपनी  युवा संतानों को इसे समझने दीजिये।

क्या विश्व पुस्तक दिवस पर हम अपने केवल एक ग्रन्थ की प्रतिष्ठा की पुनर्स्थापना का कार्य कर सकते हैं?

  Support Us  

OpIndia is not rich like the mainstream media. Even a small contribution by you will help us keep running. Consider making a voluntary payment.

Trending now

- Advertisement -

Latest News

Recently Popular