बचपन से मम्मी के साथ स्टेट बैंक जाया करते थे, लम्बी लाइन में लगे पूरा दिन निकल जाता था. बाबू साहब लंच पे चले जाते, फिर पान खाने चले जाते. लोग लाइन में लगे रहते थे. शाम तक जैसे तैसे जब पैसा जमा कर के निकलते थे तो, बैंक का एहसान मानते हुए घर आते थे की अच्छा हुए बैंक ने पैसा रख लिया, वरना घर से चोरी हो जाता.
फिर २००४ में जब पहली नौकरी लगी, तो सैलरी अकाउंट खुला ABN AMRO BANK में, पहली बार पैसा जमा करने गए तो एक कन्या ने खुद से फॉर्म भरा, पैसे ले के गयी, जमा करा के पासबुक पे एंट्री कर के ला के दिया, तब पता लगा बैंकिंग ग्राहक पे एहसान नहीं सेवा है.
सवाल राष्ट्रीयकरण या निजीकरण का नहीं है.
सवाल है लोगों की उस नज़र की जिस से वो सरकारी नौकरी को देखते हैं. क्यों लोग आज भी बेटियों के लिए सरकारी नौकरी वाला दामाद देखते हैं, प्राइवेट बैंक का मैनेजर नहीं चाहिए, सरकारी बैंक का बाबू चलेगा.
आम तौर पे प्राइवेट में सरकारी से ज्यादा वेतन मिलता है परन्तु फिर भी लोग सरकारी नौकरी इस लिए खोजते हैं क्यूंकि उसमे काम नहीं करना पड़ता, अनुशासन में नहीं बंधना पड़ता, ऊपर से ऊपर की कमाई.
काम नहीं करोगे तो भी क्या हो जायेगा, ज्यादा से ज्यादा कोई निलंबित कर देगा, आप न्यायालय चले जाओगे, 2 घंटे में स्टे ले आओगे, आधा वेतन मिलता रहेगा, आप मटरगश्ती करते रहना, २० साल केस चलेगा, फिर भी सरकारी नौकरी बच ही जाएगी.
वहीं निजी कम्पनी में टारगेट होता है, deadlines होती हैं, ठीक से काम नहीं करोगे तो लात पड़ेगी और बाहर का रास्ता दिखा दिया जायेगा. अब ऐसे में यदि विश्व स्तरीय सेवाएं चाहिए तो निजीकरण ही उपाय है, निजीकरण सरकार के कठोर नियंत्रण में, सरकार की पैनी नज़र के नीचे.
आप चाहें तो अंगूर नहीं मिले इसलिए खट्टे कह के मेरा मजाक उड़ा सकते हैं, परन्तु मेरा मत है (आपका सहमत होना अनिवार्य नहीं)-
सरकारों का काम नियम कायदे बनाना, नीति निर्धारण, और उन नियमों का अनुपालन सुनिश्चित करना होना चाहिए सरकारों को स्वयं हर चीज़ के संचालन में में अपने हाथ नहीं डालने चाहिए.
शिक्षा और स्वास्थ्य कड़े नियमों के साथ अपवाद हो सकते हैं.
#ANIGAM