मनुस्मृति के ३/५६ भाग में उल्लेखित है- यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।।
यानी कि जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं और जहाँ स्त्रियों की पूजा नही होती है, उनका सम्मान नही होता है वहाँ किये गये समस्त अच्छे कर्म निष्फल हो जाते हैं।
अब यही से पाश्चात्य और भारतीय वैचारिक व नैतिक पक्ष में दो ध्रुव का अंतर स्पष्ट हो जाता है। हर साल की तरह अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की हुवाहुवा करके इंकलाब बुलंद किया गया और विश्वभर में बड़ी शौक से इस दिवस को मनाया जा रहा है, लेकिन क्यों मनाया जा रहा है इसकी विवेचना करनी चाहिए।
दरअसल अमेरिका की आजादी के करीब 100 वर्ष से अधिक बीत जाने के बाद भी महिलाओं को वोटिंग का अधिकार तक नहीं मिला था। इसके विद्रोह और अन्य कारणों को जोड़ते हुए मुट्ठी भर औरतें न्यूयॉर्क की सड़कों पर 1908 में उतर गई थीं। हतप्रभ करने वाला विषय यह है तब जाकर अमेरिका ने 1920 में महिलाओं को अपना मत देने का अधिकार दिया। मतलब अपनी आजादी के 144 वर्ष बाद, वहीं भारत में आजादी से पूर्व ही आंदोलन में मातृशक्ति की भागीदारी रही। वोटिंग अधिकार पर तो कोई संदेह ही नहीं रहा।
ठीक इसी तरह अन्य पश्चिम के देश जैसे रूस में भी 1917, जर्मनी और ब्रिटेन में 1918 तथा फ्रांस में बहुत बाद में वर्ष 1944 में महिलाओं को सहभागिता का अधिकार प्राप्त हुआ। वहीं स्विट्जरलैंड में वर्ष 1974 तक महिलाओं को वोट डालने के लिए इंतजार करना पड़ा, तबतक भारत में देश की पहली महिला प्रधानमंत्री मिल गई थीं।
इसलिए यह दिवस अमेरिका और यूरोप के लिए आवश्यक हो जाता है क्योंकि उन तथाकथित अधिक प्रगतिशील और खुला सोच वाले देश में नारियों को एक उपभोग की वस्तु से अधिक नहीं समझा जाता है।
भारत की संस्कृति में तो नारीशक्ति सत्ता शासन व्यवस्था से लेकर सभी क्षेत्रों में अनादि काल से सशक्त हिस्सेदारी रखी हैं। विद्या की देवी सरस्वती, धन की देवी लक्ष्मी, महारानी अवंतीबाई, विदुषी गार्गी, रानी लक्ष्मीबाई, महारानी झलकारी बाई, इंदौर की उदारमना शासक देवी अहिल्याबाई, गोंडवाना की शासक रानी दुर्गावती, रानी रुद्रम्मा देवी, रानी चेनम्मा, रानी और अनेकानेक उदाहरण हमारे समाज में मौजूद है।