Tuesday, April 16, 2024
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भारत का वामपंथ इतना पिछड़ा और पिछलग्गू क्यों?

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Nagendra Pratap Singh
Nagendra Pratap Singhhttp://kanoonforall.com
An Advocate with 15+ years experience. A Social worker. Worked with WHO in its Intensive Pulse Polio immunisation movement at Uttar Pradesh and Bihar.

साथियों आप सोच रहे होंगे कि मैं ये कैसा प्रश्न कर रहा हूँ, पर क्या करू, मैं जब भी भारत के वामपंथियों या कम्युनिस्टों के बारे में सोचता हूँ, अक्सर इनको कभी मार्क्सवाद कभी लेनिनवाद कभी माओवाद या फिर कभी कास्त्रोवाद के तलवे चाटते पाता हूँ!

मैने कभी भी भारत के वामपंथियों को मार्क्स, लेनिन, माओ या फिर कास्त्रो के मध्य खुद की औकात बनाते नहीं पाया। मंडी के क्षेत्र में काफी रिसर्च करने के बाद, कई बिंदु ऐसे निकल के आये जिन कारण से किसानो को नुकसान उठाना पड़ता है। इस पूरे शोध कार्य को अपने लोगो ने उत्तर प्रदेश के आलू किसानो के सन्दर्भ से किया है। आप स्वंय इनका पिछलग्गूपन /तलवेचाटने की प्रतिभा के दर्शन इनकी पार्टीयों के नाम से ही डर सकते हैं, उदाहरण के लिये:-

1:- सीपीआई (माले) अब इसमें “माले” का अर्थ है मार्क्सवादी लेनिनवादी।

2:- कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी)।

भारत में वामपंथ का उदय प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1919) के पश्चात हुआ! तत्कालिन महान क्रांतिकारी श्री नरेंद्रनाथ भट्टाचार्य उर्फ मानवेंद्रनाथ राय कम्युनिस्ट आंदोलन के संस्थापक माने जाते हैं, जिन्होंने  वर्ष 1919 ई. में मेक्सिको के बोल्शेविक मिसाइल बोरोदीन के साथ मिलकर “मेक्सिकन कम्युनिस्ट पार्टी” बनायी थी। उस समय अनेक क्रांतिकारी नेताओं जैसे अवनी मुखर्जी, एलविन ट्रेंट राय, मोहम्मद शफीक सिद्दीकी, मंडयन प्रतिवादी, भयंकर तिरूमल आचार्य इत्यादि ने मानवेंद्रनाथ काय के नेतृत्व में 17 अक्टूबर 1920 को रूस के ताशकंद में “भारतीय  कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना” की। श्री मानवेंद्रनाथ राय से लेकर वर्तमान के वामपंथी नेता श्री सिताराम येचुरी तक 100 वर्षो का काल बीत चुका है परंतु आज तक किसी भी वामपंथी में इतनी योग्यता नहीं आयी की वो मार्क्स, लेनिन, माओ या कास्त्रो की तरह स्वंय के सिद्धान्तों का प्रतिपादन कर सके और दुनिया को एक नये वाद से परिचित कराये।

आइये एक दृष्टि डालते हैं वामपंथ को जन्म देने वाले और उसे अपने सिद्धान्तों में ढाल कर संपूर्ण विश्व को अपनी शक्ति व सामर्थ्य का लोहा मनवाने वाले नेतावों पर

1:-कार्ल मार्क्स:- ये एक जर्मन दार्शनिक, अर्थशास्त्री, इतिहासकार, राजनीतिक सिद्धांतकार, समाजशास्त्री, पत्रकार और वैज्ञानिक समाजवाद के प्रणेता थे। इनका पूरा नाम कार्ल हेनरिख मार्क्स था। इनका जन्म 5 मई 1818 को त्रेवेस (प्रशा) के एक यहूदी परिवार में हुआ था।। 1824 में इनके परिवार ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया।वह हीगेल (जार्ज विलहेम फ्रेड्रिक हेगेल (1770-1831) सुप्रसिद्ध दार्शनिक थे।हेगेल की प्रमुख उपलब्धि उनके आदर्शवाद की विशिष्ट अभिव्यक्ति का विकास थी, जिसे कभी-कभी पूर्ण आदर्शवाद कहा जाता है, जिसमें उदाहरण के लिए, मन और प्रकृति और विषय और वस्तु के द्वंद्वों को दूर किया जाता है। उनकी आत्मा का दर्शन वैचारिक रूप से मनोविज्ञान, राज्य, इतिहास, कला, धर्म और दर्शन को एकीकृत करता है।) के दर्शन से बहुत प्रभावित थे।

कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र (जर्मन : Manifest der Kommunistischen Partei) वैज्ञानिक कम्युनिज़्म का पहला कार्यक्रम-मूलक दस्तावेज़ है !इसमें मार्क्सवाद और साम्यवाद के मूल सिद्धान्तों की विवेचना की गयी है। यह महान ऐतिहासिक दस्तावेज़ वैज्ञानिक कम्युनिज़्म के सिद्धान्त के प्रवर्तक कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने तैयार किया था और २१ फ़रवरी सन् १८४८ को पहली बार जर्मन भाषा में प्रकाशित हुआ था। इसे प्राय: साम्यवादी घोषणापत्र (Communist manifesto) के नाम से जाना जाता है। इसमें (वर्तमान एवं आधुनिक) वर्ग संघर्ष तथा पूंजी की समस्यों की विश्लेषणात्मक विवेचन किया गया है (न कि साम्यवाद के भावी रूपों की भविष्यवाणी)।मार्क्सवाद मानव सभ्यता और समाज को हमेशा से दो वर्गों -शोषक और शोषित- में विभाजित मानता है। माना जाता है साधन संपन्न वर्ग ने हमेशा से उत्पादन के संसाधनों पर अपना अधिकार रखने की कोशिश की तथा बुर्जुआ विचारधारा की आड़ में एक वर्ग को लगातार वंचित बनाकर रखा। शोषित वर्ग को इस षडयंत्र का भान होते ही वर्ग संघर्ष की ज़मीन तैयार हो जाती है। वर्गहीन समाज (साम्यवाद) की स्थापना के लिए वर्ग संघर्ष एक अनिवार्य और निवारणात्मक प्रक्रिया है।

\मार्क्स द्वारा प्रतिपादित वैज्ञानिक समाजवाद की विचारधारा को मूर्त रूप पहली बार रूसी क्रांति ने प्रदान किया। इस क्रांति ने समाजवादी व्यवस्था को स्थापित कर स्वयं को इस व्यवस्था के जनक के रूप में स्थापित किया। यह विचारधारा 1917 के पश्चात इतनी शक्तिशाली हो गई कि 1950 तक लगभग आधा विश्व इसके अंतर्गत आ चुका था।

2:-व्लादिमीर इलीइच उल्यानोव, जिन्हें लेनिन के नाम से भी जाना जाता है, (२२ अप्रैल १८७० – २१ जनवरी १९२४) एक रूसी साम्यवादी क्रान्तिकारी, राजनीतिज्ञ तथा राजनीतिक सिद्धांतकार थे। लेनिन रूस में बोल्शेविक की लड़ाई के नेता के रूप में प्रसिद्ध हुए। वह 1917 से 1924 तक सोवियत रूस के, और 1922 से 1924 तक सोवियत संघ के भी “हेड ऑफ़ गवर्नमेंट” रहे। उनके प्रशासन काल में रूस, और उसके बाद व्यापक सोवियत संघ भी, रूसी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा नियंत्रित एक-पक्ष साम्यवादी राज्य बन गया। लेनिन विचारधारा से मार्क्सवादी थे, और उन्होंने लेनिनवाद नाम से प्रचलित राजनीतिक सिद्धांत विकसित किए। सन् 1913-14 में लेनिन ने दो पुस्तकें लिखीं – “राष्ट्रीयता के प्रश्न पर समीक्षात्मक “विचार” तथा (राष्ट्रो का) आत्मनिर्णय करने का अधिकार।” पहली में उसने बूर्ज्वा लोगों के राष्ट्रवाद की तीव्र आलोचना की और श्रमिकों की अंतर्राष्ट्रीयता के सिद्धान्तों का समर्थन किया। दूसरी में उसने यह माँग की कि अपने भविष्य का निर्णय करने का राष्ट्रों का अधिकार मान लिया जाए। उसने इस बात पर बल दिया कि गुलामी से छुटकारा पाने का प्रयत्न करनेवाले देशों की सहायता की जाए।

3:- माओ से-तुंग या माओ ज़ेदोंग :- इनका जन्म २६ दिसम्बर १८९३ को तथा निधन ९ सितम्बर १९७६ को हुआ था! ये चीनी क्रान्तिकारी, राजनैतिक विचारक और साम्यवादी (कम्युनिस्ट) दल के नेता थे जिनके नेतृत्व में चीन की क्रान्ति सफल हुई। उन्होंने जनवादी गणतन्त्र चीन की स्थापना (सन् १९४९) से मृत्यु पर्यन्त (सन् १९७६) तक चीन का नेतृत्व किया। मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा को सैनिक रणनीति में जोड़कर उन्होंनें जिस सिद्धान्त को जन्म दिया उसे माओवाद नाम से जाना जाता है। माओ का कहना था कि 1. राजनीतिक सत्ता बन्दूक की नली से निकलती है। 2. राजनीति रक्तपात रहित युद्ध है और युद्ध रक्तपात युक्त राजनीति। 

4:- फिदेल ऐलेजैंड्रो कास्त्रो रूज़ :- इनका जन्म 13 अगस्त 1926  को तथा मृत्यु: 25 नवंबर 2016 को हुई! ये  क्यूबा के एक राजनीतिज्ञ और क्यूबा की क्रांति के प्राथमिक नेताओं में से एक थे, जो फ़रवरी 1959 से दिसम्बर 1976 तक क्यूबा के प्रधानमंत्री और फिर क्यूबा की राज्य परिषद के अध्यक्ष (राष्ट्रपति) रहे। 25 नवंबर 2016 को उनका निधन हो गया। कास्त्रो क्यूबा की क्रांति के जरिये अमेरिका समर्थित फुल्गेंकियो बतिस्ता की तानाशाही को उखाड़ फेंक सत्ता में आये थे। 1965 में वे क्यूबा की कम्युनिस्ट पार्टी के प्रथम सचिव बन गए और क्यूबा को एक-दलीय समाजवादी गणतंत्र बनाने में नेतृत्व दिया।

इस प्रकार हम देखते हैं कि, सभी नेताओं ने क्रांती के मार्ग पर निर्भिकता से आगे बढ़ते हुए ना केवल अपना अपितु अपने देश का गौरव व सम्मान पूरे विश्व में बढ़ाया।

यहाँ एक बार और ध्यान देने वाली यह है कि “ये सभी नेता व इनकी कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता संपूर्णत: राष्ट्रवादी व देशभक्त थे और हैं। ये कभी भी अपने देश के हित को ध्यान में रखकर ही क्रांती और शांती के आंदोलन की शुरुआत करते हैं। उदाहरण के लिये:- चीन के कम्युनिस्ट सदैव चीन की सभ्यता, भाषा व संस्कृति पर गर्व करते हैं तथा अन्य किसी सस्कृंति का प्रभाव उस पर नहीं पड़ने देते उसी प्रकार रूस व क्युबा जैसे कम्युनिस्ट देश भी हैं जो अपनी सभ्यता व संस्कृति की सुरछा  से कभी समझौता नहीं करते।

अब जरा हमारे यहाँ के कम्युनिस्टों के लछणों पर गौर करें:-

1:- बात चाहे 1962 में चीन की मक्कारी का उत्तर देने का हो या वर्तमान में चीन के साथ सीमा पर भयंकर युद्ध का वातावरण हो, ये अपने देश की नहीं अपितु चीन की ओर से लड़ने के लिए कमर कस के तैयार खड़े हैं।

2:- भारतवर्ष के सुनहरे इतिहास के साथ ना केवल इन्होने छल किया अपितु एक प्रकार से उसका अमानुषिक शिलभंग किया! मक्कारी और झूठ से भरा इतिहास तैयार कर दिया।

3:- भारतवर्ष की सभ्यता संस्कृति व भाषा से इन्हें जन्मजाती बैर है। ये अपना नाम अवश्य रखेंगे “सिताराम” येचुरी पर जय सियाराम या जय श्रीराम बोलकर अभिवादन करने में इन्हें शर्म आयेगी, इसे कम्यून मानेंगे।

4:- इन्हें सनातनधर्म के पवित्र ग्रंथों जैसे वेदों, पुराण, उपनिषदों, रामायण, महाभारत व गीता इत्यादि से नफरत है परंतु यूरोप और अरब से आये मजहबों को ये गले में डालकर घूमते हैं।

5:- सनातनधर्मी मान्यतावों को ये पिछड़ेपन की निशानी मानते हैं परंतु अन्य मजहबों के ढ़कोसलो में इनको विज्ञान दिखाई देता है।

6:- आतंकवादीयों, अलगाववादीयो, बालात्कारीयों व दंगाइयों का पछ लेना तो इनके लिए आम बात है, ये एक आतंकी को बचाने के लिये रात को 2 बजे सर्वोच्च न्यायालय को खुलवा के सुनवाई करा लेते हैं।

7:- देश व राज्य के विरूद्ध षड़यंत्र की रचना करना तो इनके बायें हाथ का खेल है!

पर ये सब स्वीकार होता, यदि इन कम्युनिस्टों ने पूरी दुनिया में भारत के कम्युनिस्टों के रूप में पहचान बनायी होती, कोई अपना अर्थात भारत की मिट्टी से निकला हुआ वामपंथ का सिद्धांत दिया होता…. 

पर ये तो कभी लेनिन के तलवे चाटते नजर आये तो कभी माओ के और तो और इन्हें जरा भी शर्म नहीं आयी जब ये कास्त्रो के भी चमचे बनकर उभर आये। इनकी हिन भावना से ग्रस्त प्रवृत्ति, तलवे चाटने की घृणित आदत और पिछलग्गूपन की प्रतिभा इतनी व्यापक है कि अब ये उत्तर कोरिया जैसे छोटे से देश के कम्युनिस्ट तानाशाह को भी अपना माई बाप मान बैठे हैं!आखिर हमारे देश के कम्युनिस्ट क्या एसी ही बेगैरती, बेआबरू व बेशर्मी वाला जीवन जीते रहेंगे?

क्या कोई एसा मानवेंद्रनाथ राय, कोई चारू मजूमदार कोई  कानू सान्याल, कोई ज्योती बसु या कोई एसा सिताराम येचुरी नहीं पैदा होगा जो भारत के अपने वामपंथी सिद्धांत को पूरे विश्व में मान्यता दिलायेगा और पूरा विश्व मार्क्स, लेनिन, माओ व कास्त्रो के साथ एक भारतीय का भी नाम लेगा।

नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)

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