बैरिस्टर मोहन दास करमचंद गाँधी जो अब महात्मा गाँधी के नाम से जाने जाते हैं आज अपनी अंतरआत्मा के साथ एक बेहद पेचीदा द्वन्द में उलझे हुए थे। उनका ह्रदय अपने देश को राजनितिक समूहों में बटा देख कर विगत कुछ वर्षो से बेहद दुखी हैं। उनका किसी पक्ष या विपक्ष से कोई लेना देना नहीं हैं। बुजुर्ग महात्मा देश के आमजन से जुड़े हर मुद्दे को विभिन्न गुटों के संघर्ष में दम तोड़ता देख दुखी रहते हैं। महात्मा आजीवन अहिंसावादी रहे हैं। इतने आदर्शवादी के कई बार अपने ही देश के लोगो के विरोध में अनशन तक कर चुके हैं।
उनके आदर्शो और प्रयासों का सम्मान करते हुए हर भारतवासी उन्हें पितातुल्य मानता है। ये सम्मान उन्होंने ने सत्य के साथ अपने प्रयोगो को करते हुए अकल्पनीय परिणामो को प्राप्त कर के कमाया है। बैरिस्टर साहब आत्मसम्मान को इंसान की सबसे बड़ी पूंजी मानते हैं। बैरिस्टरी छोड़ कर जनमानस के साथ जुड़ने का फैसला भी उन्होंने अपने आत्मसम्मान से जुडी एक घटना के बाद ही लिया। महात्मा महिला सम्मान के भी पुरजोर समर्थक रहे है। बाल विवाह, पर्दा प्रथा का विरोध हो या विधवा पुनर्विवाह, महिला शिक्षण का समर्थन, वो हर कदम पर महिलाओ को सम्मान दिलाने वकालत करते है। महात्मा अहिंसा को अपना सबसे बड़ा हथियार मानते रहे है अतः स्वाभाविक तौर पर उनके हर आंदोलन में महिलाओ की भरपूर भागीदारी रही है।
हर साल 2 अक्टूबर को महात्मा का जन्मदिन होता है। उन्हें पितातुल्य मानने वाले भारतवासी इस दिन को उत्सव की तरह मानते है। पर महात्मा ने इस बार अपना जन्मदिन ना मनाने का फैसला किया है। वो विगत कुछ दिनों से होने वाले महिला अत्याचारों से व्यथित हैं। उनका सबसे बड़ा दुुुख न्याय का घुुुट घुुुट कर दम तोड़ देेंना है। महात्मा जानते है इस तरह पीड़ित को न्याय नहीं मिलेगा। दुराचारियो का मनोबल और बढ़ेगा और समाज से महिला अत्याचार और बढ़ेंगे।
इन्ही अंतरद्वंदो के बीच महात्मा ने हाथरस जाने का फैसला किया। उन्होंने जो जानकारिया जुटाई थी उन से वो आश्वस्त थे की हाथरस में एक 20 वर्षीय युवती के बहुत बड़ा अत्याचार हुआ है। दुर्भाग्यवश युवती की मृत्यु हो चुकी थी। आनन फानन में उसका अंतिम संस्कार भी किया जा चूका था।
जैसे ही महात्मा हाथरस पहुंचे उन्होंने चमकते कैमरों की रौशनी से अंदाज़ा लगा लिया की पीड़ित परिवार का घर कौन सा है। चीखते चिल्लाते पत्रकारों के बीच सहमे बैठे कुछ लोगो को देख कर महात्मा आश्वस्त हो गए की यही उस युवती के परिजन है। गरीब के घर शायद इतनी रौशनी पहले कभी नहीं हुयी होगी, आज हुयी भी तो तब जब घर का चिराग बुझ चूका था। पत्रकारों के आतंक के बीच पुलिस वालो का रवैया भी भय का माहौल ही बना रहा था। पत्रकारों का कुछ न कुछ बुलवाने का प्रयास और पुलिस का कुछ न बोलने देने का दबाव अपने आप में परिवार के लिए अलग ही मानसिक वेदना थी। भुक्तभोगियों की ऐसी बेबसी देख कर महात्मा की आँखें आंसूओ नम हो गयी और वो अनायास ही बोल पड़े “हे राम”. वेेेदना हृदय में ही रहे तो अच्छी होती हैं अगर चेहरे पर आ जाये तो कुुछ लोगो का व्यवसाय बन जाती है। महात्मा की नम आंखों ने पत्रकारो को जैसे निमंत्रण पत्र भेेेज दिया।
अगले ही पल कुछ माइक और कुछ कैमरे महात्मा की ओर मुँह कर के खड़े हो गए। कुछ ऐसी होड़ लगी थी पहले खबर दिखाने की होड़ में कोई महात्मा को लड़की का चाचा तो कोई मामा और कोई ताऊ बताये जा रहा था।महात्मा असहयोग आंदोलन के दिनों में ज्यादा सहज थे। पर आज की व्यवस्था में वो चाह कर भी असहयोग करने में असमर्थ थे। जबरदस्ती का सहयोग उनके लिए कष्टकारी था। पर महात्मा अब समझ चुके थे की झूठ के बाज़ार की बनावटी बातो आपूर्ति कहाँ से और कैसे आती है। पीड़ परायी जानना किसी का मकसद नहीं था। युवती की मौत को बेच कर कुछ धन्ना सेठ अपनी जेबो को जिन्दा रखना चाहते थे। महात्मा के पास पत्रकारों का बढ़ता जमवाड़ा देख कर पुलिस भी सतर्क हो गयी थी। दरोगा जी अपने रौब में थे। उन्हें किसी की बेटी के जाने के गम से कोई सरोकार नहीं था। उनका काम बस किसी को भी परिवार के पास जाने से रोकना था। चाहे आने वाला जिन्दा हो या मुर्दा। बीती रात ही उन्होंने बिटिया के मृत शरीर को परिवार के पास आने से रोका था। दुःख एक मानवीय अवस्था है। ये पुलिस वाले भी तो इंसान ही है। क्या इनका ह्रदय नहीं पसीजा होगा। इन्ही विचारो से घिरे महात्मा दूर खड़े उस माँ बाप को देख रहे थे जिनका अपना जा चूका था और पराये अपना बनने का नाटक कर रहे थे। अब वो समझ गए थे कि न्याय की लडाई कीतनी मुश्किल है।
इन विचारों में डूबे गाँधी को ख्याल भी नहीं रहा होगा की आज 2 अक्टूबर है उनका जन्मदिन। वो 2 अक्टूबर जिसे हम एक ऐसे महापुरुष के जन्मदिवस के रूप में मनाते है जो अहिंसा का पुजारी था। वो राष्ट्रपिता जो महिलाओ के सम्मान के लिए मुखर था।
अगर हम डाटा पर नज़र डाले तो हर 15 में किसी न किसी महिला के साथ बलात्कार होता है। बलात्कार के साथ साथ हत्या की घटनाओ में भी तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। किस ओर जा रहे है हम। क्यो हम इतने बड़े जानवर बनते जा रहे है की हम अपनी हवस के लिए किसी को भी शिकार बना ले। अपनी हवस पूरी करने के बाद महिला की हत्या कर दें। ये कैसे लोग है तो ६ महीने की बच्ची से ले कर ९० साल की बुजुर्ग को भी नहीं छोड़ते। इंसान कितना भी पागल हो जाये पर वो कैसे भूल सकता है की उसे जन्म देने वाली माँ भी एक औरत है। उसे राखी बाँधने वाली बहिन भी एक औरत है।
बात सिर्फ हाथरस की नहीं है। दिल्ली के सुरक्षित माहौल में भी निर्भया के साथ अत्याचार हुआ। हैदराबाद जैसी महिलाओ के लिए सुरक्षित जगहों पर भी औरतो महिलाओ को शिकार बना लिया जाता है। मुंबई जैसे आधुनिक वातावरण में काम के नाम पर शोषण होता है। जरुरत मानसिकता बदले की है। जरुरत महिला सम्मान के लिए जागरूकता बढ़ने की है। बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों में कठोरतम सजा की व्यवस्था होनी चाहिए। कुछ न कुछ ठोस कदम उठाने की जरूररत है वरना अगला शिकार हमारे अपने घर से हो सकता है।
आज गाँधी हाथरस के किसी चौराहे पर खड़े हाँथ जोड़े आसमान की तरफ देख कर बस यही गुनगुना रहे है “ईश्वर अल्लाह तेरे नाम सबको सन्मति दे भगवान ……“
~ विभूति श्रीवास्तव (@graciousgoon)