Tuesday, October 15, 2024
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अरबन नक्सली थक हार कर अब सुप्रीम कोर्ट को अपमानित कर रहे हैं!

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Kumar Narad
Kumar Narad
Writer/Blogger/Poet/ History Lover

मामला अब मात्र प्रशांत भूषण के माफी मांगने तक सीमित नहीं रह गया है। यह एक बहाना है। उनका असली मकसद देश की संवैधानिक संस्थाओं के प्रति आम लोगों में अविश्वास की भावना विकसित करने के लिए एक नरैटिव तैयार करना है, जिससे लोगों के भीतर अपनी ही सरकार और संस्थाओं के प्रति भरोसा कम होता जाए।

उच्चतम न्यायालय की आलोचना में किए गए विवादास्पद ट्वीट्स के बाद न्यायालय की अवमानना में दोषी करार दिए गए विवादास्पद वकील प्रशांत भूषण इतने आत्ममुग्ध हो गए हैं कि अब खुद ही अपनी तुलना महात्मा गांधी और नेल्सन मंडेला से करने लगे हैं। हालांकि अभी तक यह सामने नहीं आया है कि वे कौन लोग हैं जिन्होंने उनकी तुलना महात्मा गांधी और नेल्सन मंडेला से की है। ट्वीटर पर लोग उनसे जानना चा रहे हैं कि आखिर वे कौन लोग हैं जो उनकी तुलना महात्मा गांधी और नेल्सन मंडेला से कर रहे हैं। स्वघोषित और आत्ममुग्ध प्रशांत भूषण का विवादों से पुराना संबंध रहा है। उनकी इस सनक में वे लोग भी शामिल हो रहे हैं, जिन्हें सरकारी गलियारों में तवज्जों नहीं मिलने से देश में लोकतंत्र पर खतरा नजर आ रहा है।   

हाल ही में प्रशांत भूषण ने दो ट्वीट किए थे। अपने पहले ट्वीट में उन्होंने लिखा था कि जब भावी इतिहासकार देखेंगे कि कैसे पिछले छह साल में बिना किसी औपचारिक इमरजेंसी के भारत में लोकतंत्र को खत्म किया जा चुका है, वो इस विनाश में विशेष तौर पर सुप्रीम कोर्ट की भागीदारी पर सवाल उठाएंगे और मुख्य न्यायाधीश की भूमिका को लेकर पूछेंगे। और दूसरे ट्वीट में उन्होने मुख्य न्यायाधीश पर निशाना साधा था जिसमें वह स्टैंड पर खड़ी बाइक पर बिना हेलमेट और मास्क लगाए बैठे थे। इन दोनों ट्वीट्स को उच्चतम न्यायालय ने अवमानना की श्रेणी में रखते हुए उन्हें अवमानना का दोषी पाया है और 25 अगस्त को उन्हें सजा सुनाई जा सकती है। अवमानना के दोषी पाए जाने पर प्रशांत भूषण माफी नहीं मांगते हुए खुद को महात्मा गांधी साबित करने में जुट गए। और समर्थन में हारे थके सैकड़ों लोग आ खड़े हुए।

सवाल यह है कि वर्तमान केंद्र सरकार के खिलाफ लगातार बयानबाजी करने वाले प्रशांत भूषण को आखिर पिछले छह वर्षों में ही लोकतंत्र पर खतरा क्यों नजर आ रहा है। मोदी सरकार के फैसलों पर लगातार सवाल उठाने और उन्हें अदालत तक ले जाने और वहां से मुंह की खाने के बाद प्रशांत बौखलाए हुए हैं। अरबन नक्सलियों से हमदर्दी रखने वाले प्रशांत भूषण ने राफेल मामले में अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा सरीखे नेताओं के साथ केंद्र को बदनाम करने और इसे बोफोर्स सरीखा मामला बनाने की भरपूर कोशिश की, मगर अदालत ने राफेल मामले में जांच की मांग वाली उन लोगों की सभी याचिकाओं को रद्द कर दिया था। और सौभाग्य से राफेल आज देश की रक्षा प्रणाली में शामिल हो गया है।

आतंकी और नक्सलियों से प्रशांत भूषण का प्रेम बहुत पुराना है। भीमा कोरेगांव हिंसा का अरबन नक्सलियों से गहरा संबंध था। और इन लोगों से प्रशांत भूषण की पुरानी हमदर्दी है। कई रिपोर्टों में इस बात को तथ्यों के साथ रखा जा चुका है कि कथित तौर पर मानवाधिकार कार्यकर्ता बनकर अरबन नक्सली कैसे देश को तोड़ने की साजिश में जुटे थे। लेकिन पुलिस ने समय पर उन्हें गिरफ्तार कर उनके षढ़यंत्रों को विफल कर दिया था। पुलिस के अनुसार सभी पर प्रतिबंधित माओवादी संगठन से लिंक होने का आरोप थे। पुलिस ने रांची से फादर स्टेन स्वामी , हैदराबाद से वामपंथी विचारक और कवि वरवरा राव, फरीदाबाद से सुधा भारद्धाज और दिल्ली से सामाजिक कार्यकर्ता गौतम नवलाख को गिरफ्तार किया था। लेकिन प्रशांत भूषण इन लोगों की गिरफ्तारी के लिए उच्चतम अदालत तक पहुंच गए थे। उन्होंने उनकी गिरफ्तारी की तुलना आपातकाल से की थी।

सनातन संस्कृति और राष्ट्रीय अखंडता पर नकारात्मक टिप्पणियां करना प्रशांत भूषण की पुरानी आदत रही है। लेकिन जागरूक समाज के कारण उन्हें हमेशा मुंह की खानी पड़ी है। लॉकडाउन के समय दूरदर्शन पर प्रसारित महाभारत और रामायण पर उनकी बेतुकी टिप्पणी के विरुद्ध एफआईआऱ पर उन्हें गिरफ्तारी से बचने के लिए उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ा था। प्रशांत भूषण  ने अपने एक ट्वीट में रामायण और महाभारत की तुलना अफीम से की थी।  

प्रशांत भूषण को कोई फर्क नहीं पड़ता कि आतंकी देश में निरपराधों को मौत की नींद सुला दे, लेकिन उनका प्रयास रहता है कि आतंकी को मानवीय आधार पर फांसी की सजा नहीं दी जाए। देश में पहली बार किसी आतंकी के लिए रात के तीन बजे अदालत खोली गई। 29 जुलाई 2015 को 3.20 बजे मुंबई सीरियल ब्लास्ट के दोषी याकूब मेमन की फांसी पर रोक लगाने की अर्जी पर सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट खोला गया था। प्रशांत भूषण समेत कई वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट में याकूब की फांसी रुकवाने को अर्जी दी थी। करीब तीन घंटे सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने अर्जी खारिज कर दी थी। बाद में याकूब मेमन को फांसी दी गई थी। उन्होंने 2008 के मुंबई हमले में शामिल अजमल कसाब को भी फांसी दिए जाने का विरोध किया था। मानवाधिकार का तथाकथित हितैषी प्रशांत भूषण को सिर्फ आतंकियों के मानवाधिकार ही क्यों ध्यान में रहते हैं?

ट्विटर पर प्रशांत भूषण खुद को महात्मा गांधी की कतार में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं। एक खबर का लिंक डालते हुए उन्हें ट्विट किया है- व्हेन गांधी रिफ्यूज्ड टू अपोलोजाइज एंड फेस्ड कंटेम्प्ट प्रोसीडिंग। 1919 के एक मामले में तत्कालीन बॉम्बे हाइकोर्ट ने गांधीजी के खिलाफ यंग इंडिया में एक पत्र प्रकाशित होने के मामले में गांधी जी के खिलाफ अवमानना की कार्रवाही की गई थी, जिसमें गांधीजी ने माफी मांगने से मना कर दिया था। इन मामले में प्रशांत भूषण खुद को ऐसे पेश कर रहे हैं जैसे माफी मांगना उनके चरित्र में नहीं है। लेकिन सच यह है कि प्रशांत भूषण का गलतियां करने और माफी मांगने का पुराना इतिहास है। इस वर्ष अप्रेल महीने में प्रशांत भूषण ने ट्वीट कर योग गुरु बाबा रामदेव से माफ़ी मांगी थी। प्रशांत भूषण ने अपने उस ट्वीट को लेकर माफ़ी मांगी थी जिसमें डिफॉल्टर और क़र्ज़माफ़ी को लेकर रामदेव का ज़िक्र किया था। इससे पहले अप्रेल 2017 में उत्तरप्रदेश सरकार के रोमियो स्क्वायड को लेकर भगवान श्रीकृष्ण पर अपमानजनक टिप्पणी के लिए भी उन्होंने सार्वजनिक तौर पर ट्वीट कर माफी मांगते हुए लिखा था अपने ट्वीट में लिखा है- ‘ट्वीट डिलीट करता हूं, मानता हूं लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंची’ 

राष्ट्रीय सुरक्षा को प्रभावित करने की प्रशांत हमेशा कोशिश करते रहे हैं और अपने बयानों से राष्ट्रीय सुरक्षा को चुनौती देते रहे हैं। वे नक्सल प्रभावित इलाकों में सुरक्षाबलों की तैनाती को लेकर जनमत संग्रह कराने की वकालत करते रहे हैं। उनका अजीब तर्क था कि सेना तैनाती से पहले इन इलाकों में लोगों की राय जरूर ली जाए, क्योंकि कश्मीर में बिना जनमत संग्रह के सेना तैनात की गई थी, इसलिए आज वहां तनाव है। अक्टूबर 2011 में कश्मीर पर दिए विवादित बयान पर आक्रोशिथ तीन लोगों ने प्रशांत भूषण को उनके चैंबर में पीट डाला था. तीनों ने पहले भूषण को थप्पड़ मारे, फिर उनका चश्मा छीन लिया था।

मामला अब मात्र प्रशांत भूषण के माफी मांगने तक सीमित नहीं रह गया है। यह एक बहाना है। अरबन नक्सल और राजनीति का अजीब किस्म का घालमेल इस वक्त नजर आ रहा है। और इनका असली मकसद देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति आम लोगों में अविश्वास की भावना विकसित करने के लिए एक नरैटिव तैयार करना है, जिससे लोगों के भीतर अपनी ही सरकार और संस्थाओं के प्रति भरोसा कम होता जाए।

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