भारत में वैष्णव जन की सुबह एक गीत के साथ होती है, “तेरा राम जी करेंगे बेडा पार, उदासी मन काहे को करे…नैया तेरी राम के हवाले, लहर लहर हरि आप ही संभाले, हरि आप ही उठावें तेरा भार उदासी मन काहे को करे”। इसके जैसे अनेकों सुरों में लोग प्रभु राम को अपनी शक्ति, साधन, आस्था, विश्वास तथा संकटों का समाधान मानते हैं। वस्तुतः राम गरीब के सबसे बड़े कवच हैं, और इसलिए भारत में संवैधानिक मान्यता प्राप्त शब्द “धर्मनिरपेक्षता” समाज के बड़े जनसमूह का मौलिक दर्शन नहीं है। भारत के धर्मनिरपेक्षता का भाव सः अस्तित्व में है, जिसका दर्शन पश्चिमी विचार से विलग है। भारत में दो शब्द सबसे व्यापक रूप से राजनीति में इस्तेमाल किये गए हैं गरीब तथा राम। देश का हर राजनीतिक दल गरीब तथा राम पर अपनी विशिष्ट राय रखता है, और इसलिए ये दोनों आज़ाद भारत में विवाद के मध्य में हैं? लेकिन इन विवादों के बीच राम की मर्ज़ी और गरीब का जीवन एक दुसरे के पूरक के भाँती सरयू में बहते जाते हैं।
भारत में लोग अपने अपने सुरों में धर्मनिरपेक्षता के विवाद के बीच अपना समर्पण राम के प्रति रखते हैं। वस्तुतः भारत के लोग धुनी राष्ट्र का निर्माण करते हैं, क्यूंकि राम जीवन का आधार हैं, और राम मंदिर का निर्माण वास्तव में करोड़ों आस्था तथा असंख्य विश्वास की जीत है। भारत के वास्तविक स्वरुप पर विगत 100 वर्षों में सिर्फ एक बार चर्चा हुई जब गोपाल कृष्ण गोखले ने गाँधी के भारत लौटने पर भारत भ्रमण करके भारत के आत्मा को समझने के लिए कहा था। गाँधी भारत के सबसे सफल नेता इसलिए ही बन पाए क्यूंकि उन्होंने फ़कीर के वेश में भारत का भ्रमण किया और उसके मूल तत्व को आत्मसात किया। गाँधी राम के बहुत निकट थे, और “हे राम” कहते हुए वे दुनिया से रुक्सत हुए। उनके कांग्रेस में कमजोर पड़ने के बाद की हरेक घटना सिर्फ और सिर्फ सत्ता का गलियारा है, जिसमें लोकतंत्र भटक रहा है। एक पंथनिरपेक्ष राष्ट्र कांग्रेस तथा वामपंथ के अकाट्य संबंधों के माध्यम से एक ख़ास वोट बैंक को समेटने में लगा रहा और बहुसंख्यक को जातियों में बाँट कर उसको जड़ों से कमजोर करता रहा। वस्तुतः मर्यादा पुरुषोत्तम राम का ना होना संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता के लिए अनिवार्य बनाने में कोई कसर कांग्रेसी या वामपंथी इतिहासकारों तथा बुद्धिजीवियों ने नहीं छोड़ी है। राम की मर्यादा तो सामंजस्य की थी और ये लोग भारत के उसी सामंजस्य को तोडना चाहते हैं।
राम की संकल्पना जातियों के संकीर्ण कल्पना से ऊपर हैं, और वैचारिक तौर पर यह दुनिया का सबसे श्रेष्ठ मानव धर्म का धोतक के रूप में प्रतिष्ठित है। शबरी और केवट की कहानियां उनके समरसता के सिद्धांत को रेखांकित करती हैं। भारत की राजनीति में धर्म को व्यक्तिगत अवधारणा के रूप में स्थापित करने की कल्पना नेहरु ने की थी, परन्तु वे पश्चिम के अंध भक्त थे। लेकिन भारत की राजनीति के सबसे महत्वपूर्ण घटक जाति के दोहन में कोई पीछे नहीं रहा। धर्मनिरपेक्षता की आड़ में भारत को लुटने वाले सभी लाभुको ने भारत के जातिय अवधारणा का दोहन किया है। अगर धर्म सरकार तथा जनता को पथभ्रस्ट बनाती हैं, तो जातियां भी नीतियों में अनावश्यक रुझान पुलकित करती हैं। क्या जाति धर्म के भांति व्यक्तिगत नहीं होती? सरकार की नीति निर्माण में धर्म अगर अड़ंगे लगाता है, तो जातियां लंगड़ी मारती हैं। इसमें किसी प्रकार का संदेह तो नहीं है? इसलिए कांग्रेस तथा उसके वामपंथी इकोसिस्टम में भारत की व्याख्या करने वाली सोंच में गलती है।
भारत ऐतिहासिक रूप से एक सांस्कृतिक महत्त्व का देश है। इसकी ख्याति इसी में है, की भारत के किसी भी कोने का कोई ना कोई वर्णित सांस्कृतिक इतिहास है शंकराचार्य ने भारत की भूमि को 4 शिवालयों से जोड़ा था, बाद में शक्ति के उपासकों ने 52 शक्ति पीठों की स्थापना की और अयोध्या विष्णु की जन्मस्थली के रूप में प्रतिष्ठित है। भारत का आतंरिक पर्यटन तो पूर्णतया इन्ही स्थलों के इर्द गिर्द मंडराती है। भारत के सन्दर्भ में विश्व पर्यटन काउंसिल का भारतीय चैप्टर के गणना के अनुसार वर्ष 2018 में भारत में पर्यटन का आर्थिक तंत्र 16.91 लाख करोड़ का है, जो भारत के कुल जीडीपी का 9.2% है। इस वर्ष में पर्यटन में कुल 42.67 मिलियन नौकरियां पैदा हुई थीं। यह धोतक है की पर्यटन भारत में एक नैसर्गिक उद्योग के रूप में उभरा है, और इसमें आर्थिक उन्नति की जबरदस्त संभावनाएं हैं।
उपरोक्त आंकड़े दर्शाते हैं की भारत में लोग किसी अवस्था में ईश्वर का साक्षात्कार करना चाहते हैं और इसके लिए वे सभी प्रकार के कष्ट झेलकर उनके सानिध्य में जाना चाहते हैं। लोग मथुरा क्यूँ जाते हैं, लोग वाराणसी, तिरुवंतपुरम, सोमनाथ, केदारनाथ, उज्जैन, अवंतिका, हरिद्वार, गुवाहाटी, विन्ध्याचल, पुरी, कोणार्क, द्वारिका, रामसागर, कोलकाता क्यूँ जाते हैं? ईश्वर के प्रतिमाओं के अलावा क्या मिलता है वहां? क्या ये शहर यहाँ अवस्थित मंदिरों के बाद किसी अन्य विषय के लिए याद किये जा सकते हैं? भारत श्रद्धा का देश है और श्रद्धा ही यहाँ की जीवनधारा है, नहीं तो गाँधी ने अपने मृत्यु के कुछ दिन पहले सुशीला नैयर को दिए अपने इंटरव्यू में यह नहीं कहा होता की “यह देश किसी संवैधानिक नियम कानून से नहीं चलाया जा सकता, यहाँ का जनमानस स्वयं संचालित है और धर्म के अटूट रिश्ते से बंधा है और स्वविवेकी होने के कारण गलत और सही का निर्णय लेने में सक्षम है”। भारत अगर स्वचालित नहीं होता तो आज संवैधानिक शासन में जिस प्रकार की कमियां हैं, आज गृह युद्ध जैसे हालात नहीं बन जाते? क्या आजाद भारत में संविधान ने अपने होने का एहसास कराया है? क्या भारत में संविधान ने समानता, भाईचारा, सर्वशिक्षा, शोषण मुक्त समाज जैसे अपने प्राथमिक कर्तव्यों का निर्वहन कर लिया है? इसका जवाब सीधा ना है। फिर प्रश्न उठता है की यहाँ जीवन इतनी गतिशीलता से कैसे संचालित है? “मेरा मानना है राम से”। फिर ऐसे राम का विरोध क्यों?
अयोध्या में मंदिर निर्माण के पक्ष में आये सुप्रीम फैसले ने पश्चिमी शिक्षा से अलंकृत भारतीय लोगों की कलई खोल दी है। ये समूह जिसमें इरफ़ान हबीब, रोमिला थापर, आर.एस.शर्मा, प्रशांत भूषण जैसे संकीर्ण तथा स्वार्थी तत्व हैं उनको इतना हल्का बना दिया है की ये अब समाज में असामाजिक जैसे दिखने लगे हैं। इनका मौलिक लक्ष्य नेहरूवियन धर्मनिरपेक्षता का बचाव भी नहीं थी। अगर यह सच्चाई होती तो इन्हें सामजिक स्वीकार्यता मिल जाती लेकिन इन्हें वह स्वीकार्यता नहीं मिली, क्यूंकि लोगों ने मान लिया था की इनकी लेखनी का दर्शन भारत में राम के अस्तित्व को नकारने वाले कांग्रेस पोषित वामपंथी तथा जाति आधारित अन्य सेक्युलर दलों की मदद करना और संगठित लूट तथा राजनितिक भ्रस्टाचार के माध्यम से उगाही किये गए पैसे तथा विलासिता के जीवन में अपना हिस्सा कमाना था।
लोकतंत्र का सबसे मजबूत स्तम्भ न्याय है। वह न्याय भी दुनिया ने राम से ही सीखी थी सबकी बात ससम्मान सुनी जाए, उसका आदर हो तथा न्याय की स्थापना करने के लिए ही, उन्होंने अपनी धर्मशीला सीता को भी विलग कर दिया था। इसी कर्तव्य बोध ने राम को दुनिया के सबसे बड़े न्यायमूर्ति के रूप में स्थापित किया है। आज के प्रपंची न्यायालय को अपनी जेब में लिए 30 वर्षों तक घूमते रहे और राम के नाम पर अपनी जेबें भरते रहे हैं। सारा जग हारने के बाद भी ये अब प्रधानमंत्री के अयोध्या आगमन का विरोध कर रहे हैं। भारत का यह प्रपंची अभिजात्य वर्ग त्याज्य हो चला है और तिरस्कृत है। “कौन सुनेगा किसको सुनाएँ इसलिए चुप रहते हैं” जैसे गीतों में खोकर इन प्रपंचियों के विदा होने का समय आ चूका है।
राम भारत की भाग्यविधाता हैं, राम ही सागर हैं, संगीत हैं तथा चिरंतन नायक हैं। राम के विचार से अगर देश का सञ्चालन हो तभी राम राज्य आ पायेगा। राम के विचार लक्ष्मण को रावण से भी शिक्षित करने की रही थी। अगर हमें वास्तव में तेजस्वी भारत का निर्माण करना है तो राजनीतिक दलों को राम राज्य पर लिखें काव्यों को ठीक से पढ़ना होगा, और उसी के सापेक्षता में भारत को गढ़ना होगा क्यूंकि भारत का मौलिक दर्शन वही है। लेकिन अगर कल्पना राम राज्य की नहीं है तो मंदिर भी बेकार है, क्यूंकि नायक मूर्तियों का अभिलाषी नहीं है।