जरा सोचिये उस मौर्यकालीन बिहार के बारे में, जो उस समय देश का सबसे शक्तिशाली और समृद्ध क्षेत्र हुआ करता था। आचार्य चाणक्य ने कल्पना भी नहीं की होगी कि विदेशी आक्रांता और देशी राजनीति उनके बिहार को गरीबी, अशिक्षा, बीमारी, अपराध, भ्रष्टाचार और जातिवाद से इस तरह संक्रमित कर देगी।
कोरोना:
22 मार्च 2020, को बिहार का पहला कोरोना केस मुंगेर में पाया गया। ऐसा माना जाता है कि जिस 38 वर्षीय व्यक्ति को संक्रमित पाया गया उन्होने कतर की यात्रा की थी, फल्स्वरूप इन महानुभाव के कारण ढेरों लोगों में तेजी से संक्रमण फैल गया।
देश के विभिन्न हिस्सों से अपने गांंवों में लौटे प्रवासी मज़दूरों के कारण बिहार में कोरोना के मामले तेजी से बढ़े। ढेरों मज़दूर बिना स्थानीय अधिकरियों को जानकारी दिए सीधे अपने घरों में चले गये। सीमावर्ती और स्थानीय अधिकारियों की लापरवाही के कारण कोरोना छोटे शहरों और गावों तक भी पहुंच गया।
खबरों के अनुसार बक्सर की एक घटना है, जहाँ खैनी बांट कर खाने और साथ बैठ कर ताश खेलने के कारण कई लोग कोरोना से संक्रमित हो गये। लगातार ऐसी खबरें आती रही हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूल या अन्य भवन जिन्हें क्वारंंटाइन सेंटर के रूप में प्रयोग किया जा रहा था, सामान्य सुविधाओं (बिजली, पानी, बेड और खाने ) की समुचित अव्यवस्था के कारण कई प्रवासी 14 दिन का आवश्यक क्वारंटाइन पूरा किए बिना ही वहाँ से चले गये।
बिहार स्वास्थ्य विभाग के अनुसार बिहार में कोरोना के मामले 48,000 से अधिक हो गये हैं जिनमें सक्रिय मामले 16,000 से अधिक हैं। कोरोना से निपटने में अक्षमता ने राज्य सरकार के चिकित्सा व्यवस्था की पोल खोल कर रख दी है। स्वास्थ्य कर्मियों की लापरवाही, पीपीई किट्स, अस्पताल, बेड, वेंटिलेटर, इम्यूनिटी बढ़ाने वाली दवाओं की कमी और कम टेस्टिंग की वजह से बिहार में कोरोना बेकाबू नज़र आ रहा है। सरकार के पास अभी तक इसको लेकर कोई प्रभावी योजना नहीं है, वहीं प्रशासन अभी तक छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग का सख्ती से पालन करवाने में नाकाम रही है।
बाढ़:
बहुत कुछ छूट गया,बहुत कुछ टूट गया
जो बनाये थे, हाथों से घरौंदे अपने
वो दरिया का सैलाब,
पल भर में लूट गया..
अनुपम चौबे साहब के कविता की ये पंक्तियाँ बिहार में हर साल आने वाली बाढ़ पर बिल्कुल सटीक बैठती हैं।
बिहार के 11 जिले और 24 लाख से अधिक लोग बाढ़ से प्रभावित हैं। बूढ़ी गंडक, घाघरा, बागमती, कोसी समेत कई नदियाँ खतरे के निशान से ऊपर बह रही हैं। दशकों से बिहार बाढ़ की त्रासदी झेल रहा है। हर साल लाखों लोग बेघर हो जाते हैं, पशुधन नष्ट हो जाते हैं, ढेरों जानेंं जाती हैं। करोड़ों खर्च हो चुके हैं पर स्तिथि जस की तस या फिर कहें तो हर साल के साथ स्तिथि बद से बदतर होती जा रही है। बाढ़ से प्रभावित इन क्षेत्रों में लोगों के पास दिखाने के लिये सरकारी कागज तो हैंं लेकिन फिर भी हर साल ये ऐसे ही शरणार्थी की तरह जीवन जीने के लिये मज़बूर हैं। पुख्ता योजना और उनको कार्यांवित करने के संकल्प के अभाव के कारण बिहार में हर साल बाढ़ तो आ जाती है पर बहार कभी नहीं आयी।
चुनाव:
अक्टूबर-नवंबर में बिहार के 243 सीटों के लिये होने वाले चुनाव की तैयारी में सभी पार्टियों ने कमर कसना शुरू कर दिया है। कोरोना और बाढ़ को लेकर अपनी फज़ीहत करवा चुके सुशासन बाबू के लिये ये चुनाव चुनौतियों से भरा रहने वाला है। चुनावी पंडितों ने लालू के 15 साल और नीतीश के 15 साल का आकलन करना शुरू कर दिया है। दोनो के शासनकाल को देखें तो बिहार को बदहाली तक पहुंचाने में दोनो ने “तू डाल-डाल मैं पात-पात” के सिद्धांत को सार्थक कर दिखाया है। आजादी के बाद से ही विकास की बाट जोह रहे बिहार की सत्ता का ऊंट इस बार किस करवट बैठेगा, ये कहना तो मुश्किल है लेकिन सुशासन बाबू की डगर आसान नहीं दिखती। लोजपा के साथ टिकट बंटवारे को लेकर कलह सामने आने लगे हैं, वहीँ चौतरफा नाकामी से नीतीश कुमार के खिलाफ एंटी-इंकंबैंसी फैक्टर काम कर सकता है। बिहार के राजनीतिक इतिहास को देखते हुए इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि जातिगत वोट फिर से महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। जहाँ एनडीए विकास के मोदी मॉडल को ही भुनाने की कोशिश करेगी वहीं महागठबंधन का सारा दांव फिर से लालटेन पर ही होगा।
खैर चुनाव तो आते-जाते रहेंगे, ये चुनाव भी गुजर जायेगा। देखना तो बस ये है, आखिर कौन इस बिहार में बहार ला पायेगा।
अंत में कुछ पंक्तियाँ:
कोई आरक्षण का लॉलीपॉप थमाता है
कोई सुशासन का धुआँ उड़ाता है
कोई जाति की धुनी रमाता है
कोई कागज पे योजनायें गिनवाता है
फिर हर नये-पुराने चुनाव के बाद भी
बाबू ये बिहार बीमारू कैसे रह जाता है…