क्यूं उठती अब आवाज़ नहीं
इन वामपंथ के कोठों से
क्यूं क्रोध बरसता दिखा नहीं
बॉलीवुड वाले होटों से
क्यूं नहीं दिखी झुंजलाहट है
सेक्युलर कुटिल जमातों में
क्यूं नहीं दिखी तख्ती
फिल्मी सुंदरियों के हाथों में
कहां थी ये निष्पक्षता
जब हुए जवान शहीद थे
कहां था पर्यावरणवाद
बकरे वाली ईद पे
कहां मर गए थे, हे लिबरल
इस देश को कर रहे जब बर्बाद थे
कहां मर गए थे,मतनिर्पेक्ष
हो रही जब कॉरोना जिहाद थी
कहां रह गया वो दर्द
अफ़ज़ल, वानी के लिए को आया था
क्यूं दिखा नहीं वह दर्द
पण्डितों, साधुओं को जब मारा, जलाया था?