राजनेताओं के हाथों सरकारी कर्मचारी के प्रताड़ित होने के मामले बढ़ते ही जा रहे हैं। विशेष तौर पर विधायकों द्वारा पुलिस अफसर और कर्मियों को सरेआम अपमानित करने की घटनाएं।देश के विभिन्न हिस्सों से आए दिन ऐसे मामले सामने आ रहे हैं। लगता है दोनों अपने प्रभुत्व का संघर्ष कर रहे हो। स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच नहीं होने से ज्यादातर मामलों में सच्चाई सामने आ ही नहीं पाती। सत्ता बल के कारण ऐसे हित संघर्ष में जीत प्राय: विधायकों की होती है।
राजस्थान में कथित राजनीतिक प्रताड़ना के कारण राजगढ़ के थानाधिकारी विष्णु दत्त विश्नोई का आत्महत्या प्रकरण इन दिनों चर्चा में है।कुछ दिनों पूर्व कोरोना की निषेधाज्ञा के उल्लंघन पर रोके जाने पर सत्ता पक्ष के एक विधायक ने अफसर का तबादला करवा दिया था। यहां तो एक तत्कालीन मंत्री कई साल पहले एक वरिष्ठ आईएएस अफसर को थप्पड़ मार कर इतिहास रच चुके हैं। मध्य प्रदेश के रीवा में पिछले दिनों एक इंजीनियर के खुदकुशी करने का मामला सामने आया था। इस मामले में भाजपा नेताओं पर प्रताड़ना का आरोप लगा था।इंदौर में तो एक नेता पुत्र ने सरेराह अफसर को बल्ले से पीटकर अपने पिता का नाम “रोशन” दिया था।
इस बात की घटनाओं में पीटने और प्रताड़ित करने वाले राजनेताओं पर कोई कार्रवाई नहीं होती, उनके जलवे ऐसे होते हैं कि राजनीतिक नेतृत्व भी उन्हें छेड़ने का खतरा मोल नहीं लेते। तबादले निलंबन या लाइन हाजिरी के रूप में सरकारी कर्मियों को ही सजा मिलती है। उन्हें जीवन भर अपमान का घूंट पीकर सब्र करना पड़ता है, जो सब्र नहीं कर पाते वे दुखद कदम उठा लेते हैं।
ऐसा नहीं है कि सभी सरकारी अफसर और कर्मचारी दूध के धुले होते हैं। उनमें से बहुत ऐसे भी होते हैं जिन्हें मलाई खाने का चस्का लग जाता है। जिसे हासिल करने के लिए वह राजनेताओं को आका बना लेते हैं। लेकिन कर्तव्यनिष्ठ कर्मियों की भी कमी नहीं है। वे गलत काम करने के लिए विधायक और दूसरे नेताओं का दबाव सह नहीं पाते उनका आत्मसम्मान इसकी इजाजत नहीं देता। इसके बदले उन्हें प्रताड़ना झेलनी पड़ती है। रीवा में 2 साल पहले एक प्राइवेट बैंक के मैनेजर ने खुदकुशी कर ली थी। उसने सुसाइड नोट में लिखा था कि कतीपय नेता उस पर बिना गारंटी ऋण बांटने का दबाव बना रहे हैं। इस मामले में मैं किसी राजनेता का कुछ नहीं बिगड़ा।
ज्यादातर राजनेता कुर्सी पर आने के बाद अपने आपको सर्वोच्च समझने लगते हैं और अपने इलाके के अफसरों को अपना चाकर। तमाम गलत काम करते हैं पर टोका टाकी जा हुकुम की नाफरमानी उन्हें पसंद नहीं है। ऐसा करने वाले अफसरों को ऐसा सबक सिखाते हैं कि आने वाला कोई अवसर पर ऐसी “हिमाकत”नहीं कर सके। नेतृत्व या तो मूक बधिर और नेत्रीहीन होने का दिखावा करता है या, अपराधी नेता के सिर पर हाथ रख देता है। यही कारण है कि राजनीति में रेत माफिया, शराब माफिया, कब्जा माफिया की भरमार होती जा रही है दागदार चरित्र वाले नेता टिकट कबाड़ लेते हैं और नासूर बन सिस्टम को खोखला बना देते हैं।
ऐसे मामलों में यदि वाकई स्वतंत्र जांच हो और दोषियों को सजा मिले तो, वातावरण बदला जा सकता है। पर सवाल यह है कि क्या कोई जांच एजेंसी निष्पक्ष बची है? सीबीआई पर थोड़ा भरोसा रहता है। पर उसके पक्षपात के भी ढेरों उदाहरण सामने आने लगे हैं। न्यायपालिका जरूर विश्वास की है। पर वह कब तक जांच एजेंसी की भूमिका अदा करेगी?विधायिका कार्यपालिका और न्यायपालिका को मिल बैठकर इसका हल निकालना पड़ेगा। जनता कब तक आंखें बंद कर एवं व्यवस्था के कड़वे ग्रास निकलती रहेगी।