कभी जिस तालिबान को अमेरिका आतंक का सबसे बड़ा कारण मानता था, जिसने 9/11 से लेकर 26/11 तक हुए तमाम आतंकवादी हमलों को अंजाम दिया। उसी तालिबान के साथ दोहा में हुए समझौते में अमेरिका ने हाथ मिला लिया। गौरतलब है कि बीते 29 फरवरी को दोहा में हुए समझौते के प्रथम शर्त के अनुसार अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की संख्या 13000 से घटकर 8600 हो जाएगी और इन बचे हुए सैनिकों को अमेरिका को 14 महीने में अफगानिस्तान से हटा लेना होगा, फिलहाल अमेरिका ने सैनिकों की संख्या में कटौती करना शुरू कर दिया है।
वहीं समझौते के दूसरे शर्त के अनुसार तालिबान को आंतक के रास्ते को छोड़ना होगा, लेकिन समझौते के बाद से लेकर आज तक अफ़ग़ानिस्तान में आधा दर्जन से अधिक आतंकी हमलें हुए हैं, और इन हमलों का जिम्मेदार अप्रत्यक्ष रूप से तालिबान को ही माना गया है।
समझौते के तीसरे शर्त के अनुसार तालिबान अपने कब्जे में रखे 1000 अफगानी सैनिकों को रिहा करेगा जिसके बदले में अफगानिस्तान सरकार को भी 5000 तालिबानी लड़ाकों को रिहा करना होगा, फिलहाल ये शर्त को भी पूरा नहीं किया जा सका है, वहीं समझौते के अगले दिन ही अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि उनकी सरकार तालिबान के 5 हजार कैदियों को अभी रिहा नहीं करेगी क्योंकि हमारे बीच वार्ता के एजेंडे में यह बात शामिल जरूर थी, लेकिन समझौते में ये कोई जरूरी शर्त नहीं थी, किसी भी कैदी की रिहाई अमेरिका के अधिकार क्षेत्र में नहीं है, बल्कि यह अफगान सरकार के अधिकार क्षेत्र में है।
उल्लेखनीय है कि समझौते में शामिल सभी शर्तों को सभी पक्षों द्वारा 135 दिन में पूरा करना होगा। अमेरिका अफगानिस्तान की जमीन को हमेशा के लिए छोड़ेगा या नहीं इस पर अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने कहा- तालिबान से हुआ समझौता तभी पूरा होगा,जब तालिबान पूरी तरह से शांति कायम करने की दिशा में काम करेगा। इसके लिए तालिबान को आतंकी संगठन अलकायदा से अपने सारे रिश्ते तोड़ने होंगे। यह समझौता इस क्षेत्र में एक प्रयोग है। हम तालिबान पर नजर बनाए रखेंगे। अफगानिस्तान से अपनी सेना पूरी तरह से तभी हटाएंगे, जब तक हम पूरी तरह से पुख्ता नहीं कर लेंगे कि तालिबान आतंक का मार्ग छोड़ चूका है।
वहीं तालिबान इस समझौते की शर्तों को मानने को तैयार नहीं दिख रहा है, इसलिए तालिबान पर विश्वास करना मुश्किल है कि वह आगे चलकर समझौते की शर्तों को मान लेगा, चूंकि अमेरिका का तालिबान के साथ सीधे जंग के स्थान पर समझौता करना उसकी कमजोरी को दर्शाता है। अब अमेरिका या तो वियतनाम की तरह अफगानिस्तान में अपनी इच्छानुसार विजय प्राप्त करने में खुद को नाकाम मान कर सैनिकों की वापसी में ही अपनी भलाई समझ चुका है या उसका कोई और उद्देश्य समझौते से ही पूरा होने वाला होगा शायद इसीलिए अमेरिका ने तालिबान से सम्मानजनक समझौता करके आने वाले नवंबर में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव से पहले हरहाल में अपने सैनिकों को अमेरिका वापस बुलाने का संकल्प लिया है गौरतलब है कि द वाशिंगटन पोस्ट में छपी अफगानिस्तान पेपर्स की रिपोर्ट के अनुसार बीते दो दशक में अमेरिका ने अफगानिस्तान में पानी की तरह धन बहाया है। अफगानिस्तान में अब तक 2400 से अधिक अमेरिकी सैनिक मारे गए हैं 20000 से ज्यादा घायल हुए हैं।यूएस डिपार्टमेंट ऑफ डिफेंस के मुताबिक अमेरिका ने अक्टूबर 2001 से सितंबर 2020 के बीच, इन 19 वर्षों के अफगानिस्तान में अपनी रणनीति पर अब तक लगभग 900 बिलियन डॉलर खर्च कर चुका है। इसके अलावा अफगानिस्तान के एक लाख से ज्यादा लोग अब तक तालिबान समस्या के कारण मारे जा चुके हैं। ज्ञात हो कि ऐसे ही एक रिपोर्ट वियतनाम से अमेरिकी सैनिकों की वापसी के समय पेंटागन की ओर से भी जारी हुई थी जिसमें वियतनाम में अमेरिकी सेना के संसाधनों की बर्बादी की आलोचना की गई थी।
तालिबान और अमेरिका के बीच समझौते को पूरा हुए अभी दो माह भी नहीं हुए हैं ,लेकिन अफगानिस्तान में एक बार फिर से 90 के दशक वाले हालात बनने लगे हैं, क्योंकि बीते 25 मार्च को अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में धार्मिक रूप से अल्पसंख्यक सिखों के धर्म स्थल गुरुद्वारा हर राय साहब पर फिदायीन हमला किया गया इस हमले में 25 लोगों की मौत हुई, जिनमें लगभग दर्जन भर मासूम बच्चे शामिल हैं, हमले की जिम्मेदारी खतरनाक आतंकी संगठन आईएसआईएस ने लिया है, लेकिन कहीं ना कहीं अप्रत्यक्ष रूप से इस हमले का मास्टरमाइंड तालिबान को माना जा रहा है साथ ही पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई व उसके आतंकी संगठन जमात-उद-दावा का हाथ भी इस आतंकी हमलें में माना जा रहा है।
जैसा कि हम जानते हैं कि पाकिस्तान ने पूर्व में अफगानिस्तान-भारत संबंधों में दरार डालने के लिए तालिबान को पोषित किया और उसे बढ़ावा दिया साथ ही तालिबानियों को हथियार व आर्थिक मदद भी पाकिस्तान चीन के सहयोग से देता रहता है, क्योंकि चीन भी भारत- अफग़ानिस्तान व ईरान की सरकारों के दृढ़ इच्छाशक्ति से पूरे हुए त्रिपक्षीय चाबहार समझौते और भारत के महत्वाकांक्षी परियोजना नार्थ- साउथ कारिडोर से मध्य एशिया में भारत के बढ़ते दबदबे से भयभीत रहा है,चूंकि मध्य एशिया के देश चीन के लिए एक बड़ा बाजार है, और वो नहीं चाहता कि भारत वहाँ मध्य एशिया के देशों से व्यापारिक संबंध स्थापित करे, इसलिए वो तालिबान को बढ़ावा देकर, भारत के लिए मध्य एशिया में रुकावट पैदा करना चाहता है।
गौरतलब है कि अमेरिका के अफगानिस्तान छोड़ने के ऐलान होने के बाद से पाकिस्तानी आतंकवादी संगठनों व कुख्यात आतंकी संगठन आईएसआईएस, अलकायदा को अपना एक नया सुरक्षित ठिकाना अफगानिस्तान के रूप में मिल गया है और वे वहां बैठकर भारत समेत अन्य दक्षिण एशियाई देशों में आतंकी हमले की योजना बना रहे हैं, नतीजा है कि समझौते के बाद से ही कश्मीर में आतंकियों के हमले में लगातार बढ़त देखी जा रही है, वहीं बीते एक माह में हमारे दर्जनों सैनिक कश्मीर में आतंकियों से लड़ते हुए वीरगती को प्राप्त हुए हैं, उल्लेखनीय है कि इन आतंकवादी संगठनों का प्रमुख लक्ष्य भारत का कश्मीर बहुत पहले से रहा है, क्योंकि बीते वर्ष भारत सरकार ने कश्मीर से धारा 370 को खत्म करके भारत और कश्मीर के बीच खड़ी दीवार को गिरा दिया जिसके बाद से पाकिस्तान व उसके आतंकी संगठन बौखलाए हुए हैं।
ऐसे में आने वाले समय में आईएसआईएस, तालिबान व अलकायदाइन जैसे खतरनाक आतंकी संगठनों के एक साथ आने से, भारत समेत पूरे दक्षिण एशिया में आतंकवाद के एक नए युग की शुरुआत होने की आशंका है। इन आतंकवादी संगठनों के महागठजोड़ का प्रमुख लक्ष्य ग़ज़वा-ए-हिंद करना रहा है क्योंकि इन सभी संगठनों का जन्म ही इसी संकल्प के साथ हुआ है।
गौरतलब है कि इस्लामिक स्टेट से जुड़े हुए एक संगठन जुनदूल खिलाफा-अल-हिंद, अपने पत्रिका “वॉयस ऑफ हिंद” अपने 24 फरवरी के अंक में एक लेख भारतीय मुसलमानों को संबोधित करते हुए लिखता है कि- भारतीय मुसलमान अधिक से अधिक हमारे इस्लामिक संगठन के राजनीतिक दर्शन से जुड़े और आने वाले समय में भारत में इस्लाम का परचम लहराने के लिए संघर्ष करने को तैयार रहें, इसी प्रकार से आतंकी संगठन अल कायदा इन इंडियन सब कंटिनेंट अपने पत्रिका नवा-ए-गजवातुल-हिंद में अपने 21 मार्च के अंक में लिखता है कि आने वाले दिनों में अल कायदा के जिहाद का केंद्र भारत का कश्मीर राज्य बनेगा साथ में पत्रिका ने यह भी घोषणा की है कि दक्षिण एशिया में हम अपने जिहाद फैलाने के मकसद में कामयाब हो कर ही दम लेंगे। गौरतलब है कि इन दोनों ही आतंकी संगठनों का तालिबान से बहुत ही मधुर संबंध रहा है।
ऐसे में समझौता के पूरा होने के बाद की इन गतिविधियों को देखकर अब यही लगता है कि आने वाले समय में इस समझौते का भारत पर एक बड़ा प्रभाव पड़ने वाला है, क्योंकि पाकिस्तान की इमरान सरकार का तालिबान से मधुरता जगजाहिर है और पाकिस्तान भारत में आतंक फ़ैलाने के लिए तालिबान को माध्यम के रूप में सदियों से प्रयोग भी करता रहा है।
उल्लेखनीय है कि भारत में आतांकवाद फैलाने वाले आतंकी संगठनों को पाकिस्तान पनाह देता रहा है, परंतु पिछले कुछ वर्षों में मोदी सरकार की कूटनीति से बने अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण अब वो अपने इन खतरनाक आतंकी संगठनों को पाकिस्तान में नहीं रखना चाहता है, इसलिए वो अपने इन आतंकी संगठनों का एक प्रकार से तालिबान में विलय कर देना चाहता है, ऐसे में दोहा में हुए समझौते के बाद जब पूरे अफगानिस्तान की राजनीति में तालिबान का प्रभुत्व बढ़ा है, तो ये पाकिस्तान की एक बड़ी जीत मानी जा सकती है, आने वाले समय में हो सकता है कि पाकिस्तान के द्वारा तालिबान को अप्रत्यक्ष रूप से परमाणु हथियार भी दे दिया जाए, तब यह एशिया महाद्वीप समेत पूरे संसार के लिए एक बड़ा महासंकट उत्पन्न करेगा, क्योंकि इससे पहले भी पाकिस्तान ने उत्तर कोरिया को परमाणु हथियार बनाने में मदद कर चूका है, और आज उसका परिणाम भी हमारे सामने है, ऐसे में अफगानिस्तान में आने वाले समय में सत्ता की बागडोर तालिबान के हाथ में होने के बाद भारत के लिए स्थितियां चुनौतीपूर्ण होंगी, क्योंकि समझौते के बाद से ही खतरनाक आतंकी संगठन आईएसआईएस का अफगानिस्तान में दखल बढ़ा है, उल्लेखनीय है कि आईएसआईएस का मध्य एशिया के बाद दूसरा लक्ष्य दक्षिण एशिया के देश ही हैं।
भारत ने अब तक अफगानिस्तान सरकार को करीब तीन अरब डॉलर की मदद दी है, जिससे वहां संसद भवन, सड़कों और बाँध आदि का निर्माण हुआ है, भारत सरकार ने अफ़ग़ानिस्तान में विभिन्न परियोजनाओं में अरबों डॉलर का निवेश कर रखा है, ऐसे में अब उस तालिबान की सत्ता वापसी से ये निवेश डूब जाएगा, जिसका संसार में का सबसे अधिक विरोध भारत ने पिछले तीन दशकों से किया है, वहीं तालिबान के साथ मिलकर पाकिस्तान और चीन भारत के विरुद्ध मोर्चाबंदी करने में लगे हुए हैं, भारत सरकार को आने वाले इस महासंकट से सावधान रहना होगा क्योंकि तालिबान और पाकिस्तान के मिलीभगत से हुए कंधार विमान अपरहण का दंश हम झेल चुके हैं, उस समय मज़बूर होकर हमें खतरनाक आतंकियों को छोड़ना पड़ा था, अमेरिका तालिबान के सामने घुटने टेक चूका है।
चूंकि अफगानिस्तान सरकार अमेरिका-तालिबान के बीच हो रही शांति वार्ता के खिलाफ थी, उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति अशरफ गनी ने समझौते की प्रक्रिया शुरू किए जाने से पहले ही कह दिया था कि बेगुनाह लोगों की हत्या करने वाले समूह से शांति समझौता निरर्थक है। इसलिए भारत को अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी के और रूस के सहयोग से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी कूटनीति के द्वारा तालिबान-पाकिस्तान और चीन के इस महागठजोड़ को अलग-थलग कर देना होगा, अन्यथा आने वाले समय में तालिबान भारत समेत पूरे दक्षिण एशिया के लिए सबसे बड़ी चुनौती के रूप में सामने खड़ा होगा।