Friday, April 19, 2024
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स्वरोजगार और समाज

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Jayendra Singh
Jayendra Singhhttps://jayendrasingh.in/about
I am a political enthusiast, universal learner and a follower of Dharma. I write as Indic leaning centrist with opinions and topics related to political situation in India and globe. I also love to write poetry and songs. धर्मो रक्षति रक्षित:

स्टार्टअप“, ये चमत्कारी शब्द तो सुना ही होगा। सरकार से लेकर समाज तक सभी जगह ये शब्द चर्चा में है। बड़े नगरों में तो ये शब्द सर्वाधिक प्रचलित है। जहाँ सरकार पूरी तरह प्रयासरत है, ऐसा प्रतीत होता है की समाज भी इसमे बराबर भगीदार है। परन्तु वास्तविक्ता इससे भिन्न है।

2007 और 2016 के तुलनात्मक आँकड़े ये बताते है की सरकारी नौकरी मे युवा​ओं कि रुचि पुर्व से अधिक है। यह सन्ख्या 62% से बड़कर 65% हो गयी है। उससे भी अश्चर्य की बात है कि यह वृद्धि बड़े नगरों में और अधिक है। बेरोजगरी के किर्तिमान बनने वाली परीक्षाओं का तो सुना ही होगा। एस बी आई की परीक्षा 2000 पदों के लिये 10 लाख आवेदन, एस एस सी की परीक्षा 4000 पदों के लिये 30 लाख आवेदन, रेल्वे की परीक्षा 90000 पदों के लिये 2.8 करोड़ आवेदन, आदि।

सरकार को क्या करना चाहिये, संस्था​ओं को क्या करना चहिये, इस पर बहुत चर्चा होती है किन्तु “समाज को क्या करना चहिये” इस पर कोइ वार्तालाप नहीं करता। तर्क के आधार से तो सरकार का नवीन व्यापार निवेश मे वृद्धि का सीधा प्रभाव युव​ओं कि रुचि पे होना चहिये था परन्तु हुआ नहीं। इसका सामाजिक कारण कुछ पारिवारिक है।

आराम

“आज थीक से पढ़ाई कर लो तो जीवन भर आराम है”, “सरकरी नौकरी लग जाये तो जीवन भर आराम है”
बाल आयु से ही हमेें सिखाया गया की “आराम” ही जीवन का अन्तिम पड़ाव है एवं हमें ऐसे माध्यमों को खोजना चहिये जिससे मानव जीवन के परम “आराम” वाले मोक्ष की प्राप्ती हो। हमें ये समझना होगा कि जीवन का एकमत्र लक्ष्य, “आराम” नही है, ये जीवन कर्म भूमि है एव कर्म करते हुए जीवन को सार्थक करना ही लक्ष्य है।

भागवत गीता (3:5)
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्‌।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥

अर्थ- कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता; क्योंकि (प्रकृति के) परवश हुए सब प्राणियोंसे प्रकृतिजन्य गुण कर्म कराते हैं।

असफ़लता का भय

पहला कारण, इस भय का सीधा सम्बन्ध पूंजी और निवेश के अनुपात से है। यदि कम पूंजी से व्यापार किया जा सकता है तो न्युनतम से करना चहिये, व्यापार मे अत्मविश्वास आने पर बैकों से ऋण की सुविधा तो है ही। यदि ये सम्भावना ना हो तो नियमित आय के लिये सहायक व्यापार या नौकरी करें तो आर्थिक भार कम रहेगा।

दूसरा और महत्वपूर्ण कारण, समाज मे असफ़लता को अपमानित एव तिरस्कार करना। समाज को किसी की असफ़लता को भी प्रोत्सहित करना होगा। असफ़लता को ज्ञान की पूँजी एव शिक्षा का एक भाग समझना होगा। असफ़ल होना भी गर्व कि अनुभूति दे, क्योकि असफ़लता ही प्रमाण है कि प्रयास तो किया है।

समाज में नौकरी को अति सम्मान

आज भी हमारे समाज मे नौकरी को अधिक महत्व दिया जाता है, यद्यपि देश के निर्माण में व्यापारी का योगदान कही अधिक है। प्राचीन काल से वैश्य समाज को ही राष्ट्र के रीड की हड्डी माना गया है। विदेश नीति, सामरिक नीति एव राष्ट्र के आत्मविश्वास की नींव में व्यापार होता है। आधारिक संरचना का विकास हो या रोजगार के अवसर, पूँजी का अभिमूल्यन, बैंकों का विस्तार, राष्ट्रीय प्रगति के अनुमान, सभी व्यापार से ही सम्बन्धित है। निष्कपट व्यापार करना राष्ट्र का कार्य करने के समान है।

व्यापार ना करने के कई कारण हो सकते हैं, किन्तु जो कारणों मे उलझा रह जाये वो व्यापारी नहीं, व्यापारी का तो आचरण ही होता है अन्धकार में भी प्रकाश खोज लेना। राष्ट्र का भविष्य व्यापार है, सोचना ये है कि उस भविष्य के लिये हमारा क्या योगदान है।

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