Wednesday, October 9, 2024
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जयंती विशेष: धर्म रक्षक गोरक्षपीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ

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Dr. Kunwar Pushpendra Pratap Singh
Dr. Kunwar Pushpendra Pratap Singh
Dr. Kunwar Pushpendra Pratap Singh (email: [email protected]) was born in Varanasi . Completed Ph.D. in Journalism and Mass Communication from Banaras Hindu University, Varanasi, Uttar Pradesh. He is interested on issues related with the mass media, Hinduism, Pan-Indianism as well as the international relations. He keeps an eye on the developing Indo-Nepal relations. He has more than 15 papers published in National and International Journals and has Participated and Presented Papers in International and National Conferences, was Member of Organizing Committee of International, National and state level seminars, conferences and workshops conducted by Centre for the Study of Nepal, Banaras Hindu University, Varanasi, Uttar Pradesh . He lives at the holy city Varanasi, India.

हम भारत में काफी हद तक महंत दिग्विजय नाथ के बारे में नहीं जानते हैं। हमें उनका नाम पता होना चाहिए और हमारे राष्ट्र के आधुनिक राजनीतिक इतिहास में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका के बारे में भी जानना चाहिए। महंत दिग्विजय नाथ (1894-1969) का जन्म राजस्थान के उदयपुर में नन्हू सिंह के रूप में हुआ था।

उनका आविर्भाव बाप्पा रावल के उस इतिहास प्रसिद्धवंश में हुआ था, जिसमें उत्पन्न होकर राणा सांगा और महाराणाप्रताप जैसे स्वदेशाभिमानी वीरों ने देश और धर्म की रक्षा केलिए आजीवन संघर्ष किया। उनके चाचा ने उन्हें एक योगी फूल नाथ को दे दिया, जो युवा लड़के को गोरखपुर में गोरखनाथ मठ ले गए। उन्होंने गोरखपुर के सेंट एंड्रयूज कॉलेज से पढ़ाई की; पढ़ाई में औसत था लेकिन खेल और घुड़सवारी में उत्कृष्ट था। राणा नान्हू सिंह का विद्यार्थी जीवन भारतीय पराधीनता का कठोरतम समय था। अंग्रेजी शासन की कठोरता और दमन की दुर्दमनीयता के कारण साधारण जनता में नौकरशाही के विरुद्ध आवाज उठाने का साहस न था। उनके हृदय में हिन्दू धर्म, हिन्दू जाति, हिन्दू संस्कृति और हिन्दू राष्ट्र के प्रति संस्कारतः अंकुरित उत्कट प्रेम और बलिदान की भावना उन्हें एक सही दिशा प्रदान करने के लिए जागरूक थी। उस काल में ही उन्होंने अनेक क्रांतिकारियों से भी संपर्क स्थापित किया था, जो यथा अवसर मन्दिर पर भी आया करते थे।

बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में भारतीय जनता की भावनाओं का नेतृत्व भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के हाथों में आ गया था। कांग्रेस में भी दो प्रकार के लोग थे। एक उग्रवादी, दूसरे समझौतावादी, जो अपने नम्र विचारों के कारण ‘नरम दल’’ के नाम से सम्बोधित किये जाते थे। उस समय कांग्रेस का नेतृत्व महात्मा गाँधी जैसे नरम दलीय नेता के हाथों में आ रहा था।

सन् 1920 में महात्मा गाँधी का गोरखपुर में भव्य स्वागत हुआ। महात्मा गाँधी ने एक विशाल जनसमूह को सम्बोधित किया। राणा नान्हू सिंह ने गाँधी जी के कार्यक्रम की निर्विघ्न समाप्ति के लिए ‘वालेन्टियर कोर’ का संगठन किया था और गाँधी जी के कार्यों को पूरा करने में तन-मन-धन से सहयोग किया। किन्तु थोड़े दिनों के पश्चात् चौरीचौरा की प्रसिद्ध ऐतिहासिक घटना ने यह सिद्ध कर दिया कि राणा नान्हू सिंह (महंत दिग्विजयनाथ) महात्मा गाँधी के समझौतावादी सिद्धांतों के पोषक न थे। सन् 1921 में महात्मा गाँधी का राष्ट्रव्यापी असहयोग आंदोलन प्रारम्भ हुआ। राष्ट्र प्रेमी युवकों ने अपने अध्ययन- अध्यापन, नौकरी तथा व्यवसाय आदि का परित्याग कर असहयोग आंदोलन में भाग लिया I उन्होंने असहयोग आंदोलन को सफल बनाने का पूरा प्रयास किया।

गोरखपुर जिले में स्थित चौरीचौरा स्थान पर आंदालेन के खिलाफ की जो प्रतिक्रिया उत्पन्न हुई, उससे नौकरशाही तो आतंकित हुई ही, महात्मा गाँधी के अहिंसात्मक आंदोलन का रूप ही बदल गया। उन्हें बहुत शीघ्र ही अपना आंदोलन वापस लेना पड़ा। इस चौरीचौरा काण्ड के अभियुक्तों को फांसी की सजा देने का निर्णय किया गया था। उनमें राणा नान्हू सिंह भी थे। किन्तु साक्ष्य न होने के कारण वे मुक्त कर दिये गये।

महंत दिग्विजयनाथ ने मंदिर को नवीन रूप से व्यवस्थित किया। अब तक यह मंदिर केवल नाथपंथी साधुओं का साधना केन्द्र और पर्यटक साधुओं और श्रद्धालुओं के लिए पूजा का मंदिर मात्र था उन्होंने इसे हिन्दू धर्म और संस्कृति के समस्त अंगों को प्रोत्साहित करने के लिए उन्होंने इसे महान सांस्कृतिक केन्द्र बना दिया। ब्रिटिश शासन काल में इस मंदिर ने हिदू धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए निरंतर संघर्ष किया। महायोगी भगवान गोरक्षनाथ के मंदिर की पवित्रता और आध्यात्मिक गरिमा ने मान, रक्षा तथा हिन्दुत्व प्रेम के साथ ही हिन्दू संस्कृति की रक्षा की भावना को और भी दृढ़ कर दिया। देश की राजनीतिक और सामाजिक स्थितियों ने भी उनके सांस्कृतिक भावों को सुदृढ़ किया। राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा के लिए ही सन् 1934 ई0 तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सिद्धांतों को स्वीकार कर उन्होंने कार्य किया। किन्तु कांग्रेस की मुस्लिम-तुष्टीकरण की नीति से असंतुष्ट होकर उन्होंने उसे छोड़ दिया।

भारत विभाजन के पश्चात पाकिस्तान को अधिक से अधिक सुविधाएँ देने के लिए गाँधीजी ने सात सूत्रीय मांगो को लेकर अनशन प्रारम्भ कर दिया था। उन्होंने पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये देने का आग्रह किया। भारतीय नवयुवकों का वर्ग इसे सहन न कर सका। नाथूराम गोडसे ने उतावली में गाँधीजी की हत्या कर दी। गोडसे ने हत्या का समूचा उत्तरदायित्व स्वयं ले लिया था, किन्तु तत्कालीन सरकार ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और हिन्दू महासभा के प्रभावशाली नेताओं की धरपकड़ प्रारम्भ कर दी। महंतजी पर आरोप लगाया गया कि उन्हीं की पिस्तौल से गोडसे ने गाँधीजी की हत्या की थी। उन्हे नजरबंद कर दिया गया था और 19 महीने तक वे बंदी जीवन व्यतीत करते रहे। इस अवसर पर मठ की समस्त चल और अचल सम्पत्ति भी जब्त कर ली गई थी किंतु महंतजी न्यायालय के द्वारा निर्दोष सिद्ध हुए।

सन् 1962 का वर्ष देश के लिए घोर संकट का समय था। उस समय तक पंचशील के सिद्धांतों पर आधरित हिन्दी- चीनी मैत्री का संबंध टूट चुका था। चीन ने लगभग 12 सहस्त्र वर्गमील भारतीय भूमि पर अधिकार कर लिया था। युद्ध की आशंका बलवती होती जा रही थी। इधर देश में बढ़ती हुई मुस्लिम साम्प्रदायिकता की भावना नयी दिशा की ओर संकेत कर रही थी। केरल में मुस्लिम लीग की स्थापना हो चुकी थी। महंतजी ने उसी समय यह आशंका व्यक्त की कि यह मुस्लिम सम्मेलन मुस्लिम लीग के संगठन और देश के पुनर्विभाजन की नींव को मजबूत करने वाला है। उन्होंने उसका खुलकर विरोध किया।अक्टूबर 1961 में महंतजी ने मुस्लिम साम्प्रदायिकता का विरोध करने के लिए अखिल भारतीय हिन्दू सम्मेलन का आयोजन दिल्ली में किया। हिन्दू महासभा ने सन् 1960 में उन्हेंमहासभा का अध्यक्ष निर्वाचित किया था। महंत दिग्विजय नाथ का राजनीतिक उदय हुआ और उन्हें 1967 में गोरखपुर से सांसद के रूप में चुना गया।

गोरखनाथ मंदिर के महंत के रूप में महंत दिग्विजयनाथ ने नाथपंथी मंदिरों और मठों को संगठित करने का प्रयास किया। महंत दिग्विजय नाथ ट्रस्ट और गोरखनाथ मंदिर की ओर से अनेक ग्रन्थ प्रकाशित हुए। ‘फिलॉसफी आफ गोरखनाथ’ पुस्तक की सराहना महामहोपाध्याय पं. गोपीनाथ कविराज एवं पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी प्रभृति विद्वानों ने की है। इस बहुप्रशंसित पुस्तक का हिन्दी अनुवाद भी गोरखदर्शन के नाम से प्रकाशित हो चुका है। ट्रस्ट तथा मंदिर ने उनके सानिध्य मे निम्नांकित प्रकाशन भी कराया:-

हिन्दू धर्म और संस्कृति (हिन्दी),आदर्श योगी योगिराज गम्भीरनाथ (हिन्दी),नाथ योग एक परिचय (हिन्दी),योगिराज गम्भीरनाथ (अंग्रेजी), नाथ योग (अंग्रेजी), योग रहस्य (हिन्दी), आदर्श योगी (हिन्दी),एक सत्यान्वेषी के अनुभव (अंग्रेजी), गोरख दर्शन (हिन्दी)- इन पुस्तकों के प्रकाशन के अतिरिक्त एक विशाल पुस्तकालय की भी स्थापना की है, जिसमें नाथ योग तथा हिन्दू धर्म और संस्कृति से संबंधित सहस्त्रों पुस्तकें संग्रहीत हैं। 

गोरखपुर जैसे पिछड़े जनपद की जनता को केवल धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक कार्यों के द्वारा प्रगति के पथ पर लाना संभव न था। उन्हें शिक्षित तथा प्रबुद्ध करना नितान्त आवश्यक था। इसीलिए गद्दी पर बैठते ही महंत दिग्विजयनाथ ने शिक्षा के प्रसार पर विशेष ध्यान दिया। उन्होंने सर्वप्रथम ‘गुडलक स्कूल’ के नाम से एक अंग्रेजी स्कूल की स्थापना की जो बक्शीपुर में एक किराये के भवन में चलने लगा तथा श्री यदुनाथ चक्रवर्ती उसके प्रथम प्रधानाचार्य थे। कालांतर में इसी विद्यालय से दो विद्यालयों की स्थापना हुई। आर्य समाज मंदिर के संरक्षण में डी.ए.वी. कालेज खुला और महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद के संरक्षण में महाराणा प्रताप इन्टर कालेज की स्थापना हुई। महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद की स्थापना कर महंतजी ने गोरखपुर के शैक्षणिक जगत् में एक क्रांति सी पैदा कर दी। इस परिषद के तत्वावधान में प्रारम्भिक शिक्षा से लेकर उच्चतम शिक्षा प्रदान करने तक की व्यवस्था हुई।

सितम्बर 1969 के अन्तिम सप्ताह में महंतजी पुनः अस्वस्थ हो गये। 26 से 28 सितम्बर तक वे दवा के बल पर मृत्यु से जूझते रहे। 28 सितम्बर को अपराह्न में उनकी स्थिति बिगड़ने लगी और उसी दिन 5 बजकर 30 मिनट पर उन्होंने चिर समाधि ले ली।

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