मनोरंजन का स्त्रोत कही जाने वाले बॉलीवुड या हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री पर सदा से चोरी, कॉपी करने, ऐडेप्ट करने या plagiarism जैसे लांछन लगते आये हैं जो काफी हद तक सही भी साबित हुए हैं। कालांतर से बॉलीवुड गाने, कहानी, सीन चुराने की हरकत में लिप्त पाया जाता रहा है। अब बात चाहें छोटी से छोटी फ़िल्म आबरा का डाबरा को सस्ती हैरी पॉटर कहे जाने की करी जाए या हिंदी सिनेमा के इतिहास का मील का पत्थर मानी जाने वाली शोले के प्लॉट का एक-एक कण का सर्जियो लियॉन की डॉलर सीरीज़ से उठाये जाने की, plagiarism बॉलीवुड की सालों से एक बुरी आदत रही है। अब इस बात का सम्बंध इससे जोड़ा जाए कि वर्षों की गुलामी के कारण हमारी मनोस्थिति ही ऐसी हो गयी है कि मनोरंजन की डिश में भी जब तक पश्चिमी तड़का न लगे वह हमें स्वाद नहीं देती या यूं कहें कि ये डिश बनाने वाले बावर्ची हमारी स्वाद कलिकाओं को विकसित ही नहीं होने देना चाहते ताकि अपने घटिया व्यंजन परोसते रहें और हम उन्हें ही मालपूआ समझ कर ग्रहण करते रहें।
आज की युवा पीढ़ी का इस बात को पावती देना और ऐसी फिल्मों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना (चाहें वह मीम के ही द्वारा हो) इस बात का अच्छा संकेत है कि इनकी दुकानें ज़्यादा दिनों तक चलने नहीं वाली हैं। बाघी सीरीज़ को हिंदुस्तान की रेम्बो और मस्ती और क्या कूल हैं हम जैसी फूहड़ फिल्मों को American Pie बनाने की नाकाम कोशिश ये दर्शाती है कि जनता अब मूर्ख बनने वालों में से नहीं। लेकिन शायद अभी दिल्ली दूर है, ऐसा इसलिए क्योंकि फ़िल्मी जगत में स्वयं को सुघोषित कलाकार और ‘असली filmmaker’ कहने वाले लोगों के मुँह पर से अभी भी मुखौटे उतारे जाना बाकी है।
बाहुबली फिल्म ने भारत और पूरे विश्व के सामने यह उदाहरण पेश किया कि बिना फूहड़ता, अश्लीलता, बेवजह गाली-गलौच और हॉलीवुड से ‘चुराए’ बगैर भी अच्छा सिनेमा बनाया जा सकता है। कमाई करने के तौर पर न सही पर 2018 में आई फिल्म तुंबाड ने भी एक ऐसा ही उदाहरण दिया। ऐतिहासिक सिनेमा की बात करें तो तान्हाजी और पद्मावत जैसी फिल्मों की सफलता यह दर्शाती है कि जनता अच्छे काम की सराहना करने में पीछे नहीं रहती चाहे वह रिव्यु के तौर पर हो या कमाई के तौर पर। इस वैचारिक खुले पन का बहुत बड़ा श्रेय इंटरनेट और सोशल मीडिया को भी जाता है जिसने लोगों को यह अवगत कराया कि किस प्रकार से उनको आज तक मूर्ख समझा गया और यह सुनिश्चित भी कराया कि अब उन्हें उसी प्रकार से मूर्ख बनाने की कोशिश करना एक भूल होगी। लेकिन इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि 70 और 80 के दशक में लोग हॉलीवुड और बाहर के सिनेमा से अवगत नहीं थे, कमी थी तो बस संसाधनों की।
1975 में जनता के पास इतने संसाधन नहीं थे कि वे Once Upon a Time in the West या A Fistful of Dollars जैसी फिल्मों तक पहुंच पाते। लेकिन फॉर्मूला तब भी वही इस्तेमाल होता था जो आज हो रहा है कि ‘चुराओ ऐसी जगह से जहां तक पहुंचते-पहुंचते जनता को दशकों लग जाएं’। कल Sergio Leone की पटकथा से उठाकर चीजें फीचर फिल्म के रूप में सिनेमा हॉल में रिलीज़ करी जाती थीं आज David Lynch से उठा करके हल्के फेरबदल के बाद नैटफ्लिक्स आदि प्लेटफॉर्म्स पर की जाती हैं क्योंकि वे यह जानते हैं कि David Lynch, Denis Villeneuve आदि तक पहुंचने में भारतीय दर्शकों को अभी शायद दशक भर और लगे, तो क्यों ना तब तक इससे फायदा उठाया जाए। यह बात अलग है कि जनता ने इन कोशिशों को भी सिरे से नकार दिया और इस तरीके की फिल्में भी औंधे मुंह गिरीं। इस पर वही कहावत याद आती है कि नकल के लिए भी अक्ल चाहिए।
काफी हद तक वे भी समझ चुके हैं कि जनता अब उन्हें एवं उनके काम को देखना पसंद नहीं करती है, इसलिए अब अपनी हरकतों से नाच ना जाने आंगन टेढ़ा वाली कहावत को साबित करने में जुटे हैं। फिल्म फ्लॉप होने पर मान लिया जाता है कि दर्शकों को समझ नहीं आई, आर्ट की पहचान और कद्र दोनों ही नहीं है हमारे यहां। अरे साहब हो सकता है दर्शकों से एक बार गलती हुई हो दो बार गलती हुई हो लेकिन अगर बार-बार आपको दर्शकों की ही गलती लग रही है तो आपको नहीं लगता कि आप ही को आत्मावलोकन की आवश्यकता है। प्रोपेगेंडा, हिंदूफोबिया हर चीज़ का सहारा लेकर देख तो लिया ही है, एक दफा यह भी सही। क्या पता कुछ अच्छा बन जाए और आपकी डूबती हुई करियर की नैया को एक तिनके का सहारा मात्र ही मिल जाए और आपको Cinema-Filmmaking-Art जैसे बड़े-बड़े शब्दों से अपनी नकारात्मकता और नाकामी को छिपाने की आवश्यकता ही ना पड़े। वरना OTT प्लेटफॉर्म्स की MNREGA योजना तो आ ही गई है, गड्ढे खोदते रहिए और पैसे बनाते रहिए। वैसे थिएटर में भी आपको अभी कुछ साल और वो 17-18-19 साल के स्टूडेंट्स अपनी जेब खर्च से 250-300₹ देते ही रहेंगे यह सोचकर कि ‘यही लाएगा सिनेमा में रेवोलूशन भाई, यही है असली क्रांतिकारी film maker बाकी सब तो चाय कम पानी हैं.. सब चोरियां कर रहे हैं असली काम तो यही कर रहा है’।