Saturday, October 12, 2024

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Cinema-Filmmaking-Art-भारी शब्दों का प्रयोग करके अपनी धूर्तता छिपाती हल्की हिंदी फिल्म इंडस्ट्री

वर्षों की गुलामी के कारण हमारी मनोस्थिति ही ऐसी हो गयी है कि मनोरंजन की डिश में भी जब तक पश्चिमी तड़का न लगे वह हमें स्वाद नहीं देती या यूं कहें कि ये डिश बनाने वाले बावर्ची हमारी स्वाद कलिकाओं को विकसित ही नहीं होने देना चाहते ताकि अपने घटिया व्यंजन परोसते रहें और हम उन्हें ही मालपूआ समझ कर ग्रहण करते रहें।

IIT Bombay professor in plagiarism row

The quality of research done in India poses many serious questions to ethics and infrastructure followed in Indian universities

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