कितना अजीब है ना कि एक रात आप सोते हैं वही घिसी पिटी rom-com की कहानी का फर्स्ट ड्राफ्ट दिमाग में सोचते हुए और अगली सुबह उठते हैं और आपको याद आता है कि अचानक से देश में आपातकाल जैसी स्थिति बन गई है। अल्पसंख्यकों पर अत्याचार हो रहा है, दलितों पर अत्याचार होने लगा है, औरतों पर अत्याचार शुरू हो गया है, कलाकारों की बोलने और अपनी विचारधारा व्यक्त करने की आजा़दी पर अंकुश लग गया है और तभी आप एक निर्णय लेते हैं कि आज से आपके अंदर का सच्चा कलाकार जाग जाएगा और आप अपने सिनेमा और लेखन के द्वारा देश में अलग किस्म की क्रांति लाएंगे। (वैसे देखा जाए तो यह अपने आप में ही एक बहुत अच्छी फिक्शनल फिल्म की स्क्रिप्ट बन सकती है)
तो ऐसा ही कुछ हुआ है बॉलीवुड के जाने-माने निर्देशक श्री अनुभव सिन्हा जी के साथ, जी हां यह वही अनुभव सिन्हा हैं जो 2014 से पहले ‘दस’ और ‘कैश’ जैसी सूपरहिट एक्शन थ्रिलर और RAONE जैसी सुपर-डुपर हिट उच्च कोटि की साइंस फिक्शन बनाने के लिए मशहूर हुए। ऊपर rom-com की बात भी लिखी गई है क्योंकि इस महान कलाकार व्यक्ति ने तुम बिन-2 जैसी फिल्मों का भी निर्देशन किया लेकिन बॉलीवुड के उस क्रिंज कोने की तरफ रुख ना ही किया जाए तो अच्छा है। लेकिन जैसा कि हम जानते हैं कि 2014 के बाद अचानक बॉलीवुड और अन्य कला क्षेत्रों में भी कई लोगों के अंदर की कला एवं उनके भाव लेनिन के ब्रेन हैमरेज की तरह फूटकर बाहर निकले हैं(या यूं कहें कि उसी तरह निकाले गए हैं), तो इस महान निर्देशक ने भी बहती गंगा में हाथ धोने का सोचा और अचानक से इनके अंदर का भारतीय समाज और Secularism का रक्षक और नारीवादी उभर कर बाहर आ गया।
2018 में सर की फिल्म आती है मुल्क जिसमें befitting reply वाली ताप्सी पन्नू ने मुख्य किरदार निभाया है, इस बात में कोई शक नहीं है कि मुल्क फिल्म में अच्छी लिखाई एवं अदाकारी हुई, अगर फिल्म मेकिंग के नज़रिए से देखा जाए तो मुल्क एक अच्छी कहानी, स्क्रिप्ट एवं अदाकारी का प्रदर्शन करती है, लेकिन वर्णनात्मक तौर पर मुल्क फिल्म एक प्रोपेगेंडा से भरी स्क्रिप्ट से ज्यादा और कुछ नहीं। फिल्म में एक अच्छा संदेश एवं शिक्षा दी गई है कि देश का हर मुसलमान आतंकवादी नहीं है और ना ही उसे इस नज़रिए से देखा जाना चाहिए, लेकिन फिल्म अपने सेकंड हाफ में कब इस संदेश से कहीं दूर उस प्रोपेगेंडा की तरफ निकल जाती है जहां एक देशभक्त मुसलमान पुलिसवाले को इस बात पर कोर्ट में दोषी प्रतीत करा दिया जाता है कि जैसे उसने एक आतंकवादी को मारकर उस आतंकवादी से भी बड़ा गुनाह कर दिया है यह दर्शकों को पता भी नहीं चलता। जबकि फिल्म में यह साफ समझ आता है कि इंस्पेक्टर बने रजत कपूर ने आतंकवादी पर गोली कुछ सिद्ध करने के लिए नहीं बल्किअपनी और अपनी टीम की जान बचाने के लिए चलाई थी।अब क्या है कि देश के इन एलीट क्लास लेखक एवं निर्देशकों को यह समझाना बहुत मुश्किल है किसी हथियारों से लैस आतंकवादी को befitting reply देकर तो नहीं रोका जा सकता, वहां तो गोली ही चलानी पड़ती है।
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एमयू) से पढ़े अनुभव सिन्हा 2019 में अचानक से दलित समुदाय के स्वघोषित नेता बन जाते हैं जब वे अपनी दूसरी फिल्म आर्टिकल 15 बनाते हैं जिसे तथाकथित सत्य घटनाओं पर आधारित कहकर प्रदर्शित किया गया जो कि काफी हद तक सही भी था अगर सिन्हा साहब के वामपंथी एजेंडा को उसमें से थोड़ा सा घटा दिया जाता। फिल्म मूलतः 2014 बदायूं उत्तर प्रदेश रेप केस पर आधारित थी जिसमें 3 युवकों ने एक दलित महिला का रेप करने के बाद उसकी हत्या की थी। फिल्म को सत्य घटनाओं पर आधारित कहकर बेचा जाता है और उसमें आरोपित युवाओं को उच्च जाति (ब्राह्मण) का बताया जाता है और उन्हें ‘महंत जी’ का आदमी कह कर संबोधित किया जाता है (जो कि तथ्यात्मक तौर पर एकदम गलत था)। अब यह बात तो मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति समझ सकता है कि ‘महंत जी’ कहकर किसको संबोधित करने की कोशिश की गई है एवं यह प्रोपेगेंडा किस समुदाय या जाति या पार्टी को मस्तिष्क में रखकर गढ़ा गया है। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि रेप जैसा जघन्य एवं अमानवीय अपराध कोई जाति, समुदाय या धर्म नहीं बल्कि एक सोच करती है, लेकिन आर्टिकल 15 जैसी फिल्म में इस जघन्य अपराध को जाति के एंगल से जोड़कर निर्देशक अनुभव सिन्हा ने बेशक ही एक घिनौना कृत्य किया है।
इससे यह साफ होता है कि उनकी मंशा समाज के एक अमानवीय अपराध पर फिल्म बनाने की नहीं बल्कि कुछ समुदायों को आपस में लड़वाने की रही थी। अगर ऐसा न होता तो वे आरोपितों को किसी एक समुदाय का न दिखाकर किसी भी अलग-अलग समुदायों का दिखा सकते थे और एक घिनौनी सोच से ग्रसित दिखा सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया क्योंकि वामपंथ का हमेशा से नारा रहा है कि अजेंडा ऊंचा रहे हमारा। वामपंथियों का यह इतिहास रहा है कि अपने एजेंडा को ऊपर रखने के लिए यह किसी भी कृत्य में मनघड़ंत नाम एवं किरदार जोड़ देते हैं और आपस में एक दूसरे की पीठ थपथपा कर और शाबाशी देकर स्वयं को स्वघोषित कलाकार एवं लेखक सिद्ध कर देते हैं। इसका एक जीता जागता उदाहरण अनुराग कश्यप की वेब सीरीज सैक्रेड गेम्स भी है जिसमें एक ऐसी ही मनघड़ंत रचना की गई एवं हिंदू नाम के पात्र दिखाकर अपना अजेंडा चलाने और हिंदूफोबिया फैलाने की अपार कोशिश की गई, यह बात अलग है कि इस वेब सीरीज़ के दूसरे संस्करण को दर्शकों ने उसी प्रकार नकारा जिस प्रकार अनुराग कश्यप की बाकी सुपरहिट फिल्में जैसे कि बॉम्बे वेलवेट एवं मनमर्जियां को। लेकिन यह समझना कि इन तथाकथित बुद्धिजीवी निर्देशकों को इन कृत्यों से जरा सी भी अक्ल आएगी वैसा ही है जैसा कि भैंस के आगे बीन बजाना।
लेकिन अगर ऐसा नहीं है और अनुभव सिन्हा एक एजेंडा से भरे निर्देशक नहीं बल्कि सचमुच दलितों के पक्ष कार एवं भला चाहने वाले व्यक्ति हैं तो उनसे यह सवाल तो बनता ही है कि क्या वे अपनी यूनिवर्सिटी जिसके वह alumni रहे हैं यानी कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) में दलित आरक्षण के मुद्दे को उठाएंगे..? या इस मुद्दे को उठाने वालों का साथ देंगे..? क्या देश के अन्य विश्वविद्यालयों की तरह एएमयू जैसे विश्वविद्यालय में भी दलितों को आरक्षण का अधिकार नहीं..?
अगर आप भी यह लेख पढ़ रहे हैं तो आपसे अनुरोध है कि कृपा करके महान निर्देशक श्री अनुभव सिन्हा से ट्वीट या मैसेज करके यह सवाल अवश्य करें, क्योंकि उनके प्रशंसक एवं सारा देश इन सवालों के जवाब या कम से कम सिन्हा साहब की इस मुद्दे पर राय जानने का अधिकार तो रखता ही है।