Friday, April 26, 2024
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विस्थापन: दर्द की कहानी

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Santosh Pathak
Santosh Pathak
Political Scientist and State Media Incharge, BJP Bihar

भारत अनेकों कहानियों का संयोजन है. व्यक्ति और व्यक्तियों के समूहों की कहानियां हवाओं में तैरती रहती हैं. लेकिन भारत के ग्रामीण अंचलों के गद्य लेखन का जो रस अत्य्धीक प्रचलित रहा है वह विरह का है. बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के ग्रामीण अंचलों में बिरहा के गीत गाये जाते रहे हैं. बिरहा का मतलब ही विरह या विग्रह है, जिसके मूल में विस्थापन है. परदेशी, नौकरी-हा (नौकरी करने वाले) जैसे शब्द लगभग सभी सामजिक समूह की कहानी है. ग्रामीण भारत से जो भीड़ उखड़ी, वही शहरों में परदेशी या नौकरी-हा हो गयी है. इस समूह के परिचय में कोई ख़ास तबका या जाति समूह के लोग नहीं है, वस्तुतः समाज के वे संभ्रांत लोग जिन्हें जिंदगी से ज्यादा की अपेक्षा है, वो विस्थापित हो गए और वो भी जिनके पास विस्थापन के अलावा कोई अन्य विकल्प उबलब्ध नहीं था. गंगा जैसी नदी तथा खेती हेतु उपजाऊं जमीन उपलब्ध होने की वजह से उत्तर प्रदेश, बिहार मुख्यतः कृषि आधारित रहे और यहाँ की जनसँख्या भी तेजी से बढ़ी, परन्तु पूरी जनसँख्या जमीन की प्रचुरता के वावजूद उस पर आधारित नहीं रह सकती जो विस्थापन की मौलिक वजह है. कुछ जाति समूहों के पास ज़मीन का ना होना भी उनके समग्र विस्थापन की वजह है.

कोरोना वायरस के मद्देनज़र सम्पुर्ण बंदी के दौर में इस वर्ग के लोगों को सर्वाधिक नुकसान होने की संभावना व्यक्त की जा रही है. दिल्ली से वापस घर के तरफ लौटने की तस्वीरें व्याकुल कर देने वाली है. गंभीर मेडिकल आपातकाल में अपने जीवन को ताक पर रखकर लौट रहा यह वर्ग क्या कोरोना की चुनौतियों से अनभिज्ञ है, या विकल्पहीनता से निराश- अब जो होगा देखा जायेगा- सोंचकर 1000 किमी के पैदल रस्ते पर चल निकला है? क्या भारत जैसे कल्याणकारी राज्य की अवधारणा में ये समूह कहीं आते हैं? क्या राज्य इस स्थिति में हैं की इनके अच्छे जीवन की कल्पना में कुछ हस्तक्षेप कर सके? क्या भारत की वर्तमान आर्थिक संरचना इनके जीवन को सु-संगठित करके सुखमय बना सकती हैं जिसकी कल्पना में ये विस्थापन कर गए? इनके आकार, प्रकार, वर्तमान भारत के आर्थिक तंत्र में इनकी भूमिका और इनके चुनौतियों पर प्रकाश डालना आवश्यक है.

सरकार या किसी संस्था के पास पलायित जनसंख्या का कोई वास्तविक आंकडा नहीं है, परन्तु साधारण तौर कुछ आंकड़े उपलब्ध हैं. भारत की कुल कार्यरत जनसख्या लगभग 45 करोड़ है, जिनमे पलायित सहित असंगठित क्षेत्र के लोगों की संख्या 41.6 करोड़ है, जो कुल कार्यरत संख्या का 93 प्रतिशत हिस्सा है. अपने गाँवों को छोड़कर अपने ही राज्यों के बड़े शहरों में बस जाने वाले लोगों की संख्या भी इस आंकड़े में जोड़ दी गयी है. आई. आई. एम्. की अर्थशास्त्री रितिका खेडा का अध्ययन है की 41.6 करोड़ में से लगभग एक तिहाई हिस्सा दिहाड़ी मजदुर है और इनकी परोक्ष आय 3000-4000 हज़ार रूपए मासिक है. इसी प्रकार पेरीओडीक लेबर फ़ोर्स सर्वे की रिपोर्ट है की असंगठित क्षेत्र (गैर कृषि) के 71 प्रतिशत कर्मियों के पास जॉब कॉन्ट्रैक्ट भी नहीं है और इसमें से 49.6 प्रतिशत लोगों के पास किसी भी प्रकार का सामजिक सुरक्षा कवच नहीं है. आखिर ये कौन लोग हैं? हकीकत है की यह वर्ग सर्विस सेक्टर से जुडा ऐसा वर्ग है जिसके सानिध्य में हम सभी जीवन जीते हैं और रोज किसी ना किसी बहाने हम इनसे मिलते हैं. इनके कार्य मुख्य रूप से स्वरोजगार वाले हैं. कई छोटे दुकानदार हैं, मल्टीप्लेक्स के कामगार, निर्माण कार्यों में लगे मजदुर, होटल-रेस्तरा के बैरे, माइनिंग के मजदुर सब्जी वाले, रेहड़ी वाले, ठेले वाले, क़र्ज़ लेकर ऑटो रिक्शा-ऑटो चालक, सैलून, साइकिल रिपेयरिंग, बाइक रिपेयरिंग, ड्राईवर, खलासी, मालवाहक, या मोची हैं. आज जो हम सड़कों पर भीड़ देख रहे हैं, इसी समूह से आते है. इनके पास किसी तरह का सुरक्षा कवच नहीं है.

यह असंगठित वर्ग इतना व्यापक है की किसी सरकार में हिम्मत नहीं पड़ती थी कि इनकी पड़ताल करे. नरेन्द्र मोदी के सरकार में आने के बाद अनेकों तरह की नीतियाँ आयी हैं जो उम्मीद जगाती हैं.

बैंक अर्थव्यवस्था के आधार होते हैं. 1969 में इंदिरा गाँधी ने बांको का राष्ट्रीयकरण किया था वावजूद उसके इस देश में बड़ी आबादी आजतक बैंको के दरवाजे तक भी नहीं पहुचीं थी. इस कमी को दूर करने में जनधन योजना काफी हद तक सफल हुई है. 38.29 करोड़ जनधन खाते खुले हैं और इन खाताधारको को पहली बार औपचारिक अर्थव्यवस्था (फोर्मल इकॉनमी) के दायरे में लाया गया है. वस्तुतः आज़ादी के बाद ही जब हमने समाजवादी नीतियों का अनुसरण किया उसी में एक निहित त्रुटी थी. वह त्रुटी बिचौलिया खड़ा करने कि है. बिचौलियों से भरपूर हमारी व्यवस्था लाभकारी भ्रस्टाचार के समायोजन से चलती रही है. बैंक के खाते खुलने के बाद इस वर्ग को डायरेक्ट बेनिफिट ट्रान्सफर स्कीम से जोड़ दिया गया है और इनके हिस्से कि सब्सिडी इनके बैंक खातों में सीधे मिलने लगी है.

बीमा सुरक्षा उच्च वर्गों तक सीमित रहा था क्यूंकि इनकी आय में वह ताकत नहीं है कि ये नियत समय पर बीमा के इन्स्ताल्मेंट्स को चुका सके. कईयों ने बीमा जरुर कराया, परन्तु बाद में सामर्थ्य से बाहर हो जाने कि वजह से उसे बंद करा दिया या वह स्वयं डोर्मेंट हो गया. आज बीमा 12 रूपये में खरीदी जा सकती है और इस देश के बड़े संख्या में लोगों के सुकन्या, प्रधानमंत्री बीमा योजना के अंतर्गत को बीमित भी कराया है.

इन सारे प्रयासों की बाद भी असंगठित क्षेत्र का आदमी सुरक्षित महसूस नहीं करता क्यूंकि वह पूँजी से कमजोर है. आज बाज़ार का दौर है, बाज़ार वस्तुओं से भरा पडा है और यही खर्चे की अधिकता का मौलिक वाहक भी है. आज बचत की दर कम होती जा रही है और आदमी को अपना भविष्य अंधकारमय या संकट में दिख रहा है.

कोरोना के खिलाफ संघर्ष के बीच जब यह वर्ग अपने घरों से बाहर निकल आया है क्यूंकि आर्थिक तंत्र उसका सहयोग नहीं करता है. काम बंद होते ही नियोक्ता नौकरियों से बाहर कर देता है और मकान मालिक दुगनी तेजी किराया मांगने लगता है. रोटी और मकान के बीच इनकी जिन्दगी झूलती रहती है. जब कभी प्राकृतिक, राजनितिक संकट आता है तब यह वर्ग निसहाय अन्धकार में अपना भविष्य सोचता है और मायूस होता है. हम यह कह सकते हैं की ये लोग कई वजहों से स्वयं को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं, और इसके पास कोरोना से लड़ाई लड़ने में कोई दिलचस्पी भी नहीं है. वर्ना ये लोग नरेन्द्र मोदी के आह्वान की बाद घरों से बाहर नहीं निकलते.

लेकिन इनके संकटों का समाधान सिर्फ घर की देहरी तक पहुच जाने से नहीं होगा. इनके साथ भी लगभग वैसा ही संकट आएगा जो एक लघु, मध्यम आकार के औद्यगिक इकाइयों को आने वाला है. सम्पूर्ण बंदी के दौरान पैसे की आवक बंद हो जायेगी और नियोक्ता किसी भी सुरत में इनको वेतन नहीं देंगे. छोटे आकार के औद्योगिक इकाइयों में काम कराने वाले और करने वाले एक दुसरे पर आधारित हैं परन्तु वो वेतन का भार क्यूँ सहना चाहेगा? अंत में इस वर्ग के पास जो जमा पूँजी है वो जल्द ही टूट जायेगी और उनका संकट अभी और बढेगा. बिहार जैसे आर्थिक रूप से निष्क्रिय राज्य में स्थिति और विस्फोटक होने की सम्भावना है. पारिवारिक विवाद बढ़ सकते हैं, क्राइम में वृद्धि संभव है और निरसता के भी बढ़ने की संभावना है.

विरह के गीत कोरोना संकट के बाद फिर से गाये जायंगे फिर भी गाये जायेंगे क्यूंकि ये ऐसा रस है जो बिहार के कणों में सदियों से विराजित है, शायद तब से जब हम पहली बार गिरमिटिया कहे गए थे. लेकिन बिहार की धरती अनेकों थपेड़ों के बाद भी खड़ी हो सकती है. विपत्तियों से बिहार का नाता पुराना है और जीवन के गीत को तो फिर भी गाना है. जीवंतता बिहार की पहचान है और जैसा की रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं –

‘सच है, विपत्ति जब आती है
कायर को ही दहलाती है
सुरमा नहीं विचलित होते
क्षण एक नहीं धीरज खोते
विघ्नों को गले लगाते हैं
काँटों में राह बनाते हैं |’

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