भारत विभिन्न धार्मिक मतावलंबीयों का निवास स्थान है। बहुधा दुनिया के सभी धार्मिक पहचान के व्यक्ति भारत में निवासी हैं और रहेंगे, क्यूंकि भारतीय समाज का स्वभाव एकांगी नहीं है। यह प्रचलन समाज में हिन्दू कि बहुलता से है। गैर भारतीय पंथ भी जैसे क्रिस्चन आराम से भारत में निवासित हैं, और स्व-भारतीय परन्तु गैर हिन्दू धार्मिक समूह जैसे बौध, पारसी, जैन और सिख तो इसी ऋतू,रीती में घुले, मिले लगते हैं जैसे हिन्दू रहते हैं। भारतीय धार्मिक समूहों में इस्लाम ही एक मात्र गैर भारतीय धार्मिक समूह हैं जो पृथक, एकांगी हैं, तथा मिलनसार नहीं बनते। हर सामजिक समूह जो आधुनिक युग में राष्ट्र-राज्य के लकीरों में खीचे गए हैं, उन्होंने बेजोड़ तरक्की की है, लेकिन क्या भारतीय इस्लाम एक खास सपने के साथ जीता रहा है, जिसकी वजह से वह मुक्कमल तरक्की नहीं कर पा रहा? वह सपना क्या है? क्या उस सपने ने इस समाज को एक दिशा दी है, फिर उसकी दशा क्या होगी? इस दिशा में विचार करने के पीछे क्या सहायक कारण है, कौन से आर्थिक पक्ष हैं, और सामाजिक जनजागरण की दृष्टी से उन्होंने स्वयं को क्यूँ और कैसे वंचित रखा है? ये ऐसे प्रश्न हैं जिनपर भारत में कभी खुल कर बात नहीं होती हैं। आज कोरोना के चपेट में जब पूरा देश अपने घरों में कैद है तथा देश-समाज के स्वस्थ भविष्य के लिए कई प्रकार के आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रहा है तब भी इनका व्यवहार इतना बेरुखा, नीरस, गैरजिम्मेवार एवं स्वपनिल क्यूँ है, इस पर खुल कर बात होनी चाहिए? हम उस सपने के प्रत्यक्षता को अनदेखा करके इनके व्यवहार को समझ नहीं सकते।
इस लेखन के मूल में उस सपने को उजागर करना तथा उस सपने के साधक और साधनों कि भी पहचान करना है। इसके लिए हमें देश की राजनीति का प्रकार, समाज और राजनीति का समन्वय तथा इसके लाभार्थी समूहों की पड़ताल करनी पड़ेगी।
भारत एक लोकतान्त्रिक प्रणाली का देश है, जिसमे अतीत में झांकें बिना संजीदा वर्तमान तथा सुंदर भविष्य की कल्पना है। लोकतंत्र को गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा, वैज्ञानिक शोध, उद्योगों का विकास एवं गौरवयुक्त जीवन का आधार माना गया है। लेकिन भारत कि राजनीति 1976 के एक संवैधानिक संसोधन पर आकर टीक गयी है। राजेंद्र प्रसाद एवं बाबा साहब आंबेडकर जैसे संविधान निर्माताओं के ज्ञान को ठोकर मारकर इंदिरा गाँधी सरकार के द्वारा इमरजेंसी के दौरान 42 वें संविधान संसोधन को प्रस्तुत किया गया और विद्वानों का मत है कि इस संवैधानिक संसोधन ने संविधान के अन्दर ही एक छोटा संविधान निर्मित किया है तथा इससे भारत कि आत्मा पर आघात पंहुचा है। इस संसोधन के कई पहलु थे जिनमे सबसे बड़ा अंतर संविधान के प्रस्तावना में समाजवादी तथा सेक्युलर शब्द के जोड़े जाने से आया था।
इस संसोधन ने भारतीय मुस्लिम जमात को कांग्रेस के साथ स्थाई तौर पर जोड़ दिया और देश में नयी राजनीति की आधारशिला रखी। आजाद भारत की राजनीति में धर्म का मिश्रण इसी निर्णय से होना शुरू हुआ था। इस संसोधन के राजनितिक पक्ष तो थे ही पर इससे निकले जिन्न ने सम्पूर्ण मुस्लिम समुदाय को उस सपने को देखने हेतु एक सुंदर सेज सज़ा दी थी। 1980 के दशक में इनकी राजनितिक ताकत में इतना इजाफा हो गया था कि शाह बानो के केस में इन्होने राजीव गाँधी कि अविजित सरकार कि इंट से इंट बजा दी और सरकार को इनके सामने झुककर सुप्रीम कोर्ट के सर्वोच्च तथा संविधान सम्मत निर्णय को भी संसद से बदलवा दिया। शरियत का कानून लोकतंत्र तथा संविधान के मर्यादा का उपहास करता रहा। कुछ ही समय में सरकार के कई नीतिगत और महत्वपूर्ण फैसले दिल्ली जामा मस्जिद के शाही इमाम के इशारों पर होने लगे। इन फैसलों में तब्दीलियाँ और इनका कोई मजबूत विरोध नहीं होना इनके सपने को और बुलंद करता रहा है।
1980 के दशक के अंतिम वर्षों में इनका स्वभाव उग्र होने लगा और कई जगहों से देश भर में फतवों कि बाढ़ आ गई। ये फतवे शरिया के आधार पर जारी होते रहे, परन्तु समाज के किसी तबके से उन्हें संविधान सम्मत तथा आधुनिक परिवेश के अनुकूल बनाने कि कोशिश नहीं दिखाई पड़ी। लोकतंत्र कि अपनी मर्यादा होती है और समाज को उस दृष्टी से सींचकर खड़ा करना राजनितिक जमात का मौलिक काम होता है, लेकिन भारत के चक्रवर्ती राजनितिक परिवार एवं उसके तंत्र ने अनजाने में या जानबूझकर उस सपने के दोहन में अपना भविष्य देख लिया जिसमे उसका वर्तमान तो राजगद्दी पर बैठा है, परन्तु भविष्य शायद सुखद नहीं है। आज सी.ए.ए. और एन.आर.सी. जैसे महत्वपूर्ण कानूनों का अनुपालन नही होना और कोरोना जैसे महामारी के वक्त अस्पतालों में स्वास्थ्यकर्मियों के सामने नंगे घूमना उसी संकट कि एक कड़ी है। मंडल कमिशन के आगमन ने कांग्रेस कि लुटिया डुबो दी। कांग्रेस कि लुटिया डूबने के पीछे यही वोटबैंक कारण बना। पिछड़ों कि राजनीति का जन्म हुआ और जब इस भीड़ को यह लगा कि अगले शासक यही समाजवादी होंगे, उसने बिना हिचक कांग्रेस को धोखा दिया और समाजवादी बन बैठे। वस्तुतः एक बड़ा वोट बैंक खड़ा हो रहा था जो लोकतंत्र के मर्यादा के विपरीत बिना लाभ-हानि के ज्ञान के, बिना किसी पछतावे के भीड़ की शक्ल ले रहा था। इंदौर में स्वास्थ्यकर्मियों पर पत्थरबाजी करना उनके इसी सोंच का परिचायक है। किसी भी मर्यादित समाज के लिए जहाँ पर राजा को जनता द्वारा चुना जाना है, उसके लिए ऐसे प्रयोग अच्छे नहीं होते यह जानते हुए भी यह समाज कभी गलत को गलत नहीं कहता है। आखिर क्यों? शिक्षा, बेरोजगारी, व्यवस्थित जीवन, संविधान सम्मत न्याय, स्वास्थ्य या सामुच्य में कहें तो विकास क्या इस समाज कि अपेक्षा नहीं है?
इस वर्ग ने अपने सपने के पीछे आर्थिक उपार्जन के मद में भी अच्छी मेहनत कि है। उस सपने के हासिल होने में अर्थ (पैसा) का होना एक अनिवार्य शर्त है। इनके पास ज़मीन नहीं है, इसलिए ये भारत के शहरों के रहवासी है। भारत के संगठित नौकरियों में इनकी पहुँच कम है क्यूंकि ये आधुनिक शिक्षा से दूर मदरसों में तालीम पाते रहे हैं, लेकिन यह समाज भारत के गैर औपचारिक (इनफॉर्मल) अर्थव्यवस्था के मूल स्तम्भ हैं। भारत में असंगठित क्षेत्र कुल कार्यरत संख्या का 93 प्रतिशत है, और मुस्लिम समाज हर वह काम करता है जिससे कैश में पैसा कमाया जा सकता है। अनाज के व्यापार में, फलों के थोक कि मंडियों पर, बाइक-कार के रिपेयरिंग में, टायर और पंक्चर के दुकानों पर, रेहड़ी लगाने वाले में, कपड़ों के ट्रेडिंग में, दिहाड़ी मजदूरी सहित हवाला के कारोबार, स्मगलिंग तथा संगठित अपराध से भी ये कैश में पैसे कमाते हैं। आई.एम् ऍफ़ के 2016-2017 के एक रिसर्च पेपर में भारत के गैर औपचारिक अर्थव्यवस्था का कुल योग पूरी अर्थव्यवस्था का लगभग 40 प्रतिशत बताया गया है। नोटबंदी के बाद में उभरी परिस्थितियों में भी आर्थिक सर्वेक्षण में यह कुल अर्थव्यवस्था का 25 से 35 प्रतिशत के आसपास बताई गयी है। क्या ये आंकड़े यह स्पस्ट नहीं करते कि ये आर्थिक रूप से इतने कमजोर नहीं हैं, जितने ये बताये जाते रहे हैं? क्या इनके पास इतने पैसे नहीं हैं कि ये उस सपने को साकार करने कि दिशा में प्रयास कर सकें?
उस सपने को साकार करने के साधनों-उपक्रमों में राजनीति के साथ साथ कुछ अन्य तत्व भी हैं जो इनकी मदद करती है। मीडिया एक महत्वपूर्ण जरिया है जो भारतीय कम्युनिज्म के साथ जुड़कर इन्हें हर मसले पर विक्टिम यानी भारतीय राजव्यवस्था के द्वारा शिकार किये गए समुदाय के रूप में प्रस्तुत करती रही है। राजव्यवस्था तथा भारत के इतिहास का लेखन करने वाले संभ्रांत लोगों के गिरोह ने इनके सपने को बल प्रदान किया है। इस समाज के गरीब तबकों में इन लोगों यह विश्वास पैदा किया है कि भारत में उनका सामाजिक-आर्थिक शोषण होता है, जिससे इसी जमात के संभ्रांत वर्ग को उनको मजबूत एकल-दिशा में वोट करने वाले भीड़ में तब्दील करने में आसानी हुई है। भारत के मिट्टी में ही राजव्यवस्था के खिलाफ संघर्ष कि अनेकों कहानियां प्रचलित रही हैं, तब इस परिस्थिति में इस समाज के द्वारा कभी गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा, स्वास्थ्य आदि के मद में आन्दोलन कभी क्यूँ नहीं दिखता है? तीन-तलाक़ जैसे गंभीर मुद्दे पर नरेन्द्र मोदी कि सरकार द्वारा वृहद कानून बनाये जाने के बाद भी इस समाज कि महिलाओं द्वारा उत्साह्पूर्ण अट्ठाहस क्यूँ नहीं दिखता? समय परिवर्तनशील है और समाज में भी बहुधा शोषण के खिलाफ संघर्ष से ही बदलाव आता है, फिर ये बदलाव का ज़ज्बा इस समाज में क्यूँ नहीं द्र्स्टव्य होता है? क्या उस सपने के लक्ष्य में सभी प्रकार के शोषण गौण हो गए हैं और भीड़ तंत्र से यह समाज कुछ और जीतना चाहता है? वह क्या जीतना चाहता है?
इस लेख को पढ़कर कुछ लोग कह सकते हैं कि चुपके से भाजपा की ध्रुवीकरण कि राजनीति पर पर्दा डाल दिया गया है। लेकिन भाजपा ने तो इस वर्ग कि शक्ति को बढाया ही है। भाजपा कि मांगे क्या है, उसके दर्शन में इस्लाम मतावलंबियों के लिए कौन से कष्ट के कारक हैं? भाजपा कि प्राथमिक मांग अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण था और इसके लिए उसने उत्तर भारत में हिन्दुओं का ध्रुवीकरण किया है। यह सत्य भी है, लेकिन क्या हिन्दुओं के अराध्य देव श्रीराम हेतु उन्ही के जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण करना अधर्म का परिचायक है? कौन नहीं जानता कि श्रीराम अयोध्या में जन्मे और वहीँ के चक्रवर्ती सम्राट थे और बाबर ने उनके विशाल मंदिर को तोड़कर वहां मस्जिद निर्माण कराया था। क्या वेटिकेन सिटी से प्रभु यीशु का मंदिर विस्थापित किया सकता है। क्या मक्का से मस्जिद तोड़ी जा सकती है? मुस्लिम समाज से यह आग्रह क्यूँ नहीं निकला कि जहाँ श्रीराम का जन्मस्थान था वहीँ मंदिर बने? भाजपा कि दूसरी मांग थी कि देश में शरीयत का कानून हटे और और यूनिफार्म सिविल कोड लागू हो। क्या शरिया कानून शाह बानो जैसी मजलूमों में लिए भयंकर अपराध नहीं है? ये तो ऐसी मांगे थी, जिनपर राजनेताओं को पहले से काम करना चाहिए था। लेकिन उस जमात के सपने और एक दल कि शासन में बने रहने कि इच्छाओं ने इन आसानी से किये जाने कार्यों को दुर्गम बना दिया। फिर सवाल उठता है कि क्या भाजपा और कुछ अन्य दक्षिणपंथी पार्टियाँ मुस्लिम समाज के उसके पृथककरन (घेटोआइजेशन) के कारण हैं या फिर उस सपने में बाधक हैं?
यह समाज इस्लाम और हिन्दू समूहों में बंटा हुआ था। अकेले राम मंदिर के लिए इन समाज के लोगों के बीच 500 से ज्यादा वर्षों के संघर्ष कि गाथा मौजूद है। मेरा मानना है कि भाजपा उस सपने में बाधक तो कतई नहीं है बल्कि साधन अवश्य है। वस्तुतः किसी भी संघर्ष के लिए कोई ना कोई प्रत्यक्ष विपक्ष चाहिए जिसे प्रचारित करके एकत्रीकरण किया जा सके। इसलिए इस वर्ग के लिए भाजपा, कांग्रेस, समाजवादी, कम्युनिस्ट, मीडिया, लेखक, अर्थ, विक्टिम्हूड सभी सिर्फ साधन हैं। आखिर वह इतना बड़ा स्वप्न क्या है?
अपनी अनुपम कृति संस्कृति के चार अध्याय में रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं ‘भारत में मुसलमानों का अत्याचार इतना भयानक रहा है कि सारे संसार में उसका जोड़ नहीं मिलता। इन अत्याचारो के कारण हिन्दुओं के हृदय में इस्लाम के प्रति जो घृणा उत्पन्न हुई, उसके निशान अभी तक बाकी हैं। “इसी अध्याय में वह आगे लिखते हैं” ऐसी अवस्था में कौन वह राह है जिसपर चलकर हिन्दू मुसलमान के और मुसलमान हिन्दू के समीप पहुँच सकता है? हिन्दुओं कि मानसिक कठिनाई है कि इस्लाम का अत्याचार भूले नहीं भूलता और मुसलमान यह सोंचकर पस्त है कि जिस देश पर उनकी कभी हुकूमत चलती थी, उसी देश में उन्हें अल्पसंख्यक बनकर जीना पड रहा है।
आज हम केंद्र सरकार के बहुप्रतीक्षित सी.ए.ए., धारा 370 और राम मंदिर जैसे विषयों पर जब ऐतिहासिक कदम उठाते देख रहे हैं और साथ-साथ इनका अनर्गल विरोध और प्रलाप भी देख रहे हैं। मुस्लिम बहुल कश्मीर से हिन्दुओं के पलायन कि तस्वीरें भी देखते रहते हैं, तब क्या यह समझना कठीन है कि उनका सपना “दिल्ली के लालकिले पर फिर से मुगलिया परचम लहराता देखना है, वह सपना ‘गजवाये हिन्द’ कि स्थापना है।” यह विश्लेषण का अतिरेक नहीं है, क्यूंकि जब 1952-55 में ‘दिनकर’ इस विषय को समझ सकते थे और उस पुस्तक में प्रस्तावना लिखते हुए कि 30 जनवरी 1955 को नेहरु भी समझ रहे थे। क्या नेहरु ने उस दौर में इन अक्षरों को पढ़े बिना बिना पढ़े प्रस्तावना लिख दी थी? या वो इस चेतावनी को पढ़कर भी इसलिए शांतचित बने रहे कि वैश्विक शांति दूत कि उपाधि पा सकें? लेकिन यह ऐसी सोची समझी मकडजाल है जिसमे सब वर्तमान कि राजगद्दी से खुश हैं। आने वाली पीढ़ियों का कंटक कोई नहीं देखना चाहता।
रामचरित मानस में तुलसीदास कहते हैं कि “राजनीति समाज द्वारा संचालित हो तो समाज कि उन्नति होती है और अगर राजनीति समाज को संचालित करने लगे तो उसका पतन तय है।” इस्लाम सर्वदा से एक राजनितिक समाज का निर्माण करता है, इसलिए वे पृथक एवं एकांगी हैं। आज कोरोना जैसी महामारी के वक्त तबलीगी जमात जो कर रहा है और अनुयायियों को जो कोरोना फैलाने कि सलाह दे रहा है यह तो होना ही था। यह एक फतवा ही है। फलों, नोटों पर थूक लगाने के जो विडियो हम देख रहे हैं, और बैकग्राउंड से जो आवाजें आ रही हैं इसी दम पर तो सरकारों कि सेजें सजती आयी हैं। लेकिन उस सपने कि हकीकत जाननें के बाद हम इस खतरे पर कब विचार करेंगे और कब समाज को इनके धिक्कार करने कि दृष्टी में जागृत करेंगे, यह गंभीर प्रश्न है? याद रखें इतिहास स्वयं को दुहराता है, और दुर्भाग्य से मुगलिया परचम हमारा इतिहास रहा है, और गजवाये हिन्द उनका मकसद।