राहुल गांधी जी ने बड़े जोरदार तरीके से न्यूनतम आय योजना “न्याय” की घोषणा की जिसकी टैग लाइन रखी गई “अब होगा न्याय”। ऐसे में यह सवाल राहुल जी से पूछा जाना चाहिए कि आपकी पीढ़ियाँ “गरीबी हटाओ” का नारा देते हुए दशकों तक गरीबों के साथ अन्याय क्यों करती आईं थी? आज़ादी के बाद से वर्तमान तक जब देश में 60 सालों तक कांग्रेस की सरकार रही तब आपको न्याय करने की फुर्सत नहीं मिली और आज सत्ता की लोलुपता ने आपको न्यायाधिकारी बना दिया।
कांग्रेस की न्याय योजना:-
2014 के आम चुनावों में मात्र 44 सीटों पर सिमटने वाली कांग्रेस को जब इस बार भी अपनी जमीन सिमटती दिखी तो उसने “न्याय” नामक एक योजना का मृग जाल बिछाया। इसके अनुसार देश के गरीबों को हर माह 6000 अर्थात साल के 72000 देने का वचन दिया गया। इस योजना के तहत देश के लगभग 5 करोड़ परिवारों को फायदा होगा ऐसा अनुमान कांग्रेस के द्वारा लगाया जा रहा है। लेकिन इस योजना का अनुपालन किस तरह किया जाएगा और इस योजना के लिए आवश्यक विशाल धनराशि की व्यवस्था किस प्रकार की जाएगी इसका कोई रोडमैप नहीं दिखाई दे रहा है। “यूनिवर्सल बेसिक इनकम (यूबीआई)” देश के अंदर गरीबी के उन्मूलन के लिए अति आवश्यक है लेकिन यदि इसे मात्र सत्ता प्राप्ति के हथियार के रूप में उपयोग में लाया जाए तो यह देश की अर्थव्यवस्था के लिए बड़ा खतरा बन सकता है।
यूबीआई गहन चिंतन एवं शोध का विषय है। यह एक ऐसी आर्थिक परिकल्पना है जो न केवल अर्थशास्त्र के मूलभूत सिद्धांतों को परिवर्तित कर सकती है अपितु नए मांग आपूर्ति के मॉडल का सृजन भी कर सकती है। कोई भी आर्थिक नीति अपने उपलब्ध संसाधनों के अंतर्गत ही क्रियाशील होनी चाहिए। यदि अर्थशास्त्र को बदलने की इच्छा प्रबल है तो संसाधनों की उपलब्धता को बढ़ाना अति आवश्यक हो जाता है। लेकिन कांग्रेस की न्याय योजना न तो उपलब्ध संसाधनों के साथ न्याय करती दिख रही है और न ही यूबीआई की मूल अवधारणा के साथ।
राहुल गांधी जब अपनी इस महत्वकांक्षी योजना को गेम चेंजर बता रहे थे तब उन्होंने एक बार भी देश के अंदर दी जाने वाली किसी भी प्रकार की सब्सिडी को ख़त्म करने की बात नहीं की। इस मुद्दे पर उनकी चुप्पी अर्थव्यवस्था के साथ मजाक है। यूबीआई और सब्सिडी एक साथ नहीं चल सकते हैं। इन दोनों के मध्य एक विरोधाभासी सम्बन्ध है। फिर भी यदि सब्सिडी को यथावत बनाए रखने की योजना है तो निश्चित तौर पर वर्तमान में सुधारों की ओर अग्रसर कर व्यवस्था से छेड़छाड़ करनी होगी। वैसे भी राहुल जी के कुछ बड़बोले अर्थशास्त्री, मध्यम वर्ग पर कर के बोझ को बढ़ाने की मंशा जग जाहिर कर चुके हैं।
स्वतंत्रता के बाद से देश में अधिकतर कांग्रेस ही केंद्र में रही। कांग्रेस के अनुसार डिजिटल क्रांति का श्रेय भी राजीव जी को ही जाता है लेकिन आज तक उसे किसी भी नीति के अभूतपूर्व अनुपालन में कोई विशेष सफलता नहीं मिली। गरीबी हटाओ के नारे को भूल कर पूरा इतिहास छोड़ते हुए यदि कांग्रेस के प्रति दयालुता दिखाई जाए तो भी 2004 से 2014 तक का समय कौन भूल सकता है। ये समय भारत की अर्थव्यवस्था के लिए अत्यंत ही महत्वपूर्ण था। युवा भारत ऊर्जा से परिपूर्ण था। मेक इन इंडिया जैसे कार्यक्रम वास्तव में तभी धरातल में आ जाने चाहिए थे। कृषि का क्षेत्र निवेश एवं प्रोद्योगिकी की प्रतीक्षा में था। अर्थव्यवस्था का डिजिटलीकरण किया जाना चाहिए था। जबकि इनके पास एक महान अर्थशास्त्री, प्रधानमंत्री के रूप में थे। यूबीआई पर विचार करने के साथ उसे धरातल पर लाने का उचित समय था। लेकिन कांग्रेस की सरकार घोटालों और हिन्दू आतंकवाद जैसे षडयन्त्रों में व्यस्त थी। 2008 की वैश्विक मंदी झेल जाने वाला देश भी आर्थिक तौर पर कोई विशेष सफलता अर्जित नहीं कर सका। तब “न्याय” क्यों नहीं किया गया? क्या कारण था कि आधार की अवधारणा को विश्व के सामने लेकर आने वाले उसका उचित उपयोग नहीं कर पाए?
इसके पीछे कारण था इच्छाशक्ति और विज़न का अभाव जो कांग्रेस के भीतर आज भी है। कांग्रेस अभी भी कुर्सी के मोह से नहीं उबर पाई है और यही सत्ता का मोह कांग्रेस की विचारशीलता को कुंद कर रहा है। अर्थव्यवस्था के एक समूह से पैसे छीनकर दूसरे समूह में बांटना “न्याय” नहीं है और न ही इससे अर्थव्यवस्था समावेशी बनी रह पाएगी।
यदि वास्तव में कांग्रेस “न्याय” करना चाहती है तो उसे अर्थव्यवस्था से जुड़े सूक्ष्म एवं समष्टि सभी प्रकार के पहलुओं पर गंभीरता के साथ विचार करने की आवश्यकता है। यूबीआई बोलने और सुनने में जितनी आसान नीति लगती है, अनुपालन में वह उतनी ही जटिल और गंभीर है। ऐसे में मात्र वोटों की लालच में किसी भी पार्टी के द्वारा इसका दुरूपयोग करना देश के हित में तो बिलकुल भी नहीं है। आशा है कि ऐसा “न्याय” करने से पूर्व भारत की अर्थव्यवस्था पर भारतीय नजरिए से विचार किया जाए।