असहिष्णुता एक ऐसा शब्द जो हाल के दिनों में काफी चर्चा में रहा है,और कुछ बुद्धिजीवियों के द्वारा इस शब्द का प्रयोग बहुत बढ़ चढ़ कर किया गया है साथ ही साथ उनके द्वारा यह भी वक्तव्य दिया गया की देश में असहिष्णुता बढ़ी है।अगर आप किसी एक विचारधारा की मानसिकता को ही केवल तवज्जो देते हैं और फिर अगर कोई आपकी विचारधरा पे प्रश्न करता है और आपसे जबाब चाहता है तो आप उसको जबाब देने के बजाय असहिष्णुता का चोला ओढ़ कर बैठ जाते हैं ताकी कोई आपसे सवाल ही न करे।
भारत एक लोकतांत्रिक देश है लेकिन इस लोकतांत्रिक देश में आजादी के बाद ज्यादातर एक ही पार्टी की सरकार रही है या यूँ कहें की एक ही परिवार की सरकार रही है।एक ही तरह की मानसिकता एक ही तरह की विचारधारा का पनपना और फलना-फूलना लाजमी ही था। कुछ लोग जो दूसरी विचारधारा के तरफ झुके थे उनकी आवाज को या तो दबा दिया जाता था या अनसुना कर दिया जाता था, गौर करने वाली बात यह है की उन्होंने कभी भी ये नहीं कहा की देश में असहिष्णुता बढ़ी है।
सवाल करना न तो कभी गलत हुआ है और न ही कभी गलत होगा,हाँ ये जरूर है की अगर आपका सवाल किसी एक निश्चित विचारधारा की और झुका है और उसको प्रोत्साहित करता है तो उसे निष्पक्षता के चश्मे से नहीं देख सकते। हाल के दिनों में सवाल पूछने वाले भी एक ओर झुके नजर आते हैं और जबाब देने वालों के तो क्या कहने। देश में जब दशकों से एक ही विचारधारा को पाला-पोशा और बड़ा किया गया तो जवान होते होते तक उसका अहं इतना बढ़ चूका था की किसी का सवाल करना भी बर्दास्त नहीं हो पा रहा, तो रास्ता बस एक ही था या तो अपनी गलतियों को स्वीकार कर ले या सिरे से ख़ारिज कर दे। अपनी जवानी से बुढ़ापे की ओर बढ़ते उस अहंकारी विचारधारा ने असहिष्णुता का चोला ओढ़ लिया और अपनी गलतियों को मान लेने के बजाय देश की ओर ही ऊँगली उठा दी।खुद को सही साबित करने में यह भी भूल गए की यह देश उनका भी है और अगर इस देश में लोकत्नत्र है तो हर तरह की विचारधारा का होना भी जरुरी है।
असहिष्णुता देश में नहीं बढ़ी है बल्कि यह जवाब न देने का और सवाल करने वालों से बचने के लिए एक ढाल के रूप में इस्तेमाल किये जाने वाला एक हथियार है और कुछ नहीं।