पिछले कुछ दिनों से अलीगढ मुस्लिम विश्विद्यालय पे टंगी हुई मोहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर पर विवाद मेनस्ट्रीम मिडिया और सोशल मिडिया में छाया हुआ है। अलीगढ़ के भाजपा के संसद सतीश गौतम ने AMU के कुलपति को चिट्ठी लिखी और स्टूडेंट यूनियन हॉल में जिन्ना की तस्वीर टंगने का मकसद पूछा। बाद में कुलपति ने प्रत्युत्तर में लिखा की, “स्टूडेंट यूनियन एक स्वायत संस्था है। और जिन्ना को १९३८ से जिन्ना को आजीवन सभ्यपद मिला हुआ था। इसीलिए वहां पर ये फोटो लगी हुई है। ”
सोशल मीडिया में खबरे फैलते देरी नहीं लगती, जैसे ही यह खबर फैली की ट्विटर पर विवाद चालू हो गया। लेकिन इसमें एक बात गौर करने लायक निकली की, भारत में रहकर जिन्ना की तरफदारी करने वाले लोग कम नहीं है। परंतु यह लोग इस बात को खुल्लेआम बोल नहीं सकते। सामान्य रूप से यह लोग AMU के रेडिकल छात्र या फिर कामरेड है।
देखने लायक बात यह भी है की, भारत के कुछ कट्टर सेक्युलर लोग जिन्ना की सीधे मुंह निंदा भी नहीं कर सकते। उदाहरण के तौर पर जावेद अख्तर साहब को ही देख लीजिए। अपने आप को कट्टर सेक्युलर कहने वाले जावेद अख्तर मूल रूप से नास्तिक है। उन्होंने इस घटना पर कहा की, देश में जिन्ना की फोटो को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। लेकिन साथ ही में कहा की, इस देश में गोडसे के मंदिर भी है। उन्हें भी हटाया जाना चाहिए। वैसे तो मैं गोडसे को मंटा नहीं हूँ, किन्तु बात जिस तरह से भ्रमित करने का प्रयास किया जा रहा है तो मेरा प्रश्न यह है की, क्या कोई भी गोडसे का मंदिर सरकारी जमीन पर या फिर सरकारी सहायता से बना हुआ है? जबकि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय तो भारत सरकार से हर वर्ष करोड़ो रुपए लेता है। फिर विद्यार्थीओ को जिन्ना की फोटो दिखने का क्या अर्थ? सामान्य तौर पर कोई आदर्श व्यक्तित्व की फोटो दिखाई जाती है, ताकि विद्यार्थी उनसे प्रेरणा ग्रहण करे। भला जिन्ना की फोटो से छात्रों को क्या प्रेरणा मिलती होगी?
एक तर्क यह भी दिया जा रहा है की, वो तस्वीर तो १९३८ से लटकी हुई है। इतने सालो बाद अब क्यों याद आया ? सीधी सी बात है हमे याद नहीं रहा फिर भी आपने तस्वीर नहीं निकाली? चलिए अब हमें याद आ गया है, अब तस्वीर निकालेंगे? हकीकत में तो देश के विभाजन के बाद इस देश में रहने का फैसला करते वख्त ही उस तस्वीर को हटाना चाहिए था। ‘It’s better to delay than never.’
आश्चर्यपूर्ण बात यह भी है की, कांग्रेस जिन्ना की फोटो का विरोध भी नहीं कर पा रही है। तुष्टिकरण की राजनीती के चलते बहुत से पक्ष एक खास समुदाय में अलगाववाद का और स्पेशल स्टेटस का बीज बो रहे है। असदुद्दीन ओवैसी जी पिछले दिनों संसद में एक विधेयक लाने वाले थे की भारतीय मुसलमान को पाकिस्तानी कहने पर तीन साल की सजा हो। लेकिन उनके क़ायदे-आज़म की तस्वीर पर एक शब्द भी नहीं बोलना उनकी बेबसी है या फिर चतुराई, यह कुछ कह नहीं सकते।
जिन्ना की तस्वीर का समर्थन करने हेतु लगभग २५०-३०० छात्र(!) AMU की सड़को पर उतर आए है। इतना ही नहीं, आज़ादी के नारे भी लगा रहे है। इनका अप्रत्यक्ष रूप से कहना है की जिन्ना विश्वविद्यालय की विरासत है। उनके साथ खिलवाड़ नहीं होना चाहिए। यह बात ही दिखाती है कि, बड़े बड़े विश्वविद्यालय में मिल रही शिक्षा में हकीकत में राष्ट्रवाद की कमी है।
यदि इसी तरह से छोटी छोटी बातो में अलगाववाद के बीज बोते रहे, तो बहुत दिन बाद यह एक वटवृक्ष बन सकता है। इतिहास यह भी है की, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों ने पुरे भारत में अलग पाकिस्तान की मांग जगाई थी। हाल ही में, बशीर अहमद जैसे पीएच.डी. करने वाले छात्र भी कश्मीर के अलगाववादी संगठन में जुड़ जाते है। मुस्लिमो की अलग जुबान, विरासत और मजहब के नाम पर एक चौथाई देश ले लेने के बाद भी भारत के राजनीतिज्ञ देश की अखंडता पर मंडराए हुए संकट को देख नहीं पा रहे है। जिन्ना की तस्वीर के साथ उसका जिन्न भी भारत से चला जाए तो राष्ट्र के लिए अच्छा होगा।