देश मे हो रहे (कर)नाटक को सही -गलत अवैधानिक और संवैधानिक के पैमाने पर समझने के लिए राज्य के गवर्नर को समझना सबसे जरूरी है।
भारत को संविधान ने यूनियन ऑफ स्टेट कहा है जिसमे संवैधानिक शक्तियों का झुकाव केंद्र की तरफ है। राज्य फ़ेडरल व्यवस्था के तहत बहुत मामलो में स्वतंत्र हैं लेकिन अंततः असाधारण परिस्थितियों में वे केंद्र के अधीन हैं।
इस व्यवस्था को कार्यपालिक अंजाम देने के लिये राज्यों में गवर्नर का ऑफिस है। गवर्नर राज्य में राष्ट्रपति के समानान्तर नही है। गवर्नर को न ही टेन्योर की सिक्योरिटी है ना ही गवर्नर का चुनाव प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से होता है। केंद्र की अनुशंसा पर राज्यपाल नियुक्त किया जाता है और उसी अनुशंषा पर हटा भी दिया जाता है। इस तरह संविधान ने राजपाल को राज्य में केंद्र का एजेंट बनाया हुआ है । और इसी कारण गवर्नर केंद्र के एजेंट की तरह काम भी करते हैं।
सामान्य परिदृश्य में रोजमर्रा के शासन में राज्यपाल की रबर स्टाम्प और फीता कटी के अलावा कोई और भूमिका नही है। राज्यपाल को विवेक सिर्फ असाधारण परिस्थितियों के लिए दिया है जिससे वो केंद्र का हुक्म पूरा कर सकें। असाधारण परिस्थितियां जैसे आपातकाल , अस्थिर लॉ एंड ऑर्डर, और खंड बहुमत में राज्यपाल द्वारा केंद्र का हुकुम मानना ही राज्य की स्थिरता के हित मे हैं ।
इस पूरे परिपेक्ष को सामने रखते हुए बीजेपी को अलग अलग परिस्थितियों में सरकार बनाने के लिए बुलाने पर गवर्नरों ने वही किया जो जितना संविधान ने उन्हें कार्यक्षेत्र दे रखा है। पहले के गवर्नर भी यही करते आये हैं।
अब रही बात प्रेसडेन्स परंपरा और नैतिकता की तो राजनीति में चुनिंदा नैतिकता की बात के लिए आज कोई जगह नही है। जितना अनैतिक दल बदल और डिफेक्शन है उतना ही अनैतिक चुनाव बाद पार्टियों का आपस मे गठजोड़ कर सरकार बनाना ।
दो अनैतिक मिलकर नया मोरल कोड नही लिख सकते।