कलाकारों का कौम अजीब सा होता है। ये उटपटांग से लोग अपनी अलग अलग दुनिया बनाते हैं, उसे रंगते हैं, उसे तोड़ते हैं, उसमे जीते है और उसी में ख़त्म भी हो जाते हैं। कलाकार अव्यवहारिक होता है, लापरवाह होता है, शौक़ीन होता है, दिलफेंक होता है, और कभी कभी बेहूदा और छिछोरा भी हो जाता है, लेकिन ये सब होते हुए भी कलाकार,अपनी क्षमता से परे, दुनिया के मज़बूत से मज़बूत ताकतों से लड़कर दुनिया को आदर्श की तरफ़ खींच कर लाने के लिए बहुत कुछ दाव पर लगा देता है।
पच्चीस साल का पतला और भद्दा दिखने वाला ओम पुरी जब सिनेमा करने आया था, तब उस समय हीरो का मतलब आकर्षक, सुंदर, दिलफेंक, खुशमिजाज चेहरा होता था; विलेन का मतलब लाल-पीले बाल में कमर पर बन्दूक चिपकाकर एक ही डायलाग चार बार बोलने वाला वहशी दरिन्दा होता था, और कॉमेडियन का मतलब एक ऐसा नमूना होता था जो अपने गंदे चुटकुलों पर ख़ुद हस सकता हो। ओम पुरी इनमे कहीं फिट नहीं बैठते थें। इसके बावजूद ओम पुरी आक्रोश और अर्ध-सत्य बनाते हैं। इसमें कोई ‘सिक्स-पैक’ वाला हीरो होता है जो एक मुक्के और दो घूंसे में सब कुछ सुधार देता है, इसमें आम आदमी की तरह दिखने वाला ‘प्रोटागोनिस्ट’ होता है, जो व्यवस्था से लड़ रहा होता है। इन फ़िल्मों में ओम पूरी को गुस्सा, दर्द, दुःख और ख़ुशी दिखाने के लिए चीखने और चिल्लाने की ज़रुरत नहीं पड़ती थी, उनकी आँखें और ठहरी हुई बुलंद उसके लिए आवाज़ काफ़ी थी। जहाँ तक कॉमेडी की बात थी, ओम पुरी और उनकी टोली ने जो ‘डार्क ह्यूमर’ जाने भी दो यारों में परोसा है उसके अगल बगल आने में ही लोगो का पसीना छूट जाता है। ओम पुरी और नसीरुद्दीन शाह ने मक़बूल के लिए मैकबेथ वाली दो चुड़ैलों का रोल चुना। कोई और बड़ा अदाकार होता तो इस रोल पर लात मार देता, लेकिन पुरी और शाह ने इस छोटे से रोल में भी जान फूंक दिया।
ओम पुरी ने अपने कॉलेज के दिनों से दोस्त, प्रतिद्वंद्वी और आलोचक नसीरुद्दीन के साथ मिलकर देश के थिएटर और पैरेलल सिनेमा को बहुत कुछ दिया है। ओम पुरी उन कुछ गिने चुने कलाकारों में हैं जिन्होंने मुख्यधारा वाली सिनेमा और समानांतर सिनेमा दोनों में सफलता हासिल की है।
ओम पुरी अपने आख़िरी दिनों में काफ़ी चर्चा और विवाद में रहें। एक तो लिबरल कलाकार जो हमेशा मुख्यधारा से अलग वाली सतह को खरोंचते हैं, ऊपर से बूढ़े और शराबी। अब नशे में डूबे हुए पूरी साहब को टीवी चैनल पर बुलाकर सैनिकों पर चर्चा करेंगे तो देशभक्ति सुनने को नहीं ही मिलेगा। पुरी ने कुछ बोला, बात उछाली गयी और रातो रात उन्हें एक ‘एंटी-इंडियन’ पाकिस्तानी एजेंट बना दिया गया। इतना काफ़ी नहीं हुआ तो एक-आध विडियो का कुछ टुकड़ा तोड़ मड़ोड़ कर फैला दिया गया।
इंटरव्यू में ओम पुरी बोलते हैं कि ‘बहुत सारे उग्रवादी मुसलमान ये सोचते हैं कि इस्लाम सबसे अच्छा धर्म है, इसका अलावा कुछ भी सही नहीं’, इस विडियो से ‘इस्लाम सबसे अच्छा धर्म है, इसका अलावा कुछ भी सही नहीं’ निकल गया और लोगों में बाँट दिया गया। अब ओम पुरी मुल्ला पाकिस्तानी भी हो गए। आज ओम पूरी के निधन पर भी लोग उन्हें पाकिस्तानी कह कर पुकार रहे हैं तो बहुत दुःख भी हो रहा है और गुस्सा भी आ रहा है।
कलाकार दिल से कमज़ोर होता, भावनाओं में बह जाता है। उसे फ़तह की ख़ुशी से ज्यादा ख़ून-ख़राबे का ग़म होता है; उसे सरहदों पर लगे झण्डों से ज़्यादा सरहदों पर आज़ाद उड़ते पंछी पसंद आते हैं, उसे व्यवस्था की संजीदगी से ज़्यादा क्रांति के नारे पसंद आते हैं। कलाकार पगला होता है, और वो अपनी इसी सनक से दुनिया में संतुलन बनाये रखता है। कलाकार अपनी कला के माध्यम से वो सारे पहलु छू लेता है जो आम-तौर पर लोग नज़रअंदाज़ कर देते हैं या दूसरे लोगों से नज़रअंदाज़ करवा देना चाहते हैं। कलाकार सरल होते हुए भी काफ़ी जटिल होता है।
हम ओम पुरी जैसे कलाकारों को पाकिस्तानी बोल बोलकर हर उस पगले कलाकार की आवाज़ दबा देते हैं जो एक अलग परिपेक्ष्य की सम्भावना ढूंढता है। जहाँ लोग बिहार की टूटी सड़कों की तुलना ओम पुरी के गाल से करके हँसते हैं, वहां ये कलाकार बड़ी बड़ी पेचीदा बातें कर गया ख़ैर ओम पूरी साहब तो अब नहीं रहें। दुःख रहेगा कि लोग आपका “अर्ध-सत्य” ही समझ पाये, अब “जाने भी दो यारों”।