Saturday, November 2, 2024
HomeHindiभारतीय बुद्धिजीवियों की जड़ता (ओबसेशन)

भारतीय बुद्धिजीवियों की जड़ता (ओबसेशन)

Also Read

भारतीय बुद्धिजीवियों की जड़ता (ओबसेशन) – प्रोफेसर कपिल कपूर जी के व्याख्यान का हिंदी अनुवाद

पहला भाग

आज हम भारतीय बुद्धिजीवियों की जड़ता (ओबसेशन) पर चर्चा करेंगे।

आज के युग में अगर कोई अखबार पढ़े (खासकर अंग्रेजी अखबार ) या टीवी चैनल्स की खबर सुने तो वो पायेगा कि हमारे बुद्धिजीवी हर समय हमारे जीवन, हमारे समाज, हमारी जीवन पद्दति में कमियां निकालते रहते हैं।

किसी भी समय हम इस देश के बारे में कुछ अच्छा नहीं सुनते। हम यही सुनते रहते हैं कि गरीबी बहुत है, जातिवाद बहुत है। जाति आधारित भेदभाव बहुत है। स्त्रियों के साथ बहुत धक्का (भेदभाव) होता है, बुरा बर्ताव होता है। कोई कानून व्यवस्था नहीं है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कम होती जा रही है। ना खाने की स्वतंत्रता है, ना बोलने की स्वतंत्रता है। जो कोई कुछ खाना चाहता है चाहे वो गौमांस हो या कुछ और, उसको खाने की आज़ादी होनी चाहिए।

कहने का अर्थ है कि आप भारतवर्ष के बारे में बुरी बातें सुनते रहते हैं। अगर आप ध्यानपूर्वक विश्लेषण करें, तो इस प्रकार की ज्यादातर आलोचना एक ही समाज की तरफ केन्द्रित है: हिन्दू समाज की तरफ। यह तथ्य हम सभी को ज्ञात है मगर हम इसे स्वीकारने को तैयार नहीं हैं। इस प्रकार की आलोचना मुख्यत: हिन्दू समाज की तरफ लक्षित (टार्गेटेड) है क्योंकि हिन्दुओं की आलोचना करना आसान है।

आप देखिये हमें बताया जाता है कि हिन्दू विचारधारा बहुवादी (pluralistic) है और बड़ी सहिष्णु है। अगर किसी भी हिन्दू को कोई बात बुरी लगे तो उसे बोला जाता है कि अरे तुम्हे गुस्सा नहीं होना चाहिए!! तुम तो बड़े सहिष्णु व्यक्ति हो!!

लेकिन समझने वाली बात है कि इस सहिष्णुता और बहुवाद का असल में कोई सम्मान नहीं है।

सन २००४ में पहली इंटर-फैथ (बहु-पंथ) कांफ्रेंस भारत में आयोजित हुई थी।  उस समय तमिलनाडू की मुख्यमंत्री, सुश्री जयललिता ने पंथ-परिवर्तन पर प्रतिबन्ध लगा दिया था।  तब उस बहु-पंथ कांफ्रेंस में ईसाई धर्म के एक बड़े बिशप ने कहा था कि “हम सभी पंथों का सम्मान करते हैं मगर हम किसी भी पंथ को मानने की स्वतंत्रता का भी सम्मान करते हैं।  इसलिए हम पंथ-परिवर्तन पर प्रतिबन्ध का विरोध करते हैं”। मैंने उनसे पूछा था कि महोदय अगर आप मेरे पंथ का सम्मान करते हैं तो आप मुझे पंथ परिवर्तन करने को क्यों कहते हैं? इस बात का उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया।

तो आज का मेरा पहला मत यह है – हम हर दिन बुरे समाचार सुनते रहते हैं। यहाँ तक कि कुछ लोग इस स्थिति में पहुँच जाते हैं कि वे टीवी पर समाचार सुनना बंद कर देते हैं या अखबार पढना बंद कर देते हैं। मैं खुद कुछ समय पहले इस स्थिति पर पहुँच चुका हूँ। आप सुबह तरोताज़ा उठते हैं और तभी इस तरह की खबरें आपके सामने आती हैं – तीन बलात्कार, चार खून, घर वापसी, यह राजनीतिज्ञ ऐसा है, वो ऐसा है – ऐसी खबरें सुबह सुबह पढ़कर आदमी खुद ही गन्दा महसूस करने लगता है। इसलिए मेरी सभी युवा लोगों को सलाह है – और यह सलाह हमारे शास्त्रों से आती है – सुबह सुबह कोई सहस्रनाम पढ़ा करो, कोई चालीसा पढ़ा करो – क्योंकि जब आप अच्छे शब्द सुनते हो, अच्छे शब्द उच्चारित करते हो, तो इन शब्दों की कम्पन आपको आंदोलित करती है।

ओबसेशन क्या है? ओबसेशन है – बार बार एक ही विचार का आना और आपकी विचार प्रक्रिया में एक ही विचार का हावी होना। अब आते हैं कि भारतीय बुद्धिजीवियों का ओबसेशन क्या है? ऐसे कौन से विचार हैं जो उनकी विचार प्रक्रिया में हावी रहते हैं?

पिछले करीब २०-३० सालों से भारतीय बुद्धिजीवी, खासतौर पर शहरों में रहने वाले बुद्धिजीवी को अपनी ही संस्कृति की बुराई करने में बड़ा मज़ा आता है – “हम बड़े ख़राब हैं, हमारे यहाँ कुछ भी ठीक नहीं है, हम बड़े बैकवर्ड हैं”।

अंग्रेजी शब्द “इंटेलेक्चुअल” पश्चिम में एक सम्मानित शब्द है। इस शब्द का प्रयोग विचारवान व्यक्ति के लिए किया जाता है। यह उस व्यक्ति के लिए प्रयोग होता है जो अपनी स्मरण शक्ति और बुद्धि का प्रयोग कुछ नए विचार उत्पन्न करने के लिए अथवा तर्क करने के लिए प्रयोग करता है। “इन्टेलेक्ट” बुद्धि का वो हिस्सा है जहाँ जानकारियां इकटठी होती हैं और उन जानकारियों पर विचार कर, निर्णय लिया जाता है या किसी नतीजे पर पहुंचा जाता है।

हमारा शब्द क्या है?

बुद्धि के लिए हमारे शब्द बड़े अलग हैं और उनकी महत्ता अलग है।  इसलिए यह बड़ा आवश्यक है कि हम उन शब्दों को अन्य भाषाओँ में प्रयोग न करें जिनका समानार्थक शब्द अंग्रेजी या अन्य भाषाओँ में नहीं है। यह शब्द Non-Translatables हैं अर्थात हमारे कुछ शब्द ऐसे हैं जिनका अनुवाद नहीं हो सकता। जैसे आत्मा का अनुवाद soul किया जाता है मगर soul का वो अर्थ नहीं है जो आत्मा का है।

“इन्टेलेक्ट” के लिए हमारा शब्द है “बुद्धि”।  हमारे सिद्धांत में “बुद्धि” का तीसरा स्थान है (पश्चिम में इसका पहला स्थान है)।  हमारे सिद्धांत में प्रज्ञा के चार घटकों में बुद्धि का तीसरा स्थान है।

प्रज्ञा क्या है – जिसके द्वारा हम ज्ञान प्राप्त करते हैं। इसके चार घटक हैं:

  • इन्द्रियां:
    1. कर्मेंद्रियाँ (Senses of Action)
    2. ज्ञानेन्द्रियाँ (Senses of Acquiring Knowledge)
  • मन (Mind)
  • बुद्धि
  • चित्त

कई बार हमारी आँखें खुली हैं, पर हम नहीं देख पाते, या कोई कुछ बोल रहा है, पर हम नहीं सुन पाते। ऐसे में हम क्या कहते है? माफ़ करना, मैंने ध्यान नहीं दिया……माफ़ करना मैंने देखा नहीं।

ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हमारी इन्द्रियां काम नहीं करती जब तक उनके पीछे “मन” न हो।

मन का मुख्य कार्य है – फोकस करना, केन्द्रित करना।

बुद्धि का मुख्य कार्य है – निर्णय करना, आंकना

जैसे जब तक रेडियो को आप प्लग न करो, तब तक वो निर्जीव ही है।  जब आप रेडियो प्लग करते हैं, तब कम्पन की ध्वनि आती है जो अस्पष्ट होती है; आप उसका नॉब घुमाकर सेट करते हैं……एक ख़ास चैनल आ जाता है, वहां आप थोड़ी देर रुकते हैं, वहां कोई बेकार भाषण आ रहा है।  आप आगे बढ़ते हैं और फिर किसी चैनल पर आप रुक जाते हैं। आप क्यों रुके? आपको एक पुराना गाना अच्छा लगा। पहले आप नहीं रुके थे, अब आप रुक गए। यह निर्णय किसने लिया? यह निर्णय बुद्धि ने लिया।

अब आप कह रहे हो कि यह गाना अच्छा है।  क्यों अच्छा है? आपको अच्छा लगा। आपको क्यों अच्छा लगा? यह अनुभव आपको प्रज्ञा के किस स्तर पर हुआ?

यह अनुभव बुद्धि के स्तर पर नहीं होता है। यह अनुभव एक अलग स्तर पर होता है।

आपकी इन्द्रियों, मन और बुद्धि से होते हुए पिछले कई अनुभव, बूँद बूँद कर के आपके चित्त (conscience) के भाग बनते हैं। जिस तरह का अनुभव आपके चित्त में जाता है, उसी से आपके व्यक्तित्व का निर्माण होता है।

कुछ मनुष्य दयालू होते हैं, कुछ क्रूर होते हैं, कुछ मस्त मौला होते हैं, कुछ दुखी रहते हैं। इसलिए कई समाज इस बात पर बल देते हैं कि आपका अनुभव विवेक और बुद्धि से छनकर आना चाहिए। छोटे बच्चों को कुछ अनुभवों से दूर रहना चाहिए, और उन्हें कुछ अनुभवों को हासिल करना चाहिए। जैसे हमारे समाज में छोटे बच्चों को श्मशान घाट नहीं ले जाया जाता। उन्हें वो अनुभव नहीं दिलाना चाहिए।

अब ज़रा बुद्धिजीवी शब्द पर आते हैं। जहाँ पश्चिम में “intellectual” एक सम्मानसूचक शब्द है, हमारी संस्कृति में “बुद्धिजीवी” एक अपमानजनक शब्द बन गया है। हमारे यहाँ बुद्धिजीवी का अर्थ है: जो बुद्धि बेचकर जीविका कमाता है। जहाँ भी उसे पैसा मिल जाये, जहाँ भी कुछ सुविधा मिल जाये, उसी के अनुसार बात करता है। काफी समय तक भारतीय बुद्धिजीवी के लिए सबसे बढ़िया फायदे का सौदा था- अमेरिका जाने का टिकट। इसके अलावा किसी समिति की सदस्यता भी दूसरा बड़ा फायदे का सौदा था – कभी शिमला में मीटिंग, कभी ऊटी में, कभी कहीं और। उनका स्वाभाव तंजौर की गुड़िया जैसा है। तंजौर की गुड़िया – जो गोल पैंदे की गुड़िया होती है; जैसी हवा चलती है, वो गुड़िया उसी तरफ झुक जाती है; उसी तरह हमारा बुद्धिजीवी भी हवा के साथ अपना रुख बदल लेता है।

हमारी व्यवस्था में intellectual के समान प्रयोग होने वाले शब्द थे: ऋषि, मनीषी, पंडित या विद्वान मगर intellectual शब्द के सबसे करीब आता है शब्द – ऋषि। ऋषि त्याग का जीवन व्यतीत करते थे। वे भौतिक सम्पदा के पीछे नहीं रहते थे, और इस कारण वे इस जगत से अलग थे। वे सन्यासी थे और इसलिए भारतवर्ष में हमारे जो सभी विचारक या महापुरुष हुए हैं वे सभी सन्यासी ही थे। उदाहरण के लिए, माधवाचार्य (१३ वी शताब्दी) जो दर्शन शास्त्र के एक अनोखे विद्वान थे और दर्शन शास्त्र के एक महान ग्रन्थ, “सर्वदर्शन संग्रह” के रचयिता भी थे।  बहुत छोटी आयु में उन्होंने अपनी माँ से कहाँ था कि “मुझे विभिन्न विचारों के अध्ययन में बड़ी रूचि है। मैं अपने जीवन को ज्ञान प्राप्ति में समर्पित करना चाहता हूँ। क्या आप जानते हैं उनकी माँ ने क्या कहा? उनकी माँ ने कहा “तुम्हे संन्यास लेना पड़ेगा”।

इसी तरह आदि शंकराचार्य ने ५ साल की आयु में सभी वेद ग्रंथों का अध्ययन कर लिया था।  उन्होंने अपनी माँ से कहा कि मुझे भी सन्यास ग्रहण करने की अनुमति दें। कहने का अर्थ हैं कि सन्यासी का एक ही ध्यय होता है – ज्ञानार्जन।

आज भी कुछ वास्तविक सन्यासी हैं। आपको तीन ऐसे लोग मिलेंगे जिनके विचार आपको सुनने चाहिए – एक हैं मोरारी बापू – उनको आप ध्यान से सुनिए। वे एक महान विचारक हैं। जिस तरह से वे रोज़मर्रा की घटनाओं को एक दृष्टिकोण देते हैं, वह आपको एक नया परिप्रेक्ष्य देगा। दूसरे हैं स्वामी अवधेशानन्द – जो जूना अखाडा के महामंडलेश्वर हैं। सातवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने १० अखाड़े स्थापित किये थे। ये अखाड़े विभिन्न साधुओं के समूह हैं जिनके कुछ साझा सिद्धांत हैं। ये साधू नग्न रहते हैं – इन्हें नागा साधू भी कहते हैं। ये साधू हिमालय में रहते हैं और सिर्फ कुम्भ या ऐसे किसी मुख्य अवसर पर समतल देश में आते हैं। ये साधू ज्ञानार्जन, ध्यान, योग साधना में पूरी तरह संलग्न रहते हैं। वे अपने शरीर को अनेक चरम अवस्थाओं को सहन करने के लिए तैयार करते हैं।

तीसरे हैं महाप्रज्ञ जी – जैन मुनि। उन्होने अपना शरीर छोड़ दिया है, मगर उनके विचार ज़रूर सुने।

एक बात और – एक सन्यासी किसी भी जगह दो दिन से अधिक नहीं रुकता। ऐसा इसलिए है, कि अगर आप किसी जगह ज्यादा रुकेंगे तो उसे आप साफ़ करने लगेंगे, फिर वहां आप बैठने की व्यवस्था करेंगे और एक तरह से गृहस्थ जीवन का आरम्भ हो जायेगा। इसलिए सन्यासी सदैव चलते रहते हैं, किसी स्थान पर ज्यादा दिन नहीं रुकते। इसे परिव्राजक परम्परा कहा जाता है।

ये सन्यासी प्राकृत भाषा के विशेषज्ञ होते हैं। प्राकृत ऐसी भाषाओँ को कहते हैं, जिन्हें विभिन्न भाषाओँ के लोग समझ लेते हैं। करीब २० अलग अलग भाषाओँ के लोग जिस एक भाषा को समझ पाएंगे उसे प्राकृत कहते हैं।

दुख की बात यह है कि ऐसे कई सन्यासियों के बारे में बहुत कम लोगों को पता है। आदि शंकराचार्य का नाम कम ही लोगों ने सुना है, एक और महान सन्यासी थे – रामानुजाचार्य, उनका नाम तो और कम लोगों ले सुना होगा, और हेमचंद्राचार्य – तो मुश्किल से किसी ने यह नाम सुना होगा। गुरु गोरखनाथ का नाम भी कुछ लोगों ने सुना होगा – उन्होंने नाथ सम्प्रदाय स्थापित किया था। कणफटा योगी – ऐसे योगी आपको नाथ सम्प्रदाय में मिलेंगे। गुरु नानक, गुरु गोबिंद सिंह और गुरु अर्जुन देव – इनके भी नाम स्मरणीय हैं।

यह सभी ऋषि, सन्यासी, गुरु आदि ज्ञानार्जन की परंपरा को आगे बढाने वाले हैं। यह सभी लोग महान विचारक थे एवं ज्ञान की ख़ोज में थे। यह लोग सही अर्थों में “इंटेलेक्चुअल”  (intellectual) हैं। पतंजलि की शब्दावली का प्रयोग करें तो यह लोग “शिष्ट” थे। शिष्ट अर्थात सुसंस्कृत व्यक्ति (Cultured person)।

हमारी संस्कृति में शिष्ट किसको कहा गया था? ऐसा व्यक्ति जिसकी कुल भौतिक सम्पदा केवल एक छोटे मटके में रखा अनाज हो। शिष्ट अर्थात ऐसा व्यक्ति जो बिना किसी पूर्वाग्रह, किसी लालच या मंतव्य के, अपने आप को ज्ञानार्जन में खपा दे, और किसी भी एक क्षेत्र में उत्कृष्टता हासिल करे।

आज के युग में ऐसा कोई व्यक्ति मूर्ख माना जायेगा। आज “शिष्ट” कौन है? जिसकी भौतिक सम्पदा अपार हो।

आज जब हम “इंटेलेक्चुअल” शब्द का प्रयोग करते हैं तो हम मोरारी बापू या स्वामी अवधेशानंद की बात नहीं कर रहे होते। आज इस शब्द का प्रयोग उन लोगों के लिए होता है जो अखबार में लेख लिखते हैं, टीवी पर आते हैं, और जो खुद ही मान लेते हैं कि वे इस समाज के बौद्धिक लीडर और वे ही इस समाज को एक नया प्रारूप दे रहे हैं।

अब ज़रा आते हैं “बुद्धिजीवी” शब्द पर – इस शब्द से किन लोगों को संबोधित किया जाता है?

नई परिभाषा के अनुसार बुद्धिजीवी ऐसे लोग हैं जिनकी पढाई लिखी अंग्रेजी माध्यम में एवं अंग्रेजी शिक्षातंत्र में हुई है। इस अंग्रेजी शिक्षातंत्र के उत्पाद ऐसे लोग हैं – जिन्हें (अगर हमारा बहुत सौभाग्य हो तो) हमारी संस्कृति से कोई सरोकार नहीं, उसका कोई ज्ञान नहीं। ऐसे लोग जिनमे (अगर हमारा बहुत दुर्भाग्य हो तो) हमारी संस्कृति के प्रति घृणा और तिरस्कार का भाव हो।

(To Be contd…)

(https://www। youtube। com/watch?v=pgG7EbLC120)

  Support Us  

OpIndia is not rich like the mainstream media. Even a small contribution by you will help us keep running. Consider making a voluntary payment.

Trending now

- Advertisement -

Latest News

Recently Popular