भारत विभिन्न संस्कृतियों की माला है, परंपराओं का संगम है और परिवेश के अनुक्रम में विकसित जीवन पद्यतियों का समाचरण है। पूरब और पश्चिम की बोलियाँ अलग है, उत्तर से दक्षिण का पहनावा अलग है, लेकिन जीवन के मौलिक आयामों में में हम चहुँ-ओर एक जैसे हैं। लोकसभा में भाषण करते हुए एक बार भाजपा की यशस्वी नेत्री सुषमा स्वराज जी ने भारत के साम्यवादी नेताओं में से एक सोमनाथ चटर्जी को कहा था कि आप पूछते हैं कि एक संस्कृति का अर्थ क्या है? एक संस्कृति का अर्थ यह है कि एक शिव का भक्त अमरनाथ का जल लेकर रामेश्वरम के पैर पखारता है और पश्चिम बंगाल में जन्मे आपके माता-पिता अपने पुत्र का नाम सोमनाथ (सोमनाथ गुजरात में अवस्थित शिव मंदिर है) रखते है”। दक्षिण का शैवक्त और उत्तर का वैष्णव, पूरब की चंडी और पश्चिम कि द्वारका सब समरूप, अंगीकार तथा मौलिक सन्दर्भों में एकांगी हैं। मैंने ऊपर की साधारण दिखने वाली बातें इसलिए लिखी हैं, क्योंकि जिस विधि के मातहत अंग्रेजों ने हमें बांटने और राज करने की नीति अपनायी थी, ठीक उन्ही नीतियों का अनुसरण कुछ राजनीतिक दलों ने शुरू किया है और और अंग्रेजों की भांति उनका केंद्र भी व्यक्ति की जाति है।
भारत में जाति (कास्ट) का उद्गम उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुआ और उसका सबसे प्रमुख कारण अंग्रेजों द्वारा शुरू की गयी जातीय जनगणना थी| (पद्मनाभ समरेन्द्र इ.पी.डब्लू/8/2011) भारत में उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जातीय जनगणना की शुरुआत अंग्रेजों ने की थी ताकि भारतीय समाज के रचना को समझ सकें और विभाजन के रेखाएं खीच सकें। एच.एच. रिस्ली जो 1901 के सेन्सस कमिश्नर थे, कहा था “भारत में जाति ही वह व्यवस्था है जो पूरी सामाजिक तानेबाने को बांधकर रखती है। भारत में बढ़ रहे राष्ट्रवाद को अगर थामना है और इस देश पर राज करना है तो हमें (अंग्रेजों को) इस व्यवस्था को तहस-नहस करना ही होगा”।
अर्थतंत्र मानव सभ्यता का नैसर्गिक हिस्सा है और उसकी समरूपता मनुष्यों कि आवश्यक मांग रही है। भारत में इस विषय पर सारगर्भित चिंतन विद्यमान रहा है और इसीलिए वर्णों की व्याख्या हुई और हुनर उसका आधार बना। भारत में वर्णों की व्यवस्था उत्पादन के साधनों के केंद्र बिंदु रहे थे और उस व्यवस्था के तहत ही हम दुनिया में सोने की चिड़िया के रूप में प्रतिष्ठित हुए थे| भारत 17 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में इस वर्ण व्यवस्था के तहत वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक चौथाई (24.4%) का हिस्सेदार था पर 1947 में 4.2% तक आ पहुंचे थे, सन 1750 में वैश्विक औद्योगिक उत्पादन में हमारी हिस्सेदारी 25% थी जो सन 1900 में 2% तक आ पहुंची थी, पहली शताब्दी से लेकर 1700 तक हम वैश्विक व्यापारों में 25-35% तक की हमारी हिस्सेदारी अंग्रेजों के जाने के समय महज 2% तक आकर ठहर गयी थी। इसी क्रम में सन 1700 में अंग्रेजों की वैश्विक अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी जो महज 2.9% थी वह 1870 आते-आते 9% हो गयी।
हमारी गिरावट और अंग्रेजों का उत्थान एक दुसरे के पूरक रहे क्योंकि जैसे जैसे हमारी सामाजिक व्यवस्थाओं से छेडछाड़ हुई और हमें तोड़ा गया हम आर्थिक मोर्चों पर कमजोर हुए, राजनीतिक क्षेत्र में परतंत्र हुए और हमारी मौलिक आजादी भी छीन ली गयी।
सम्प्रदायवाद तथा जातिवाद इस प्रक्रिया के मौलिक हथियार रहे। पूजन की विधि का विभेद तथा मुस्लिम आक्रान्ताओं के लूटपाट एवं भयंकर अत्याचारों से हिन्दू समाज पूर्व से पीड़ित था इसलिए सम्प्रदायवाद का ख़तरा तो अवश्यंभावी था लेकिन जातिवाद के माध्यम से हिन्दू समाज के अन्दर भी विभाजन करने की रणनीति जो अंग्रेजों ने बनायी वह सबसे बड़ा खतरा था। जातीय जनगणना का भारत में समाज के अन्दर से भी विरोध हुआ क्योंकि लोगों को यह लगा की यह कार्य उन्हें जबरदस्ती क्रिश्चियन बनाने के लिए, मिलिट्री में भर्ती करने तथा कोई नया कर (टैक्स) लगाने के लिए किया जा रहा है, लेकिन हम उनके इरादे को नहीं भांप सके थे।
भारत में वर्णों का विभाजन “उत्पादन के साधनों” (कम्युनिस्ट इसे मीन्स ऑफ़ प्रोडक्शन कहते हैं) के तहत था और जैसा की भारत के नामचीन समाजशास्त्र के अध्येता एम.एन. श्रीनिवास कहते हैं संस्कृतिकरण और अव-संस्कृतिकरण (संस्क्रिटाईजेशन/डी- संस्क्रिटाईजेशन) दोनों ही संभव थे इसलिए उत्पादन के साधनों तथा सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूपता में व्यक्ति के कर्मों बदलाव असंभव नहीं था, इसीलिए एक ही वर्ण-वर्ग का व्यक्ति सभी तरह के कार्य में लिप्त पाए जाते थे। भारत में अंग्रेज जिस वर्ण व्यवस्था को जातीय अभिव्यक्ति कह रहे थे वह मौलिक स्वभाव से उसके विपरीत थी (मैकिम मारियोट-रोनाल्ड इंडेन) तथा यह भारतीय समाज के उन्नत होने कि प्राथमिक कुंजी थी। अंग्रेजों ने जब इस व्यवस्था को समझने की युक्ति कि तो दशकों तक उन्हें कुछ समझ ही नहीं आया और 1853 में शुरू हुई जातीय जनगणना 1881 तक बेकार होती रही| सन 1931 के सेन्सस कमिश्नर जे.एच. हटन अपने 1933 के अपने लेख में कहते हैं कि “भारत में इतनी विविधताएं हैं की पश्चिम के विचारों के अनुरूप वहां जातीय जनगणना संभव ही नहीं है, एक व्यक्ति जो स्वयं को एक प्रोविंस में ब्राह्मण बताता है, वही काम करने वाला व्यक्ति दुसरे प्रोविंस में खुद को राजपूत बताता है और वही व्यक्ति जो एक सेन्सस में खुद को राजपूत बताता है वह अगली सेन्सस में खुद को ब्राह्मण बताता है”। आज भारतीय समाज में प्रयोग होने वाला शब्द “यादव” पूरे जनगणना में कहीं लिखा मिलता ही नहीं है, उस दौर में लोग खुद को “यदु” का वंशज तथा जाति से क्षत्रिय बताते थे। जाति के मानक भी व्यक्ति तक सीमित नहीं थे बल्कि उसका एक वृहद् भाव था जैसे ‘औरत जात’,’मर्द जात’,’हिन्दू जात’, ‘मुस्लिम जात’ ‘बंगाली जात’,’मराठी जात’ इत्यादि | बाद के सन्दर्भों में कार्य आधारित व्यवस्था को विकृत जातीय समूहों में बांटा गया और विद्वेष फैलाकर राजनीतिक प्रतिष्ठानों पर साम्राज्यवाद का परचम लहराया जाता रहा | अंग्रेजों के द्वारा लगाए गए इस आग को प्रसिद्ध विद्वान् निकोलस डिर्क कहते हैं कि “ रिस्ली (पूर्व सेन्सस कमिश्नर) ने जो भी समाजशास्त्र भारत में रचा (आज की भाषा में सोशल इंजीनियरिंग) उससे भारत के अंदर दहक रही राष्ट्रवाद को काबू करने में सफलता तो नहीं मिली लेकिन भारत में साम्प्रदायिकता (जाति आधारित हिंसाओं के सम्बन्ध में) का जहर जरुर घोल दिया और वह आग सदियों तक इस इलाके को जलाती रहेगी”| प्रसिद्ध लेखक कोहन एवं डर्क कहते हैं कि “ भारत में जिस प्रकार की जातीय व्यवस्था अब स्वीकार्य हो चुकी है वह अंग्रेजों द्वारा कि गयी जातीय जनगणना तथा उनके द्वारा ही प्रतिपादित किये गए कार्यों एवं सिधान्तों कि वजह से ही है”|
गांधी तथा आंबेडकर में जातीय व्यवस्था को लेकर गंभीर वाद-विवाद मिलते हैं जिसमें आंबेडकर भारत में अस्पृश्यता के कारण जाति-वर्ग की व्यवस्था को ख़तम करने की बात कहते रहे वहीँ गांधी कुछ आवश्यक सुधारों के साथ इस व्यवस्था को बनाये रखने के पक्ष में थे, क्योंकि गाँधी को लगता था कि जाति वास्तव में श्रम तथा उत्पादन के बीच का सामंजस्य है, और ग्राम आधारित स्वदेशी अर्थव्यवस्था उसके बिना संभव नहीं होगी | आज़ाद भारत में जब जाति जनगणना का प्रस्ताव आया तब पटेल ने उसका पूरजोर विरोध किया था क्योंकि उन्हें देश के सामाजिक व्यवस्था तथा सौहार्द बिगड़ने की आशंका थी|
आज भारत में राजनीतिक तौर पर जातिवाद एक स्वीकृत अवधारणा है| देश के कई राज्यों में जाति-संप्रदाय आधारित दलों का निर्माण हुआ और समय-समय वो सत्ता में आते रहे हैं और अब जब इस देश में पहली बार कोई प्रचंड राष्ट्रवाद से ओतप्रोत सरकार बनी है और इन दलों की स्वीकार्यता अपने विशिस्ट जातीय गोलबंदियों से बाहर लगातार घट रही है तब वो अंग्रेजों की भांति समाज को वापस बांटने की कोशिशों में लगे हैं| वंशवाद के दम पर नेता बने तेजस्वी यादव आज समाज के अंतिम व्यक्ति के उत्थान के लिए उसकी जाति जानना चाहते हैं तब उनसे क्या अपेक्षा हो सकती है ? क्या गाँधी और दीनदयाल उपाध्याय ने अन्त्योदय के सिधान्तों को गढ़ते समय व्यक्ति विशेष की जातियों में उसके कष्टों का निवारण सोचा था? क्या भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और बिस्मिल ने अपनी जवानी फांसी के फंदों पर इसलिए झुला दी थी कभी लालू यादव, नितीश कुमार और जीतनराम मांझी व्यक्ति के कल्याणार्थ उसकी जाति पूछेंगे?
उनसे यह कौन बतायेगा की भील जनजातीय समुदाय अपने घरों में सेन्सस अधिकारियों को इसलिए नहीं घुसने देते थे की वो उनको धर्मान्तरण ना करा दे और घरों की दीवारों पर कुछ लिखने नहीं देते थे क्योंकि उनकी दीवारों पर उकेरी चित्रकला ना ख़राब हो जाए और अंग्रेज उन्हें इस अपराध के लिए दण्डित करते थे। वस्तुतः प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बह रही अखिल भारतीय राष्ट्रवाद की धारा का तोड़ उन्हें अंग्रेजों की भांति भारत के लोगों की जातियों में दिख रहा है और यह सच्चाई है कि समाजवाद के ढोंग के नीचे आज का क्षेत्रीय नेतृत्व समाज के कल्याण में कम और सत्ता के समीकरणों में ज्यादा दिलचस्पी ले रहा है। सत्ता के भागीदारों सहित समाज के आमजनों को भी उन्नति के मार्ग तलाशने होंगे जो 21वीं सदी के अनुरूप हो, समावेशी हो, व्यावहारिक हो और सर्वांगीण हो और सबका साथ सबके विकास में सहायक हो।