Tuesday, May 7, 2024
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सनातन विमर्श के महानायक– गोस्वामी तुलसीदास

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गोस्वामी तुलसीदास जी की जन्म जयंती (श्रावण शुक्ल सप्तमी तदनुसार 23 अगस्त 2023) पर विशेष

तुलसी रामकथा के गायक हैं। वे रामकथा को काव्य विधा में कहते हैं इसलिए कवि हैं, काव्य को भक्ति विभोर होकर लिखते हैं इसलिए भक्त कवि हैं, राम की सुन्दर छवि पर मुग्ध हैं इसलिए सगुण भक्ति धारा के प्रतिनिधि हैं, आध्यात्मिक शक्तियों से विभूषित हैं इसलिए संत हैं। तुलसीदास जी का यही स्वरुप, यही परिचय जन सामान्य में उदभासित है।

तुलसी आदर्श हैं प्रभु भक्ति के, तुलसी आदर्श हैं उत्कृष्ट काव्य रचना के किन्तु इससे भी बढ़कर वे उस सनातन विमर्श के महानायक भी हैं जो उनके कालखंड में बर्बर मुगल आक्रान्ताओं के अमानवीय अत्याचारों से त्राहि त्राहि कर रहा था। मुग़ल शासकों द्वारा निरंतर शोषण से हिन्दू प्रजा की आर्थिक और सामाजिक संरचना छिन्न भिन्न हो रही थी, देवालय टूट रहे थे, देवालयों के माध्यम से चलने वाली सनातन शिक्षा प्रणाली नष्ट हो रही थी, वैदिक ज्ञान, धर्मग्रन्थ और परम्पराओं के ज्ञान से रहित हिन्दू समाज घोर निराशा, दुःख और किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में था और स्वाभाविक रूप से ये परिस्थितियाँ पाखण्ड और कुरीतियों को जन्म दे रही थीं।

आश्रम बरन धरम बिरहित जग, लोक बेद मरजाद गई है, प्रजा पतित पाखण्ड पाप रत,अपने अपने रंग रई है। (विनय पत्रिका)

अपने समाज की इस दुर्दशा से तुलसी व्यथित हैं, वे अपने समकालीन अन्य भक्त कवियों की तरह जन सामान्य से निरपेक्ष होकर केवल भक्ति में लीन नहीं रहते वरन समाज को इस दुर्दशा से मुक्ति दिलाने का मार्ग खोजते हैं। समाज को मर्यादाओं में बाँधने के लिए, पाखण्ड और पाप से दूर करने के लिए उसके समक्ष एक आदर्श होना चाहिए और ये आदर्श मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के अतिरिक्त कौन हो सकता है भला? तुलसी विचार करते हैं, समाज में श्रीराम को आदर्श रूप में स्थापित करना होगा। रामकथा को जन जन तक पहुँचाना होगा किन्तु रामकथा तो देववाणी में कही गई है और समाज देववाणी से दूर जा चुका है।

श्रीराम जन जन के नायक हों, प्रत्येक व्यक्ति उनके आदर्शों पर चलने का प्रयास करे इसके लिए रामकथा का जनवाणी में होना आवश्यक है। तुलसी आज से पांच सौ वर्ष पूर्व ही व्यवहार परिवर्तन के इस सिद्धांत को पहचान गए थे जिसको आज के व्यवहार परिवर्तन प्रबंधन विशेषज्ञ अन्यान्य शोध के बाद स्पष्ट कर पाए हैं कि किसी समुदाय का व्यवहार बदलना है तो उससे उसकी ही भाषा- बोली में बात करनी होगी।

तुलसी रामकथा को जनवाणी में लिखने का निर्णय लेते हैं। सम्पूर्ण विद्वत समाज तुलसी के इस निर्णय के विरुद्ध है, जनवाणी में रामकथा कही जाने लगी तो विद्वत मंडल के आभिजात्य का क्या होगा? रामकथा विद्वत मंडल की नहीं समाज की संपत्ति है। राम केवल विद्वत मंडल के नहीं जन जन के हैं और इसी विचार से तुलसी जनहित तथा समाजहित में इस विरोध के बीच अडिग रहते हैं और जनभाषा अवधी में रामकथा की रचना करते हैं जो आज पांच सौ वर्षों बाद भी समाज को आदर्श जीवन की प्रेरणा दे रही है।

तुलसी राम चरित मानस लिखकर अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं मान लेते। रामकथा को जन जन तक पहुँचाने के लिए और बिखर रहे समाज को एक सूत्र में पिरोने के लिए रामलीला खेलने की परंपरा आरंभ करते हैं, रामलीला खेली जाती है, रामलीला का मंचन होता है और समाज में, समाज से राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, सीता, उर्मिला सब के सब आकार लेने लगते हैं। जब लक्ष्मण का रूप धरोगे तो लक्ष्मण का भाव भी आएगा, व्यवहार में परिवर्तन भी आएगा।

विधर्मी शासक है। देवालय भंग कर रहा है। मात्र उदात्त चरित्र और नैतिक बल उसे परास्त नहीं कर सकता। बाहुबल चाहिए, सामर्थ्य चाहिए। इसके लिए केंद्रीकृत प्रणाली चाहिए। तुलसी विचार करते हैं और हनुमान गढ़ियाँ अस्तित्व में आती हैं। ये एक दूरदृष्टा विचारक की राष्ट्रनीति है।

अवसर आने पर वो मुगल शासक से सीधे टकराने से भी नहीं हिचकते। “मेरे राजा तो एकमात्र श्रीराम हैं” ये सुनकर क्रुद्ध अकबर तुलसी को बंदी बनाकर सीकरी के  कारागार में डाल देता है। अब तुलसी अपनी आध्यात्मिक शक्ति का चमत्कार दिखाते हैं। पवनपुत्र की प्रार्थना करते हैं और सहस्त्रों वानर कारागार पर आक्रमण कर देते हैं। वानर सेना, मुग़ल सेना को इतना त्रस्त कर देती है कि उसे सीकरी से भाग कर अकबर के दरबार में जाकर गिडगिडाना पड़ता है कि इस संत को कारागार से अविलम्ब बाहर निकाल दिया जाए अन्यथा वानर सीकरी को नष्ट कर देंगे। ये एक संत की, सनातन की आध्यात्मिक शक्ति की एक विधर्मी शासक को सीधी चुनौती थी जिसने निराशा के सागर में डूबे तत्कालीन सनातन समाज को एक नया सामर्थ्य दिया।

परिवार संस्था को सुदृढ़ करना, समावेशी – संतुष्ट – सर्वजन  स्वीकार्य समाज बनाना, सर्व कल्याणकारी राष्ट्र का निर्माण करना इन सभी के सूत्र तुलसी अपने नायक राम के माध्यम से स्थापित करते हैं। परिवार निर्माण का मूल गुरुजनों की प्रतिष्ठा है, स्नेह है, त्याग है, सम्बन्ध के अनुसार निर्धारित कर्तव्य का अनुपालन है। राम अपनी अर्धांगिनी सीता और अनुजों के साथ इसको सहजता से स्थापित करते हैं।    

वनवास काल में अगस्त्य जैसे वैज्ञानिक ऋषि से लेकर माता शबरी के रूप में मानव देहधारी भक्ति काआशीष ग्रहण करते हैं। कोल, भील, किरात, वानर से मैत्री करते हैं क्योंकि वो जानते हैं कि असुरों से युद्ध जीतना होगा एक दिन और वो इनको लेकर बनायी गयी समावेशी सेना के बिना संभव नहीं होगा। राम असुरत्व त्याग कर आए शत्रुओं को शरण भी देते हैं और गिलहरी के गात पर स्नेह रेखाएं भी बनाते हैं। न कोई लघु न कोई गुरु, सबका अपना स्थान, अपनी मर्यादा और अपना सम्मान।

ये तुलसी के नायक राम की समाज दृष्टि है। ये तुलसी की समाजदृष्टि है और यही हमारी तात्कालिक आवश्यकता भी है।

जिस काल में तुलसी हुए उस काल में ऐसे विधर्मियों की सत्ता थी जिनके लिए स्त्री मात्र उपभोग की वस्तु थी, तुलसी अपने नायक राम के माध्यम से उनको स्पष्ट सन्देश देते हैं –

“अनुज वधू भगिनी सुत नारी, सुन सठ कन्या सम ये चारी, इनहीं कुदृष्टि बिलोकहि जोई, ताहि बधे कछु पाप न होई” (राम चरित मानस)

तुलसी साहित्य ऐसे अनेक उदाहरणों से भरा हुआ है जो जीवन के लिए सनातन की दृष्टि और उसकी सत्ता स्थापित करते हैं । कण कण में ब्रह्म, कण कण में ईश्वर के सिद्धांत को तुलसी इतनी सहजता से कह देते हैं कि विद्वानों को इसके लिए ग्रन्थ पर ग्रन्थ रचने पड़ जाएं –

“सीय राम मय सब जग जानी, करहुं प्रणाम जोरि जुग पानी” (राम चरित मानस)

तुलसी चाहते तो वेद, पूरण, उपनिषद, गीता या महाभारत को लोकवाणी या जनवाणी में लिख सकते थे, क्या कठिन था उनके लिए किन्तु उन्होंने रामकथा को चुना क्योंकि रामकथा, मर्यादा पुरुषोत्तम की कथा है, रामकथा राष्ट्रनिर्माण की कथा है, रामकथा असुरों के सर्वांग उन्मूलन की कथा है और तुलसी के समकालीन समाज को उन मूल्यों की आवश्यकता थी जो पद दलित हो चुके हिन्दू समाज को मर्यादा में बांधकर उसकी शक्ति को पुनः सहेजने में सहायक सिद्ध हों।

हम आज भी संस्कृतियों के संघर्ष काल में हैं, सनातन पर बहुविधि आक्रमण हो रहे हैं। परिवार संस्था से लेकर शिक्षा, ज्ञान, परम्परा, पद्धतियाँ, संस्कार कुछ भी अछूता नहीं जिस पर आज संकट नहीं है। कुछ कुछ वैसा ही जैसा तुलसी के कालखंड में था। अपने काल में तुलसी सनातन विमर्श की स्थापना के महानायक रहे। आज हम उनको समझकर अपने काल का सनातन विमर्श खड़ा कर सकते हैं।

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