असफलताओं को पीछे छोड़, उनसे सबक सीखते और सफलताओ का विश्वकीर्तिमान गढ़ते हुए हम भारतवासी सम्पूर्ण विश्व में सर्वप्रथम दक्षिणी ध्रुव पर पहुँचने वाले मानव प्रजाती बन गये। यह संकल्प से सिद्धी तक की यात्रा का सर्वोत्तम उदाहरण है।
मित्रों जिस दिन चंद्रयान ३ को हमारे ISRO के परम प्रतापी वैज्ञानिकों ने पृथ्वी से चन्द्रमा की ओर जाने का आदेश दिया, मै उसी दिन इस महान और गौरवमय यात्रा पर अपना लेख आप लोगों के मध्य प्रेषित करना चाहता था, परन्तु अचानक मुझे वो शाम याद आ गयी, जब मात्र २ किमी की दूरी पर हमारा चंद्रयान-२ अंतर्धान हो गया और उसने हमसे सम्पर्क तोड़ लिया, इसके पश्चात तत्कालीन ISRO प्रमुख के आँखों से बहते आसुँवों ने ना केवल प्रधानमंत्री को अपितु समस्त देशवासियों को भावुकता के सागर में झोंक दिया था।
आखिरी क्षणों में मिली उस असफलता ने मेरे विश्वाश को भी झकझोर दिया था, परन्तु जिस प्रकार हमारे प्रधानमंत्री ने तत्कालीन ISRO प्रमुख को गले लगाकर सांत्वना दी, उसने ISRO के वैज्ञानिकों के अंदर नया जोश भर दिया और तभी उन्होंने तय कर लिया था कि ये २ किमी की दूरी को अब इतना आरामदायक बना देंगे कि समस्त विश्व विश्वाश नहीं कर पायेगा और मैंने तय किया था कि “जब तक चंद्रयान-३ को उतरते हुए देख नहीं लूंगा तब तक एक शब्द ना तो “बोलूंगा” और ना ही “लिखूंगा”।
खैर मित्रों समस्त संभावनाओं और असंभावनाओं पर विजय प्राप्त करते हमारे “विक्रम” को लेकर लेंडर चंदा मामा पर कुछ इस प्रकार उतरा जैसे स्व अटल जी के समय “बुद्धा” मुस्कराये थे।
ISRO को सम्हालने वाली “टीम इंडिया” ने जिस प्रकार ये विश्वकीर्तिमान स्थापित किया है, उससे भारतवर्ष के समस्त युवाओं को निम्न शिक्षा प्राप्त होती है:-
१:- कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥
(श्रीमद भगवत गीता अध्याय २ सांख्ययोग श्लोक ४७)
भावार्थ : तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो॥ अर्थात व्यक्ति को अपनी योग्यता का पूर्णतया उपयोग करते हुए अपने कर्म को पूर्ण करना चाहिए, क्योंकि यही वो एक विषय वस्तु है, जो व्यक्ति के अपने अधिकार क्षेत्र में होता है। किये गये कर्म का परिणाम, कर्म करने वाले व्यक्ति के वश में नहीं होता। अत: सही दिशा, में उचित समय पर अपनी योग्यता के अनुसार व्यक्ति को कर्म करने चाहिए।
अब ये भी संभव है कि आपके द्वारा किये गये कर्म से आपको वांक्षित सफलता ना प्राप्त हो, परन्तु असफल हो चुके हैँ, ये मानकर हमें कर्म का त्याग नहीं करना चाहिए, क्योंकि अकर्मण्यता व्यक्ति से आगे बढ़ने का अवसर छीन लेती है। सदैव याद रखें: –
अचोद्यमानानि यथा, पुष्पाणि फलानि च।
स्वं कालं नातिवर्तन्ते, तथा कर्म पुरा कृतम्।
अर्थात:- जिस तरह फल, फुल बिना किसी प्रेरणा के समय पर उग जाते हैं, उसी प्रकार पहले किये हुए कर्म भी यथासमय ही अपने फल देते हैं। यानिकी कर्मों का फल अनिवार्य रूप से मिलता ही है।
२:- उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः।।
भावार्थ:-दुनिया में कोई भी कार्य केवल सोच-विचार से ही पूर्ण नहीं होता, अपितु कार्य की पूर्ति के लिए कठिन परिश्रम करना पड़ता है, जैसे सोते हुए सिंह के मुंह में हिरण नहीं आता, बल्कि हिरण का शिकार करने के लिए शेर को दौड़ना पड़ता है।
जी हाँ मित्रों किसी कार्य को पूर्ण करने की योजना बना देने से कार्य पूर्णता को प्राप्त नहीं होता, अपितु योजना के अनुसार सामग्री को एकत्रकर उसे कार्यान्वित करना अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। उदाहरण के लिए ISRO का चंद्रयान-३ आपके समक्ष है। मात्र ६०० करोड़ की लागत और सिमित संसाधानों के बावजूद भी, पिछले चंद्रयान-२ की असफलता से सबक लेते हुए उस योजना में आवश्यक परिवर्तन कर (जैसे इस बार चंद्रयान को उतरने के लिए पहले २.५ किमी और फिर अंत समय में ४ से ४.५ किमी की परिधि दी गयी जबकी पिछले चंद्रयान-२ को केवल ५०० मीटर की परिधी मिली थी) एक नई योजना निर्मित की गयी और उसे भलीभांति कार्यान्वित भी किया गया, परिणाम आपके समक्ष है।
३:-यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत्।
एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति।।
भावार्थ:-जैसे रथ बिना पहिए के नहीं चल सकता, वैसे ही बिना मेहनत किए भाग्य सिद्ध नहीं हो सकता। और हम सभी जानते हैँ की योग्यता और ज्ञान के अनुसार किया गया परिश्रम, आपको सफलता के मीठे फल को चखने का अवसर प्रदान करता है।
४:-सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्।
वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः।।
भावार्थ:-बिना सोचे-समझे कोई भी काम जोश में नहीं करना चाहिए, क्योंकि विवेक का न होना सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। सोच समझकर काम करने वाले को ही मां लक्ष्मी और चुनती हैं। और याद रखें मित्रों माता लक्ष्मी जिन्हें चुनती हैँ सफल अक्सर वो हि होते हैँ।
५;-अकामां कामयानस्य शरीरमुपतप्यते।
इच्छतीं कामयानस्य प्रीतिर्भवति शोभना।।
भावार्थ:-व्यक्ति को कुछ ऐसा करना चाहिए जिसमें वास्तव में उसकी रुचि हो, क्योंकि वह एक आनंददायक प्रयास होगा। यदि कोई एक उद्यम शुरू करता है जो उसे लुभाता नहीं है, परिणाम स्वयं को नुकसान पहुंचाने वाला होता है। अर्थात जिसमें आपकी रुचि हो, उसी ज्ञान को प्राप्त कर उसमें पारंगत होने का प्रयास और फिर उसी के अनुसार कर्म करना चाहिए।उदाहरण के लिए यदि आपको किसी खेल में रूचि है तो आपके लिए अभियांत्रिकी की पढ़ाई व्यर्थ होगी , उसी प्रकार यदि आपकी रुचि चिकित्सक बनने की है तो आप वकालत के क्षेत्र में क्या करेंगे।
६:-आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति।।
भावार्थ:-मनुष्य के शरीर में रहने वाला आलस्य ही उसका सबसे बड़ा शत्रु होता है, परिश्रम के समान दूसरा कोई मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता।
७;-न ही कश्चित् विजानाति किं कस्य श्वो भविष्यति।
अतः श्वः करणीयानि कुर्यादद्यैव बुद्धिमान्।।
भावार्थ:
कल क्या होगा यह कोई नहीं जानता, इसलिए जो कल का काम आज कर सकता है वही बुद्धिमान है। कबीरदास जी ने भी कहा है “काल करे सो आज करे, आज करे सो अब। पल में प्रलय होवेगा बहुरी करेगा कब।” अत: कभी भी किसी कार्य को कल करूंगा, ऐसा कह कर नहीं टालना चाहिए, क्योंकि कल हमारे जीवन में आयेगा या नहीं, हमें नहीं पता।
८:-वृत्तं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमेति च याति च ।
अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः ।।
भावार्थ-चरित्र को बढे प्रयत्न से सम्भालना चाहिए,धन तो आता है और जाता है। धन के नष्ट होने से कुछ नष्ट नही होता है,चरित्र से नष्ट हुआ तो मर जाता है।
मित्रों हमारे पूर्वजों ने अपने अनुभव, ज्ञान और अनुसंधान के आधार पर जो जीवन के गुण बताये हैँ, वो निसंदेह अद्भुत और ग्रहणीय है, उदाहरण के लिए:-
** आपत्तियां मनुष्यता की कसौटी हैं । इन पर खरा उतरे बिना कोई भी व्यक्ति सफल नहीं हो सकता ।
**कष्ट और विपत्ति मनुष्य को शिक्षा देने वाले श्रेष्ठ गुण हैं । जो साहस के साथ उनका सामना करते हैं , वे विजयी होते हैं ।
**प्रकृति , समय और धैर्य ये तीन हर दर्द की दवा हैं ।
**जैसे जल द्वारा अग्नि को शांत किया जाता है वैसे ही ज्ञान के द्वारा मन को शांत रखना चाहिये |
**जो अपने ऊपर विजय प्राप्त करता है वही सबसे बड़ा विजयी हैं ।
**वही उन्नति करता है जो स्वयं अपने को उपदेश देता है ।
**अपने विषय में कुछ कहना प्राय : बहुत कठिन हो जाता है क्योंकि अपने दोष देखना आपको अप्रिय लगता है और उनको अनदेखा करना औरों को ।इसलिए दोषो को मिटाने का प्रयास कीजिए!
मित्रों ये वो अनमोल शिक्षाएं हैँ, जो हमें सदैव असत्य से सत्य की ओर, तिमिर से तेज अर्थात प्रकाश की ओर और आलस्य से परिश्रम की ओर ले जाती हैँ।
९:-विद्या विवादाय धनं मदाय शक्तिः परेषां परिपीडनाय।
खलस्य साधोर् विपरीतमेतद् ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय॥
अथार्त : दुर्जन की विद्या विवाद के लिये, धन उन्माद के लिये, और शक्ति दूसरों का दमन करने के लिये होती है। सज्जन इसी को ज्ञान, दान, और दूसरों के रक्षण के लिये उपयोग करते हैं। इसके चिन (दुर्जन) और भारत (सज्जन) प्रत्यक्ष उदाहरण हैँ।
१०:-नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते वने।
विक्रमार्जितसत्वस्य स्वयमेव मृगेन्द्रता॥
अर्थात : सिंह को जंगल का राजा नियुक्त करने के लिए न तो कोई अभिषेक किया जाता है, न कोई संस्कार। अपने गुण और पराक्रम से वह खुद ही मृगेंद्रपद प्राप्त करता है।
मित्रों सिंह स्वयं पर भरोसा करता है। सिंह को स्वयं के बुद्धी, ज्ञान, शारीरिक बल और शिकार की पद्धति और साथ में लक्ष्य निर्धारित कर उसे बेधने के चातुर्य पर अत्यंत भरोसा होता है। और इसी विश्वाश और योग्यता के बल पर सम्पूर्ण पशु पक्षी जगत पर राज करता है।
ISRO वही सिंह है, जिसने अपने पर भरोसा रखा, वैज्ञानिकों ने लक्ष्य निर्धारित किया और अपने ज्ञान, चातुर्य और योग्यता के बल पर उस लक्ष्य को बेध डाला और आज पूरे ब्रह्माण्ड में भारतीयों के शिश को आकाश से भी ऊँचा करके ५६ इंच की छाती फुलाकर चलने का मौका दे दिया। आज सम्पूर्ण विश्व हमारे वैज्ञानिकों के ज्ञान और योग्यता को प्रणाम कर रहा है।
और हाँ मित्रों चलते चलते हम रूस के लूना २५ का धन्यवाद अदा करते हैँ की, पहले पहुंचने के लिए उसने सारे दुर्भाग्य अपने शिश ले लिए और हमारे लिए मार्ग निष्कटंक बना दिया।
जय हिंद।
जय ISRO
भारत माता की जय।