मित्रों अभी कुछ दिन पूर्व हि एक समाचार अति तीव्रता से विचरता हुआ हम सबके कानो में पहुंचा। दिल्ली का एक व्यक्ति अपने जीवन की हाड़ तोड़ परिश्रम से अर्जित की हुई राशि से एक रहिवासी सदनीका क्रय करता है। उस सदनीका में एक भाड़ौत्री पूर्व से हि निवास कर रहा था, उस भाड़ौत्री से उस सदनीका को छुड़ाने के लिए ३८ वर्षों तक संघर्ष करना पड़ा, न्यायलयों के चक्कर लगाने पड़े।
न्यायायिक प्रणाली (ज्यूडिसियल सिस्टम) की इस सड़ी गली व्यवस्था का कोई यह प्रथम उदाहरण नहीं है। आपको कुछ और उदाहरण दे रहा हुँ: –
१:- कानपुर वाले डाकिया बाबू का सच्चा संघर्ष उस वक्त हमारे समक्ष प्रस्तुत हुआ, जब संघर्ष के ३५ से भी अधिक वर्षों के पश्चात ५० से ५१ रुपये चोरी करने के आरोप से उन्हें न्यायलय द्वारा मुक्त कर दिया गया। यद्यपी उनके केस में केवल एक हि साक्षीदार था, जो की शिकायतकर्ता स्वयं था। केवल एक साक्षीदार वाला केस ३५ वर्षों तक न्यायालय की इस घिनौनी व्यवस्था के अंतर्गत लटकता रहा और एक व्यक्ति अपने माथे पर चोर होने का आरोप न्यायालय की अनुकम्पा से झेलने को विवश रहा।
२:- इसी प्रकार एक वायुसेना के कर्मचारी पर उसकी हि बेटी ने शिलभंग करने का आरोप मढ़ दिया और प्रथम सूचना प्रतिवेदन (FIR) पंजीकृत करा दिया। अब पुलिस ने भी तत्परता दर्शाते हुए उस कर्मचारी को गिरफ्तार कर न्यायालय में पेश कर दिया।
आपको बताते चले की उस कर्मचारी की पुत्री FIR लिखवाने से करीब ६ महीने पूर्व हि अपने प्रेमी के साथ घर से भाग गयी थी। वो दोनो ६ महीने तक एक दूसरे के साथ पति पत्नी के रूप में साहवास कर रहे थे। वायुसेना के कर्मचारी ने अपनी बेटी के गुमशुदगी की सूचना भी उसी पुलिस थाने में दर्ज करायी थी।
मित्रों उस कर्मचारी की पत्नी, उसके बेटे, उसके पड़ोसी और अन्य सगे सम्बन्धी सभी ने उसका साथ दिया और न्यायालय में आकर एक साक्षीदार के रूप में उस कर्मचारी के पछ में अपना कथन (बयान) पंजीकृत (दर्ज) कराया। वो कर्मचारी चीखता रहा चिल्लाता रहा की DNA टेस्ट करा लो। मेरी बेटी के उस प्रेमी को भी बुलाकर उसका भी DNA टेस्ट करा लो, परन्तु ना तो सत्र न्यायालय ने सुना और ना पुलिस वालों ने, सबके सब गूंगे बहरे बन के बैठे रहे और अंतत: स्त्र न्यायालय ने उस निर्दोष को दोषी मानकर सजा सुना दी।
उस कर्मचारी ने सत्र न्यायालय के आदेश को चुनौती दी उच्च न्यायालय में पर जब तक उस पर सुनवाई होती तब तक उस व्यक्ति की मृत्यु हो चुकी थी। उसकी पत्नी और बेटों ने हिम्मत नहीं हारी और लड़ते रहे। अंतत: उच्च न्यायालय को भी कहना पड़ा की सत्र न्यायालय का आदेश न्याय नही अपितु “न्याय का गर्भपात” (Miscarriage ऑफ Justice) है। उच्च न्यायालय ने उस कर्मचारी को १२ वर्षों के पश्चात दोषमुक्त कर दिया।
३:- एनटीपीसी सिंगरौली (शक्तिनगर) के कैंटीन कर्मचारियों को ३५ वर्षो के पश्चात न्याय मिलने से कार्मिकों व परिजनों में खुशी की लहर दौड़ गई। एनटीपीसी ने कर्मचारियों को संस्था का हिस्सा मानते हुए २० कर्मियों को ज्वाइनिंग लेटर जारी कर दिया। संबंधित कर्मियों को २५ जुलाई तक एनटीपीसी के विभिन्न पावर प्लांटों में ज्वाइन करना है। इससे पहले मेडिकल सहित अन्य औपचारिकता पूरी करनी होगी।कैंटीन कर्मचारियों ने स्थाई नियुक्ति के लिए लड़ाई वर्ष १९८७ में शुरू की थी। औद्योगिक विवाद के रूप में शुरू मामला सर्वोच्च न्यायालय तक गया। इस दौरान कई उतार चढ़ाव आए लेकिन न तो कर्मचारियों ने हिम्मत हारी ना तो पैरोकारों ने।
४:-ऐसा एक मामला उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर से सामने आया है। यहां १३७२ रुपये गबन के मामले में एक व्यक्ति को ३५ साल न्याय पाने में लग गए। राम प्रताप यादव के साथ जब ये धोखाधड़ी हुई तब उनकी उम्र ३५ वर्ष थी, अब जब कोर्ट का फैसला आया तो वे ७० वर्ष के हो गए।
सुल्तानपुर के बल्दीराय तहसील के पड़रे डाकघर की शाखा में ३५ वर्ष पहले राम प्रताप यादव ने अपना पैसा जमा किया था। उनका आरोप था कि डाकिया जगदीश प्रसाद ने उनके फर्जी हस्ताक्षर कर उनके खाते से १३७२ रुपये निकाल लिए। यादव ने मामले की शिकायत डाक विभाग के आला अधिकारियों से की। अधिकारियों ने जांच में मामले को सहीं पाया । प्रकरण का विचारण १९८४ से अदालत में चल रहा था। जिसका निवारण बुधवार को अदालत ने किया।
३५ वर्ष पश्चात मिले ७५०० रुयये-
कोर्ट ने अपने आदेश में लिखा कि 35 साल पहले आरोपित एक लोक सेवक होते हुए नवयुवक था। उसकी लगातार कोर्ट में उपस्थिति, ७० वर्ष की आयु और गबन की कम धनराशि को देखते हुए ३ वर्ष के कारावास की सजा तथा १० हजार रुपये जुर्माने से दंडित किया जाता है। साथ ही कोर्ट ने जुर्माने की रकम में से ७५०० रुपये पीड़ित राम प्रताप यादव को दिए जाने का आदेश सुनाया।
५:-अनंतनाग जिले के छत्तीसिंघपोरा गांव में कथित तौर पर अज्ञात बंदूकधारियों द्वारा ३५ कश्मीरी सिखों के नरसंहार के २३ वर्ष बाद भी आज तक किसी को गिरफ्तार नहीं किया जा सका है और न ही कोई पूछताछ की गई है।
ऑल-पार्टी सिख कोऑर्डिनेशन कमेटी कश्मीर (APSCCK) के अध्यक्ष जगमोहन सिंह रैना ने Indianarrative.com के साथ एक विशेष साक्षात्कार में कहा, “पीड़ित सिख परिवारों ने न्याय पाने की सारी उम्मीद छोड़ दी है। लेकिन फिर भी, उन्होंने गांव नहीं छोड़ने का फैसला किया, हालांकि मार्च २०२० में उनके अधिकांश पुरुष सदस्य मारे गए।’
६:-प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा मदनपुरा में एक कपड़े की दुकान पर छापा मारने और 1.78 लाख रुपये जब्त करने के पैंतीस साल बाद, बॉम्बे हाई कोर्ट ने एजेंसी को ६% ब्याज के साथ राशि वापस करने का निर्देश दिया है।
१२ मई, १९८८ को मदनपुरा में अब्दुल अजीज अहमद अंसारी की दुकान पर छापा मारा गया और कुछ दस्तावेजों के साथ उपरोक्त राशि वाले कैश बॉक्स को जब्त कर लिया गया। लगभग एक साल बाद, ५ मई, १९८९ को, ईडी ने विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, १९७३ (FERA) के कई प्रावधानों के उल्लंघन का आरोप लगाते हुए एक कारण बताओ नोटिस जारी किया। इसमें कहा गया कि अंसारी ने भारत के बाहर रहने वाले व्यक्तियों से धन प्राप्त किया और उनकी ओर से भुगतान किया। इस न्याय को प्राप्त करने में लगभग ३५ वर्ष बित गये।
७:- वर्ष १९८४ में हुए भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ित आज भी न्याय के चककर में अपनी जिंदगी के दिन काट रहे हैँ पर उन्हें न्याय मिलने की उम्मीद ना के बराबर है।
८:- ३५ साल पहले, ४ फरवरी १९८१ को, फूलन देवी के गिरोह ने कथित तौर पर कानपुर से १०० किलोमीटर दूर बेहमई गांव में २० ग्रामीणों की गोली मारकर हत्या कर दी थी। उन ग्रामीणों के परिवार वाले आज भी न्याय की आशा में अपनी जिंदगी गुजार रहे हैँ, ये जानते हुए भी की उन्हें न्याय नहीं मिलने वाला।
९:- कश्मीर में गिरिजा टिक्कू के साथ हैवानों ने सामूहिक बलात्कार किया और उसे जिंदा आरे से काट दिया गया। ये घटना वर्ष १९९० के आस पास की है, और निकृष्ट न्याय प्रणाली उसकी सुनवाई करने को भी तैयार नहीं है।
१०:-३५ साल की लंबी कानूनी लड़ाई और करीब 400 बार कोर्ट का चक्कर काटने के बाद ८५ वर्षीय धर्मपाल सिंह (Dharampal Singh) को आखिरकार न्याय मिल गया. उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh news) के मुजफ्फरनगर (Muzaffarnagar) में अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट-2 मुकीम अहमद ने सबूतों के अभाव में धर्मपाल सिंह को बरी कर दिया. धर्मपाल सिंह को साल १९८६ में अपने घर में अवैध रूप से कीटनाशनक बनाने के मामले में आरोपी बनाया गया था. शामली (Shamli) जिले के हरान गांव के रहने वाले धर्मपाल ने कहा कि अब ऐसा लग रहा है जैसे मेरे कंधे पर से बहुत बड़ा बोझ उतर गया है.
35 सालों तक धर्मपाल कोर्ट का चक्कर लगाते रहे और तीरीख पर तारीख की तरह इस मामले में ४०० बार कोर्ट के समक्ष पेश हुए. इस दौरान उनके काफी पैसे खर्च हुए. इतने सालों तक जब पुलिस सबूत अथवा गवाह पेश नहीं कर पाई, तब जाकर एसीजेएम कोर्ट ने धर्मपाल को बरी कर दिया. इस मामले में धर्मपाल के भाई कुंवरपाल भी आरोपी थे, मगर पांच साल पहले न्याय मिलने से पहले ही उनकी मौत हो गई. वहीं मामले में दर्ज एक अन्य व्यक्ति लियाकत अली को पहले अदालत ने भगोड़ा घोषित किया था. हालांकि, धर्मपाल को १८ दिन जेल में बिताने पड़े थे.
मेरे एक मित्र के अनुसार एक जमीन के टुकड़े के लिए वो और उनका पड़ोसी उनके दादा के जमाने से केस लड़ रहे हैँ। इस केस को लड़ने के दौरान जमीन के मालिक की मृत्यु हो चुकी है, उनके दादाजी का स्वर्गवास हो गया है अब उनके पिताजी ये केस लड़ रहे हैँ। उनका पड़ोसी भी अपनी आधी से अधिक जिंदगी खपा चुका है। हमने उनसे पूछा की लगभग २५ वर्षों से आप लोग न्यायालय के चककर काट रहे हो और मिला कुछ भी नहीं तो आप न्यायालय के बाहर समझौता क्यों नहीं कर लेते। उन्होंने बताया की उनका पड़ोसी समझौते के लिए तैयार नहीं है। चलिए देखते हैँ हो सकता है, हमारे बाद वाली पीढ़ी तक ये मामला सुलझ जाए या फिर समझौता हो जाए।
मित्रों ये तो एक प्रकार का उदाहरण है, अब दूसरे प्रकार का उदाहरण देखें।
१:- याक़ूब मेनन जैसे आतंकवादी को मौत की सजा से बचाने वाली याचिका पर सुनवाई करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय सुबह ४ बजे बैठ जाता है, परन्तु भारत की बेटी गिरिजा टिक्कू के सामूहिक बलात्कार और जिंदा काट दिये जाने के मामले ओर सुनवाई से इंकार कर देता है।
२:- नूपुर शर्मा के मामले में सर्वोच्च न्यायालय संविधान की धज्जियाँ उड़ाते हुए उसके द्वारा दिये गये बयान को देश का माहौल खराब करने के लिए जिम्मेदार बता देता है और उसे फटकार लगाता है, वंही नूपुर शर्मा के बयान को लोगों की भावनाये भड़काकर दंगा फैलाने के उद्देश्य गलत ढंग से पेश करने वाले Alt News वाले मोहम्मद जुबेर को अपने दामाद की तरह मानकर चुपचाप जमानत पर छोड़ देता है।
३:-बिहार के सच को दिखाने वाले मनीष कश्यप के साथ हो रहे अत्याचार को अनदेखा करते हुए सर्वोच्च न्यायालय उसे कोई अनुतोष नहीं देता। जबकी २० वर्षों तक झूठे साक्षीदार और झूठे साक्ष्य तैयार कर गोधरा के नाम पर पूरे देश के साथ विश्वाशघात करने वाली सस्ती तिस्ता सितलवाद को अपना सगा मानकर रात को ९ बजे सुनवाई करती है और जमानत पर रिहा कर देती है।
४:- मणिपुर की घटना का तो वो तुरंत संज्ञान ले लेता है, परन्तु पश्चिम बंगाल, राजस्थान और केरल में होने वाली घटनाओं से मुंह फेर लेता है।
५:- उसे चरखे वाले, बिना खड़ग और बिना ढाल वाले गाँधी का अपमान तो दिखाई पड़ता है, परन्तु १२ वर्षों तक काला पानी की सजा काटने वाले परमविर दामोदर सावरकर का अपमान दिखाई नहीं पड़ता।
६:- मित्रों सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश श्रीमान चंद्रचूर्ण का अपना सगा लड़का Bombay High Court में विधि व्यवसाय करता है। High Court में उसे विशेष दर्जा दिया जाता है, आप समझ सकते हैँ, मेरा संकेत किस ओर है।
ऐसे अनगिनत उदाहरण आपको मिल जाएंगे जब न्यायालय स्वयं संविधान की धज्जियाँ उडाता हुआ दिखाई पड़ता है। संविधान के अनुच्छेद १४ और १५ का तो अक्सर ही शिलभंग किया जाता है।
मित्रों ये सब केवल और केवल कालेजियम सिस्टम से उपजी औपनिवेशिक मानसिकता का हि परिणाम है। अब वर्तमान चंद्रचूर्ण साहेब के आदरणीय पिता जी भी सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश थे तो बेटा तो होगा ही, कुछ हि वर्षों में भविष्य वाले श्री चंद्रचूर्ण भी अचानक आपको सर्वोच्च न्यायालय में दिखाई दे जाएंगे और यह क्रम चलता रहेगा।
आपको याद हि होगा कि “कांग्रेस के राज में अभिषेक मनु सिंघवी जैसे महान विधिवेट्टा किस प्रकार अपने कार्यालय में महिला अधिवक्ताओं को उच्च न्यायालय का न्यायधीश बनाते थे।
आप स्वयं देख सकते हैँ देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों में १०% न्यायधीशों को छोड़ दे तो बाकी बचे सभी कालेजियम सिस्टम की हि उपज हैँ। यदि आप अंग्रेजों की मानसिकता और सोच रखने वाले सिस्टम का हिस्सा हैँ, तो आप कुछ भी बन सकते हैँ, परन्तु आप सिस्टम में नहीं है तो आप कुछ भी करने लायक़ नहीं है।
इस प्रकार की न्यायिक व्यवस्था हमारे समाज और हमारे देश के हित में बिल्कुल भी नहीं है। इसमें परिवर्तन करना ही होगा और कोई भी परिवर्तन बगैर क्रांति और संघर्ष के सफल नहीं होती।
जय हिंद।