वर्तमान में देवभूमि भारतवर्ष पर विदेशी तंत्र स्थापित है जिसका नाम इंडिया है। इस विदेशी तंत्र ने ही इस भारतवर्ष के ऊपर इंडिया नाम थोप दिया है, नाम के अतिरिक्त संविधान, कानून, कोर्ट, पुलिस आदि इसका हिस्सा है। इस तंत्र की समझ केवल उन लोगों को है, जिनको यह हस्तांतरित किया गया था या उनके बनाए शिक्षा संस्थानो के छात्रों को।
इस तंत्र ने मोहम्मडेनों को एक अलग राज्य और स्वतन्त्रता दी है। सनातन धर्मविलंबियों, बौद्धो, सिखों, जैनियो को अपने अधीन ही रखा है।
इंडिया मूल रूप से विदेशी विचारधारा वामपंथ और विदेशी मजहबों का मिश्रण है। यह विदेशी मजहब को अपनाने के लिए प्रेरित करता है और मजहबियों को आर्थिक, सामाजिक सहायता करता है। दूसरी ओर यह धर्मविलंबियों के साथ दुर्रव्यवहार करता है। सनातन धर्म के मंदिर, संस्थाए, कला, साहित्य आदि को नष्ट करने में इंडिया हमेशा तत्पर है।
यदि किसी भारतीय को बिना प्रशिक्षण के एक विदेशी तकनीक की कार या कम्प्युटर चलाने के लिए दे दिया जाए तो उसकी स्थिति वैसी ही होगी जैसे की किसी भारतीय प्रधानमंत्री की जिसको इंडिया की चाबी दे दी गयी हो। ऐसे प्रधानमंत्री को न तो ये समझ में आएगा की कौनसा बटन दबाने से दंगे रुक सकते है, कौनसे बटन से अर्थव्यवस्था की गति धीमी या तेज़ होगी।
इस विदेशी तंत्र ने भारतीयो को अपने धर्म और संस्कृति से परे कर के सामर्थहीन बना दिया है। भारतीय अपने धर्म के मूल सिद्धांतों से दूर हो कर उस जड़रहित वृक्ष के समान हो चुके है, जो थोड़ी सी आँधी आते ही गिर सकते है। भारतीय दर्शन का मूल सिद्धांत धर्म की स्थापना करना है, क्यों न इसके लिए युद्ध ही करना पड़े। इसी मूल सिद्धांत का पालन भगवान श्री राम, महाभारत और आचार्य चाणक्य ने किया था और एक धार्मिक राज्य की स्थापना की थी।
विडम्बना यह है की इस वर्तमान स्थिति का समाधान भी वामपंथ से ही आता है, जिससे भारतवासी, वामपंथी, धर्मविलम्बी, मजहबी, विदेशी आदि सभी सहमत है। समाधान यह है की पहले चरण में इंडिया नामक तंत्र को समाप्त कर के, दूसरे चरण में सभी पंथों को अपना अलग राष्ट्र मिलना चाहिए। इससे सिख खलिस्तान, बोद्ध, जैन और सनातनीयों को अपना अपना राष्ट्र मिल जाएगा। मुस्लिमों को पहले हे १९४७ में अलग उम्मा पाकिस्तान और बांग्लादेश के रूप में मिल चुका है।
ध्यान देने वाली बात यह है की इस प्रस्ताव पर गहन चिंतन करने के बात ही निर्णय होना चाहिए। दूरगामी परिणामों पर चर्चा आवश्यक है जिससे ये स्थिति भविष्य में दुबारा उत्पन्न न हो।
धार्मिक राज्य का गठन – अगले अंक में