छद्म धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिक सौहार्द के नाम पर जिस पर आज तक पर्दा डाले रखा गया था, “द कश्मीर फाइल” फिल्म ने कश्मीरी हिंदुओं की उस ह्रदयविदारक कहानी पर आज देश को चर्चा के लिए मजबूर कर दिया है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, सोशल मीडिया, प्रिन्ट मीडिया से लेकर चौक चौराहों में चाय की गुमटियों और गाँवों की चौपाल तक में कश्मीरी हिंदुओं की आपबीती पर बहस छिड़ी हुई है। कश्मीरी पंडितों के दर्द को देख कर लोगों का स्वाभाविक आक्रोश फूट पड़ा और निशाने पर आई लगभग आधी सदी तक देश की सत्ता का सिरमौर रही कांग्रेस। इससे बचने कांग्रेस ने एक समय इंदिरा, संजय एवं राजीव गांधी के दुलारे रहे कश्मीर के तत्कालीन गवर्नर जगमोहन मल्होत्रा को कश्मीरी पंडितों का खलनायक बनाकर प्रस्तुत कर दिया और बाकी का दोष तब की केंद्र सरकार को बाहर से समर्थन दे रही भाजपा पर मढ़ दिया। उनका राजीव गांधी की भूमिका पर चुप् रहना तो स्वाभाविक है पर प्रधानमंत्री व्हीपी सिंह, गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद और जनवरी 1990 तक कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे फारुख अब्दुल्ला की बजाय कांग्रेस ने इस घटना के खलनायक के तौर पर स्व जगमोहन को चुना क्योंकि लंबे समय तक गांधी परिवार के खासमखास बने रहने के बावजूद बाद में वे भाजपा में शामिल हो गए थे और आज देश का जो परिद्रश्य है उसमें भाजपा और एक भाजपाई को कठघरे में खड़े करना कांग्रेस को राजनैतिक रूप से लाभप्रद भले नजर आ रहा हो पर इस मामले में उसका दामन इतना दागदार है कि इससे पल्ला झाड़ना आसान नहीं है।
1987 से 90, त्रासदी का दौर
वर्ष 1986 में नेशनल कॉन्फ्रेंस के बागी विधायक गुलाम मोहम्मद शाह कॉंग्रेस के समर्थन से जम्मू एवं कश्मीर राज्य के मुख्यमंत्री थे और कांग्रेस इस गठबंधन से बाहर निकलना चाह रही थी। उन्हे यह अवसर दिया अनंतनाग में हिंदुओं के विरुद्ध हुए हिंसक दंगों ने और इन दंगों को भड़काने में संदिग्ध भूमिका थी मुफ्ती मोहम्मद सईद की। मुफ्ती मोहम्मद सईद तब कश्मीर के सबसे प्रमुख कांग्रेसी नेता के तौर पर जाने जाते थे। इन्हीं अनंतनाग दंगों की आड़ लेकर कांग्रेस ने शाह से समर्थन वापिस ले लिया, गवर्नर ने राज्य सरकार को बर्खास्त कर दिया और राजीव गांधी सरकार ने मार्च 1986 में वहाँ गवर्नर रूल लागू कर दिया। एक वर्ष बाद 1987 में हुए जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस ने गठबंधन कर लड़ा और केंद्र की राजीव गांधी सरकार के सहयोग से ऐतिहासिक धांधली कर बहुमत प्राप्त कर लिया। फारुख अब्दुल्ला के नेत्रत्व में बनी कांग्रेस-नेशनल कॉन्फ्रेंस की गठबंधन सरकार को कश्मीर में पैर पसारते आतंकवाद और हिंदुओं के विरुद्ध खुलेआम हिंसक घटनाओं के बावजूद भी केंद्र की राजीव गांधी सरकार का समर्थन जारी रहा। दिसम्बर 1989 में केंद्र सरकार बदली तब जनवरी 1990 में व्हीपी सिंह ने एक बार पुनः जगमोहन मल्होत्रा को कश्मीर का गवर्नर नियुक्त कर कश्मीरी हिंदुओं को फारुख अब्दुल्ला सरकार से मुक्ति दिलाई परंतु तब तक कांग्रेस एवं फारुख अब्दुल्ला सरकार ने कश्मीरी हिंदुओं के लिए कभी न भूल सकने वाली दुःस्वप्न की प्रष्ठभूमि तैयार कर दी थी। हालांकि गवर्नर जगमोहन मल्होत्रा के तमाम प्रयासों के बावजूद इन कश्मीरी हिंदुओं की मुसीबत कम नहीं हुई, 1987 से 90 के दौर में प्रारम्भ हुई यह त्रासदी कश्मीर से हिंदुओं के पूरी तरह पलायन होने तक चलती रही।
सुलगते कश्मीर में राजनेताओं की संदिग्ध भूमिका
वैसे तो कश्मीर से हिंदुओं का पलायन, प्रताड़ना, उत्पीड़न काफी पहले से ही शुरू हो गया था परंतु जनवरी 1990 में यह बेलगाम हो गया। हिंदुओं सिखों के घर में रातों रात घर छोड़ने की धमकियों के पर्चे चिपक गए, मस्जिदों के लाउड स्पीकरों से एलान होने लगा, खुलेआम हत्या बलात्कार होने लगे, यहाँ तक की अब तो हिंदुओं को कश्मीर छोड़ने के लिए अखबारों में तक विज्ञापन आने लग गए थे। ये सब रातों रात नहीं हो गया कि जिसके लिए एक-दो महीने पुरानी केंद्र सरकार पर पूर्णतः दोषारोपण कर बाकी को बरी कर दिया जाए। दरअसल 1990 में कश्मीरी हिंदुओं के साथ जो कुछ भी घटित हुआ उसकी पटकथा नेहरू जी के प्रधानमंत्री बनते ही लिखना प्रारंभ हो गई थी। ये सर्वविदित है कि जिस तरह से नेहरू जी ने कश्मीर विलय एवं 1947 के पाकिस्तान युद्ध मामलों में भूमिका निभाई उसने ही कश्मीर में एक चिरस्थाई समस्या को जन्म दे दिया था।
इस दौरान पाकिस्तान के कब्जे में चले गए कश्मीर खासकर मीरपुर में कश्मीरी सिख एवं हिन्दुओं के नरसंहार के बाद भी हिंदु-सिखों के लिए भारतीय कश्मीर में रहना उतना कठिन नहीं रहा जितना राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद दिन प्रति दिन होता चला गया। उन्होंने न केवल अफगानिस्तान और पाकिस्तान में कश्मीर को लेकर चल रहे षडयंत्र के इनपुट्स को नजरअंदाज किया बल्कि सुलगते हुए कश्मीर में भी वे कभी कांग्रेस के कश्मीरी नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद तो कभी गुलाम मोहम्मद शाह तो कभी नेशनल कॉन्फ्रेंस के साथ मिल कर सत्ता की खींचतान में लगे रहे। पाकिस्तान तो पहले ही कश्मीर में अलगाववादी एवं कट्टरपंथियों को हवा देने में लगा था पर केंद्र की राजीव गांधी सरकार, कश्मीर के कांग्रेसी नेता और फारुख अब्दुल्ला की भूमिका ने इस आग में घी का काम किया।
कश्मीरी हिंदुओं को न्याय मिलेगा?
आज कांग्रेसी इन तमाम घटनाओं के लिए जगमोहन और भाजपा पर ठीकरा फोड़ने का लाख प्रयास कर ले पर 1947 से लेकर 1989 के दौर में भारत के सरपंच से लेकर प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति पद पर निर्बाध रूप से काबिज रही कांग्रेस कश्मीरी हिंदुओं के साथ हुए इस जघन्य अपराध से पल्ला नहीं झाड सकती। #KashmirFiles फिल्म के बहाने कश्मीरी हिंदुओं की अनेकों अनसुनी कहानियां सामने आ रही हैं साथ ही इसने कांग्रेसी इकोसिस्टम को भी उजागर किया है। पर मेरा मानना है की इस फिल्म से प्रारंभ हुए विमर्श की सार्थकता तभी होगी जब कश्मीरी हिंदुओं को न्याय मिलेगा।