1980 और 1990 के दशक में हुए कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार पर बनी फिल्म द कश्मीर फाइल्स को पर्दे पर आने के बाद लोगों की अलग-अलग प्रतिक्रियाएं सामने आ रही है। एक तरफ जहां उसे अभूतपूर्व समर्थन मिल रहा है वहीं दूसरी तरफ के लोगों का वह चेहरा भी सामने आ रहा है ।जिन्होंने दशकों तक कश्मीर के उस सत्य को बाहर आने से रोके रखा और जब यह फिल्म रिलीज होने को आई तो फिल्म द कश्मीर फाइल्स को रोकने के लिए एक खास वर्ग समूह द्वारा अलग-अलग हथकंडे अपनाए गए।
जिनमें प्रमुख हैं द कश्मीर फाइल्स की रिलीज पर रोक लगाने वाली याचिका परंतु इस याचिका को मुंबई हाई कोर्ट ने खारिज कर दिया इनके साथ ही यह साफ हो गया कि फिल्म बड़ी स्क्रीन पर रिलीज होगी। आप इनके उस मानसिकता को याद कीजिए जब इन्होंने यह कहना शुरू कर दिया था कि फिल्म को रिलीज होते ही सामाजिक सद्भावना बिगड़ जाएगा, दो समुदायों के बीच नफरत पैदा होगी इस बात पर प्रेमचंद जी का एक विचार याद आता है कि ”बिगाड़ के डर से ईमान की बात ना कहोगे “फिल्म रिलीज होने के बाद खास वर्ग समूह द द्वारा इस फिल्म को प्रोपेगेंडा फिल्म घोषित किया जाने लगा परंतु जब बात नहीं बनी तो इन्ही लोगों ने कश्मीर के मुसलमानों के दुख दर्द को शामिल नहीं करने को लेकर अलग ही रोना रोया और आंकड़े देने लगे की कितने मुस्लिम विस्थापन हुआ कितने का आतंकवादियों ने मर्डर किया परंतु यह सब केवल एक वही है जो भारत के साथ खड़ा था इसलिए मारा गया।
लेकिन हिंदुओं का नरसंहार तो इस्लामिक आतंकवादियों ने धार्मिकता के आधार पर किया है इस बात को लिबरल मानने को तैयार ही नहीं है। ये वही कह रहे हैं जिनसे कि कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार को जस्टिफाई किया जा सके। अंत में मेरा व्यक्तिगत विचार हैं “आप द कश्मीर फाइल्स को प्रोपेगेंडा फिल्म कह कर आप हजारों कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार को जायज बता रहे हैं”
@LiberalDalit