यह किसी राजनीतिक भक्त की बात नहीं हो रही है। यह उस भक्त की बात है जो माँ दुर्गा का भक्त था और केवल अट्ठारह साल की छोटी सी उम्र में मौत के घाट उतर दिया गया। अनुराग पोद्दार की हत्या को एक साल होने को आया। पिछले वर्ष दुर्गा पूजा का अंतिम दिन तथा विसर्जन का समय और बिहार राज्य की शासकीय अकर्मण्यता एवं पुलिस कुव्यवस्था की बलि चढ़ गया एक क्षमतावान नवयुवक।
२६ अक्टूबर २०२० की शाम तथाकथित धर्मनिरपेक्ष बिहार प्रशासन ने अपनी अयोग्यता को छुपाने के लिए माँ दुर्गा के भक्तों पे बेपरवाह लाठियाँ बरसवाई। मुंगेर का वह व्यस्त चौराहा जहाँ माँ दुर्गा की प्रतिमा को थोड़ी देर के लिए रखा जाता है वहाँ चारों तरफ चीख पुकार की आवाज़ और भक्तों की चीत्कारें गूँज उठी। मुंगेर शहर में तो जैसे मानो माता के भक्तों पे दुश्मनों ने हमला बोल दिया था। यह केवल शासन की लापरवाही नहीं थी। यह परिणाम था सत्ता का नशा और उस सत्ता की मूर्ति उपासकों के प्रति अपेक्षा का भाव।
जिसमे सत्ताधारी मुखिया यह भली-भाँती जानता था की उस एक वर्ग विशेष की और उठने वाली लाठी या चलने वाली गोली उसके सत्ता का कुछ नहीं बिगाड़ सकती। उस वर्ग विशेष को इतने अलग छोटे-छोटे समूहों में पहले ही बाँटा जा चुका है की है उनका एकजुट होना लगभग नामुमकिन है। एक पुलिस अधीक्षक जिसे अपने पद का गुरुर और ये अहंकार की जिस पार्टी की सरकार है वह उसके पिता की मुट्ठी में है सो उसका कुछ नहीं बिगाड़ा जा सकता। थानेदार जो की यह जानता था की मूर्ति पूजन करने वाले की हत्या से उसके नौकरी पे कोई आँच नहीं आएगी। वह सिपाही जो अंग्रेजी पुलिस व्यवस्था का अनुसरण करते हैं और जिन्हे भर्ती के समय उसी अँग्रेज़ सामंती व्यवस्था की सोच और व्यवस्था को कायम रखने का प्रशिक्षण दिया जाता है। यह हत्या इन सब सोच का समायोजन है।
अनुराग की हत्या किस पुलिसवाले ने की यह आज एक साल बाद भी पता नहीं चल पाया है। स्पष्ट सी बात है जो भी जाँच अभिकरण और अधिकारी हैं वह भली-भाँती जानते हैं की उसकी हत्या पुलिसिया कर्मचारी के द्वारा ही हुई है और इसलिए अभी तक चुप हैं। मात्र मुंगेर की जनता हो या समूचे बिहार की जनता वह यह सोच कर पार्टी को वोट देती है की वह उसके हितों की रक्षा करेंगे। जिस पुलिस मुखिया के नेतृत्व में यह जघन्य हत्या होती है उसे मात्र तबादला कर छोड़ दिया जाता है। अन्य अधिकारी भी मात्र तबादले की कृत्रिम सजा ही पाते हैं। राज्य के मुखिया इस गुमान में हैं की उनके तथाकथित सुशासन के छतरी के नीचे जनता इस बात को भुला देगी की अनुराग के पिताजी को हर्जाने में मिलने वाली राशि के खिलाफ उनकी सरकार उच्चतम न्यायालय चली गयी थी और वहां से हारने के बाद ही हर्जाने की राशि दी गयी।
अपनी किस गलती की भेंट चढ़ गया मासूम अनुराग? क्या अपने भगवान और आस्था की रक्षा करना अपने में इतना बड़ा अपराध है की उस अपराध का दंड मृत्यु है? और रक्षा करनी ही क्यों पड़ी उसे राज्य प्रशाशन और पुलिस से? क्या यह उसका और सबका अधिकार नहीं है की लोग उसी पूजा विधि का पालन करे जिस विधि से पूजा होती आई हो और क्या यह शासन का कर्त्तव्य नहीं है की वह उसी पूजा विधि से सारे कार्यों को करने दे? जिस भी व्यक्ति को अनुराह की माता का बिलखता चेहरा देख शर्म न आती हो वह अपनी मौत अपने अंदर ही मर चुका है। क्या बीती होगी उस माता और पिता पर जिनका नन्हा सा बालक जो की दुनिया भर की खुशियाँ समेटे अपने आराध्य की पूजा में प्रसन्नचित्त लिप्त हो और उसे गोली मार दी जाए और उसका मस्तिष्क उसके खोपड़ी से निकल कर सड़क पर पड़ा हो? सवाल यह है की आखिर एक ही धर्म की पूजा व्यवस्था को क्यों हमेश कुचला जाता है?
यह सिर्फ एक राजनीतिक मजबूरी है या यह उस शिक्षा व्यवस्था का परिणाम है जिसमे बारम्बार मूर्ति पूजन करने वालों को चिन्हित और घृणित किया जाता है। यही स्थिति बनी रही तो ज्यादा वक़्त नहीं लगेगा हिन्दुओं को भी २००० साल तक यहूदियों जैसे अपमान का घूंट पीते रहना पड़े और विभिन्न देशों में दोयम वर्ग का नागरिक बन के रहना पड़े। दशहरा हो तो मूर्ति विसर्जन इसलिए जल्दी करवा दिया जाए ताकि किसी दूसरे समुदाय को अपना धार्मिक जुलुस निकालने में आसानी हो मगर मूर्ति पूजने वाले का कष्ट किसी को दिखाई क्यों नहीं देता है? मात्र सत्ता लोलुपता के कारण। सवाल सब के निश्चय पे उठेंगे क्यूंकि अनुराग की मौत साधारण नहीं थी।
अनुराग की मृत्यु उस हर एक भक्त की मृत्यु है जो राज्य में अपने आराध्य की पूजा पूर्ण श्रद्धा से करना चाहता है।